भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १४८ से १५०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १४८ से १५०
कन्यादान एवं ब्राह्मणों की परिचर्या का माहात्म्य

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — राजन् ! जो विवाह करने योग्य कन्या को अलंकृतकर ब्राह्मविधि से सुयोग्य वर को प्रदान करता है, यह सात पूर्व और सात आगे आनेवाली पीढ़ियों को तथा अपने कुल के सभी मनुष्यों को भी इस कन्या-दान के पुण्य से तार देता है, इसमें संदेह नहीं । जो प्राजापत्य-विधि के द्वारा कन्या-दान करता है, वह दक्षप्रजापति के लोक को प्राप्त करता है । om, ॐवह अपना उद्धार कर अपार पुण्य प्राप्त करता है तथा अन्त में स्वर्गलोक प्राप्त करता है । जो पृथ्वी, गौ, अश्व, गज का दान हीन वर्ण को करता है, वह घोर नरक में पड़ता है । शुल्क लेकर कन्या का दान करनेवाला और नरक प्राप्त करता है और हजारों वर्षों तक अपवित्र लाला-भक्षण करता हुआ नरक जीवनयापन करता हैं । इसलिये सवर्णा कन्या सवर्ण को ही प्रदान करनी चाहिये । ब्राह्मण के बालक अथवा किसी अनाथ को जो चूडाकरण, उपनयन आदि संस्कारों से संस्कृत करता है, वह अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त करता है । अनाथ कन्या का विवाह करानेवाला स्वर्ग में पूजित होता है । पूर्वजों ने कहा है कि जो कन्यादान के साथ प्रदीप्त शुद्ध स्वर्ण का दान करता है, यह द्विगुणित कन्यादान का फल प्राप्त करता है । कन्या की पूजा से विष्णु की पूजा के समान पुण्य होता है ।

महाराज ! पृथ्वी पर ब्राह्मण ही देवता है, स्वर्ग में ब्राह्मण ही देवता है । इतना ही नहीं तीनों लोकों में ब्राह्मण से श्रेष्ठ कोई नहीं है । ब्राह्मणों में यह शक्ति हैं कि वे मन्त्र-बल के प्रभाव से देवता को अदेवता और अदेवता को देवता बना देते हैं । इसलिये महाभाग ! ब्राह्मण की सदा पूजा करनी चाहिये । देवगण ब्राह्मण से ही पूर्व में उत्पन्न हुए ऐसा स्मृतियों का कथन है । सम्पूर्ण जगत् ब्राह्मण से ही उत्पन्न है । इसलिये ब्राह्मण पूज्यतम है । देवगण, पितृगण, ऋषिगण जिसके मुख से भोजन करते हैं, उस ब्राह्मण से श्रेष्ठ और कौन हो सकता है ? धर्मज्ञ ! ब्राह्मणों का कल्याण करने वाला व्यक्ति स्वर्गलोक में पूजित होता है । जब प्रत्यक्ष देवता ब्राह्मण संतुष्ट होकर बोलते हैं तो यह समझना चाहिये कि परोक्ष में देवताओं की ही यह वाणी है । उससे मनुष्य का कल्याण हो जाता है, अतः सदा ब्राह्मण की सेवा करनी चाहिये ।
(अध्याय १४८-१५०)

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