भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १५३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १५३
जलधेनु-दान के प्रसंग में महर्षि मुद्गल का आख्यान

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — महाराज ! अब मैं जलधेनु-दान की विधि बता रहा हूँ, जिससे देवाधिदेव भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं । उत्तम जल से पूर्ण एक कलश स्थापित करे, उसमें पञ्चरत्न, धान्य, दूर्वा, पञ्चपल्लव, कुष्ठसंज्ञक ओषधि, खश, जटामांसी, मुरा, प्रियंगु और आँवला छोड़े । फिर उसे दो श्वेत वस्त्रों, यज्ञोपवीत और पुष्पमालाओं से अलंकृत करे ।om, ॐ कुश के आसन पर कलश को रखकर उसके आस-पास जूता, छाता आदि तथा चारों दिशाओं में चाँदी के चार पात्रों में तिल, दही, घृत तथा मधु भरकर रखे । कलश में सवत्सा धेनु की कल्पना कर उसे गोमय से उपलिप्त कर दे । पूँछ के स्थान पर माला लटका दे । समीप में दोहनपात्र भी रख ले । इसके बाद सब उपचारों से भगवान् विष्णु को यथाशक्ति पूजाकर उस कलश में जलधेनु की अभिमन्त्रणा करे और इस प्रकार कहे —

“विष्णोर्वक्षसि या लक्ष्मीः स्वाहा या च विभावसोः ।
सोमशक्रार्कशक्तिर्याधेनुरूपेण साऽस्तु मे ॥”
(उत्तरपर्व १५३ । ८)
‘जो गौमाता भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में लक्ष्मी के रूप में निवास करती है और अग्निदेव की पत्नी स्वाहा तथा चन्द्रमा, सूर्य एवं इन्द्र की शक्ति-रूप में प्रतिष्ठित है वे मेरे लिये इस जलरूपी कलश में अधिष्ठित हों।’

इस मन्त्र से कलश में घेनु को प्रतिष्ठित कर वत्स-समन्वित उस जलधेनु का तथा जलशायी भगवान् अच्युत गोविन्द की भली-भाँति पूजन करे । तदनन्तर वीत-राग और शान्तचित्त होकर भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये उस कलश-स्थित जल-घेनु का ब्राह्मण को दान कर दे और इस प्रकार कहे —

“शेषपर्यङ्कशयनः श्रीमाञ्छार्ङ्गविभूषितः ।
जलशायी जगद्योनिः प्रीयतां मम केशवः ।।”
(उत्तरपर्व १५३ । ११)
‘शेषनागरूषी शय्या पर शयन करनेवाले, शार्ङ्ग धनुष से विभूषित, जलशायी, जगद्योनि ! श्रीसम्पन्न भगवान् केशव ! आप (इस दानरूपी कर्मसे) मुझपर प्रसन्न हों ।’

दान करने के बाद उस दिन गोव्रत करना चाहिये । इस विधि से जलधेनु का दान करनेवाला व्यक्ति सभी प्रकार के आनन्द को प्राप्त करता है तथा उसे सार्वकालिक अतुल शान्ति प्राप्त होती हैं एवं सभी मनोरथों की सिद्धि हो जाती है, इसमें कोई संदेह नहीं ।

राजन् ! इस विषय में एक आख्यान सुना आता है जो इस प्रकार है —

किसी समय जातिस्मर महात्मा मुद्गल ऋषि भ्रमण करते हुए यमलोक में गये । यहाँ जाकर उन्होंने देखा कि पापी जीव अनेक प्रकार के कुम्भीपाक आदि दारुण नरक में कष्ट भोग रहे हैं और यमराज के अति भयंकर दूत उन्हें अनेक प्रकार के दुःख दे रहे हैं । मुद्गल मुनि को देखकर नरक के जीवों की पीड़ा शान्त हो गयी और उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई तथा वे सुख का अनुभव करने लगे । जीवों को सुखी देखकर मुनि को बहुत आश्चर्य हुआ, उसपर उन्होंने यमराज से इसका कारण पूछा । यमराज ने कहा — ‘मुने ! आपको देखकर नरक जीवों को जो प्रसन्नता हुई है, उसका कारण यह है कि आपने तीन जन्मों में विधिवत् जलधेनु का दान किया है, उसके प्रभाव से आपका दर्शन सबको आह्लादित कर रहा है । जो आपका दर्शन करेंगे, आपका ध्यान करेंगे, आपकी चर्चा सुनेंगे अथवा आप जिन्हें देखेंगे, स्मरण करेंगे उनसे भी सुख-शान्ति और आनन्द होगा । जलधेनु का दान करने वाले को हजारों जन्मों तक कोई क्लेश नहीं होता । इससे अधिक प्रसन्नतादायक अन्य कोई कर्म नहीं है । मुने ! अब आप मेरे द्वारा अर्घ्य, पाद्य आदि स्वीकार कर अपने धाम को जाइये । जिन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण का आश्रय ग्रहण किया है, वे मेरे द्वारा नियमन करने योग्य नहीं हैं । जो भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन-व्रत करता है, नित्य उनका ध्यान करता है, उनके कृष्ण, अच्युत, अनन्त, वासुदेव आदि नामों का निरन्तर उच्चारण करता है, वह इस लोक में नहीं आता । जो ‘अच्युतः प्रीयताम्’ ऐसा कहकर दान देता है, वह मेरे लोक में नहीं आता । वे भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं और हम सभी उनके आज्ञाकारी हैं । मैं लोकों का संयमन करता हूँ और मेरा संयमन भगवान् श्रीकृष्ण करते हैं ।’
“कृष्णस्तु पूजितो यैस्तु ये कृष्णार्थसुपोषिताः ।
यैश्व नित्यं स्मृतः कृष्णो न ते मद्विषयोपगाः ॥
नमः कृष्णाच्युतानन्त वासुदेवेत्युदीरितम् ।
यैर्भावभावितैर्विप्र न ते मद्विषयोपगाः ॥
दानं ददद्भिर्यैरुक्तमच्युतः प्रीयतामिति ।
श्रद्धापुरःसरैर्विप्र न ते मद्विषयोपगाः ॥
स एव नाथः सर्वस्य तन्नियोगकरा वयम् ।
जनसंयमनश्चाहमस्मत्संयमनो व हरिः ॥”

