भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १५१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १५१
दान की महिमा और प्रत्यक्ष धेनु-दान की विधि

महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! आपके श्रीमुख से मैंने पुराणों के विषयों को सुना । व्रतों को भी मैंने विस्तारपूर्वक सुना, संसार की असारता को भी मैने समझा, अब मैं दान के माहात्म्य को सुनना चाहता हूँ । दान किस समय, किसको, किस विधि से देना चाहिये, यह सब बताने की कृपा करें । मेरी समझ से दान से बढ़कर अन्य कोई पुण्य कार्य नहीं है, क्योंकि धनिकों का धन चोरों द्वारा चुराया जा सकता है अथवा राजा द्वारा छिनवाया जा सकता है, अतः धन रहने पर दान अवश्य करना चाहिये ।
om, ॐ
भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! मृत्यु के उपरान्त धन आदि वैभव व्यक्ति के साथ नहीं जाते, परंतु ब्राह्मण को दिया गया दान परलोक में पाथेय बनकर उसके साथ जाता है । हष्ट, पुष्ट, बलवान् शरीर पाने से भी कोई लाभ नहीं है, जबतक कि किसी का उपकार न करे । उपकारहीन जीवन व्यर्थ है । इसलिये एक ग्रास से आधा अथवा उससे भी कम मात्रा में किसी चाहनेवाले व्यक्ति को दान क्यों नहीं दिया जाता है इच्छानुसार धन कब और किसको प्राप्त हुआ या होगा ? धर्म, अर्थ तथा काम के विषय में सचेष्ट होकर जिसने प्रयत्न नहीं किया, उसका जीवन लोहार की धौंकनी की भाँति व्यर्थ ही चलता है । जिस व्यक्ति ने न दान दिया, न हवन किया, तीर्थस्थानों में प्राण नहीं त्यागा, सुवर्ण, अन्न-वस्त्र तथा जल आदि से ब्राह्मणों का सत्कार नहीं किया, वहीं व्यक्ति जन्म-जन्म में अन्न, वस्त्ररहित, रोग से ग्रसित, हाथ में कपाल लेकर दर-दर भटकता हुआ याचना करता रहता है । अनेक प्रकार के कष्टों को सहकर प्राणों से भी अधिक प्रिय जो धन एकत्र किया गया है, उसकी एक ही सुगति है दान । शेष भोग और नाश तो प्रत्यक्ष विपत्तियाँ ही है । उपभोग से और दान से धन का नाश नहीं होता, केवल पूर्व-पुण्य के क्षीण होने से ही धन का नाश होता है । मरणोपरान्त धन पर अपना स्वामित्व नहीं रह जाता, इसलिये अपने हाथ से ही सुपात्र को धन का दान कर लेना चाहिये । राजन् ! दान देने के अनेक रूप हैं, इस विषय में व्यास, वाल्मीकि, मनु आदि महापुरुषों ने पहले ही बतलाया है कि पूर्वजन्म में किये गये व्रत, दान एवं देवपूजन आदि पुण्यकर्म ही दूसरे जन्म में फलीभूत होते हैं ।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! भगवान् विष्णु शिव एवं ब्राह्मणों की प्रसन्नता के लिये जो दान जिस विधि से देना चाहिये आप उस विधि का वर्णन करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! गौ, भूमि और सरस्वती — ये तीन दान सभी दानों में श्रेष्ठ और मुख्य हैं । ये अतिदान कहे गये हैं । गायों के दुहने, पृथ्वी को जोतकर अन्न उपजाने तथा विद्या के पढ़ने-पढ़ाने से सात कुलों का उद्धार होता है । अब मैं दान देने योग्य गौ के लक्षणों और गोदान की विधि बता रहा हूँ —महाराज ! सुपुष्ट, सुन्दर, सवत्सा, पयस्विनी और न्यायपूर्वक अर्जित धन से प्राप्त गौ श्रेष्ठ ब्राह्मण को देना चाहिये । वृद्धा, रोगिणी, वन्ध्या, अङ्गहीन, मृतवत्सा, दुःशीला और दुग्धरहित तथा अन्यायपूर्वक प्राप्त गौ का कभी दान नहीं करना चाहिये । राजन् ! किसी पुण्य दिन में स्नानकर पितरों का तर्पण कर भगवान् शिव और विष्णु का घी और दुग्ध से अभिषेक करने के बाद सोने की सींगयुक्त, रौप्य खुरवाली, कांस्य के दोहन-पात्र सहित सवत्सा गौ का पुष्प आदि से भलीभाँति पूजन करना चाहिये, उसे वस्त्र तथा माला आदि से अलंकृत कर ले । गौ को पूर्व या उत्तराभिमुख खड़ा करना चाहिये । अनन्तर दक्षिणा के साथ ब्राह्मण को गौ का दान करना चाहिये और प्रार्थनापूर्वक इस प्रकार प्रदक्षिणा करनी चाहिये —

“गायो ममाग्रतः सन्तु गावो में सन्तु पृष्ठतः ।
गावो में हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् ।।”
(उत्तरपर्व १५१।२९-३०)

गाय की पूँछ पकड़कर, हाथी का सूँड़, घोडे का कान तथा दासी के सिर का स्पर्श कर और मृगचर्म की पूँछ पकड़कर दान करना चाहिये । जब ब्राह्मण गाय लेकर जाने लगे तो उसके पीछे-पीछे आठ-दस कदम तक जाना चाहिये । इस विधि से जो व्यक्ति गोदान करता है, उसे सभी प्रकार के अभीष्ट फल प्राप्त होते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति होती है । सात जन्मों में किये गये पाप का उसी क्षण नाश हो जाता है । राजन् ! यह विधि दक्षप्रजापति के लिये भगवान् विष्णु ने कही है । गोदान करनेवाला चतुर्दश इन्द्रों के समय तक स्वर्ग में निवास करता है । यह गोदान सभी पापों को दूर करनेवाला है । इससे बढ़कर और कोई प्रायश्चित्त नहीं है । गोदान ही एक ऐसा दान है, जो जन्म-जन्मान्तर तक फल देता रहता है ।’
(अध्याय १५१)

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