(उत्तरपर्व १५३ । ३० -३३)ऐसे ही “हरिगुरुवशगोऽस्मि न स्वतन्त्रः, प्रभवति संयमने ममापि विष्णुः’ आदि प्राय: पंद्रह श्लोक विष्णुपुराण के यमगीता में हैं, जो प्रायः प्रतिदिन पटनीय हैं ।

यमराज का यह वचन सुनकर अग्नि, शस्त्र आदि से पीड़ित सब नरक के जीव भगवान् की स्तुति करते हुए उनके पवित्र नामों का स्मरण करने लगे । भगवान् विष्णु का स्मरण करते ही उस पुण्यकर्म के प्रभाव से नरक की अग्नि शीतल हो गयी । यमराज के सभी अस्त्र-शस्त्र प्रभावशून्य हो गये, अन्धकार दूर हो गया । सर्वत्र प्रकाश छा गया । यमदूत मूर्च्छित हो गये । शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु बहने लगी । मधुर ध्वनियाँ होने लगी । पूय और रुधिर की नदियों में उत्तम गङ्गाजल प्रवाहित होने लगा । सभी जीव दुःख से छूटकर उत्तम वस्त्र, आभूषण, माला आदि से विभूषित हो गये तथा तीनों पापों से मुक्त हो गये । यह अद्भुत दृश्य देखकर धर्मराज उन निष्पाप नारकीय जीवों का पाद्यादि से अर्चन करने लगे और इसे भगवान् विष्णु की महिमा समझकर उनको बार-बार प्रणाम करने लगे ।

यमराज इस प्रकार स्तुति कर ही रहे थे कि उनके देखते-ही-देखते नरक के सभी जीव दिव्य विमानों में बैठकर स्वर्ग में चले गये । मुद्गल ऋषि भी यह सब चरित्र देखकर अपने धाम में चले आये और भगवान् विष्णु का प्रभाव तथा जलधेनुदान के माहात्म्य को बार-बार स्मरण करते हुए कहने लगे —

अहो ! भगवान् विष्णु की माया बड़ी विचित्र और कठिन है, जिससे मोहित होकर प्राणी परमेश्वर को नहीं पहचान पाता । इसी कारण जीव कीट, जूँ, पतङ्ग, वृक्ष, लता, पशु, पक्षी आदि योनियों में भ्रमण करते हैं और अपनी मुक्ति के लिये प्रयत्न नहीं करते । यह आश्चर्य है कि माया से मोहित व्यक्ति अपना हित नहीं पहचान पाता । विष्णु भगवान् की माया यद्यपि बड़ी ही विचित्र हैं, परंतु भगवान् का आश्रय ग्रहण करनेपर व्यक्ति उस माया को दूर कर लेता है । जो व्यक्ति मानव-जन्म पाकर भी भगवान् की आराधना नहीं करता, उसका मनुष्य रूप में जन्म लेना ही व्यर्थ है । ऐसा कौन अभागा व्यक्ति होगा, जो भगवान् की आराधना नहीं करेगा, जबकि भक्तिपूर्वक थोड़ी-सी भी आराधना की जाय तो भगवान् विष्णु इस लोक तथा परलोक में उसका कल्याण कर देते हैं । भगवान् को धन, वस्त्र, आभूषण आदि कुछ भी नहीं चाहिये । उन्हें तो मात्र हृदय की भक्ति एवं शुद्ध प्रेम चाहिये । इसलिये जीव ! तुम भगवान् से दूर क्यों रहते हो ! हज़ारों जन्मों के बाद इस कर्मभूमि में दुर्लभ मानव-रूप में जन्म लेकर जो व्यक्ति श्रीविष्णु की आराधना और जलधेनु का दान नहीं करता, उस व्यक्ति का यह जन्म ही व्यर्थ है । वह व्यक्ति माया के जाल में पड़ा रहता है । मुद्गल ऋषि ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा कि मनुष्यो ! मैं पुकार-पुकारकर कहता हूँ कि आपलोगों को दोनों लोकों में कल्याण प्राप्त करने के लिये श्रीविष्णुभगवान् की आराधना और जलधेनु का दान करना चाहिये । नरक की यातना अति दुःखदायिनी है, इसे मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है । विचार करने पर यह सत्य ही मालूम पड़ता है कि उस दुःख से बचने के लिये भगवान् विष्णु में अपने मन को लगाना चाहिये, यही श्रेयस्कर उपाय है ।’
(अध्याय १५३)

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