भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १६ से १७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १६ से १७
मधूकतृतीया एवं मेघपाली तृतीया-व्रत

युधिष्ठिरने पूछा — भगवन् ! मधूक-वृक्ष का आश्रय ग्रहण करनेवाली भगवान् शंकर की भार्या भगवती गौरी की लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों ने किस कारण से अर्चना की, इसे आप बताये ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले — प्राचीन काल में समुद्रमन्थन से मधूक वृक्ष विनिर्गत हुआ । स्त्रियों ने अग्रण्ड सौभाग्य प्राप्त करानेवाले तथा सभी आधि-व्याधियों को दूर करनेवाले उस वृक्ष को भूलोकवासियों ने पृथ्वी पर स्थापित किया । om, ॐजया-विजया आदि सखियों सहित भगवती गौरी को उस प्रफुल्लित सुन्दर वृक्ष का आश्रय ग्रहण किये देखकर देवताओं ने अपनी अभीष्ट इच्छाओं की पूर्ति हेतु उसकी अनेक उपचारों से पूजा की । स्वयं लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री, गङ्गा, रोहिणी, रम्भा तथा अरुन्धती आदि ने भी विनयपूर्वक पूजा की । भगवती गौरी ने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत फल प्रदान किया । फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को इनकी उपासना हुई थी । इसलिये फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को उपवासकर मधुवन में जाकर मधूक वृक्ष के नीचे ब्रह्मचर्य में स्थित, जटामुकुट से सुशोभित, तपस्यारत तथा गोधा के रथ पर आरूढ़, रुद्र-ध्यानपरायणा भगवती पार्वती की प्रतिमा को ध्यान करते हुए गन्ध, पुष्प, दीप, लाल चन्दन, केशर, मधुर द्रव्य, स्वर्ण, माणिक्य आदि से पूजाकर देवी से इस प्रकार अखण्ड सौभाग्य के लिये प्रार्थना करे —

“ॐ भूषिता देवभूषा च भूषिका ललिता उमा ।
तपोवनरता गौरी सौभाग्यं मे प्रयच्छतु ॥
दौर्भाग्यं मे शमयतु सुप्रसन्नमनाः सदा ।
अवैधव्यं कुले जन्म ददात्वपरजन्मनि ॥”
(उत्तरपर्व १६ । ३-४)

‘तपोवनरता हे गौरी देवि ! आपका नाम ललिता तथा उमा है । आप देवताओं की आभूषणस्वरूपा एवं सभी को आभूषित करनेवाली हैं और स्वयं आभूषित हैं । आप मुझे सौभाग्य प्रदान करें । आप मेरे दौर्भाग्य का शमन करें । दूसरे जन्म में भी मेरा सौभाग्य अखण्डत रहे । आप सर्वदा मुझपर प्रसन्न रहें ।’

अनन्तर फूल, जीरक, लवण, गुड़, घी, पुष्पमालाओं, कुंकुम, गन्ध, अगरु, चन्दन एवं सिन्दूर आदि तथा वस्त्रों से और अनेक देशोत्पन्न अंजनों से, पुआ, तिल और तण्डुल, घृतपूरित मोदक इत्यादि नैवेद्य से मधूक-वृक्ष की पूजा करे । उसकी प्रदक्षिणा कर ब्राह्मणों को दक्षिणा दे । जो कन्या इस उत्तम तृतीयाव्रत को करती है वह तीनों लोकों में दुष्प्राप्य भगवान् विष्णु के समान पति प्राप्त करती है । राजन् ! मेरे द्वारा कथित यह व्रत चिरकाल तक प्रसिद्ध रहेगा । इस व्रत को रुक्मिणी के सम्मुख प्रथम महर्षि कश्यप ने कहा था । जो स्त्री इस व्रत का आचरण करेगी, वह नीरोग,सुन्दर दृष्टिसम्पन्न तथा अङ्ग-प्रत्यङ्गों से शोभायुक्त होकर सौ वर्षों तक जीवित रहेगी । अनन्तर किंकिणी के शब्दों से समन्वित हंसयान से रुद्रलोक को प्राप्त करेगी । वहीं अनेक वर्षों तक अपने पति के साथ दिव्य भोग को प्राप्त कर आठों सिद्धियों से समन्वित होगी ।

युधिष्ठिर ने पूछा —
भगवन् ! मेघपाली-व्रत कब और कैसे अनुष्ठित होता है, इसका क्या फल है तथा मेघपाली लता कैसी होती है ? इसे बतलाने की कृपा करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले —
आश्विन मास के कृष्णापक्ष की तृतीया तिथि को भक्तिपूर्वक स्त्रियों अथवा पुरुषों को सद्धर्म की प्राप्ति के लिये मेघपाली को सप्तधान्य (यव, गोधूम, धान, तिल, कंगु, श्यामाक (साँवा) तथा चना) और अंकुरित गोधूम के साथ अथवा तिल-तण्डुल के पिण्ड द्वारा अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । मेघपाली ताम्बूल के सम्मान पत्तों वाली, मंजरीयुक्त एक लाल लता है, वह वाटिकाओं में, ग्राममार्ग में होती है तथा पर्वतों पर प्रायः होती है । व्यापार से जीवन बितानेवाले वैश्यगण धान्य, तेल, गुड़, कुंकुम, स्वर्ण, तथा पद (जूता, छाता, कपड़ा, अंगूठी, कमण्डल, आसन, बर्तन और भोज्य वस्तु आदि से इसकी पूजा करते हैं । मेघपाली के अर्घ्यदान से जाने-अनजाने जो भी पाप होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं । श्रेष्ट स्त्रियों को शुभ देश या स्थान में उत्पन्न मेघपाली की फल, गन्ध, पुष्प, अक्षत, नारिकेल, खजूर, अनार, कनेर, धूप, दीप, दही और नये अंकुरवाले धान्य-समूह से पूजा करनी चाहिये तथा लाल वस्त्रों से उसे आच्छादित कर और अबीर से विभूषित कर अर्घ्य देना चाहिये । वह अर्घ्य विद्वान् ब्राह्मण को समर्पण कर देना चाहिये । इस प्रकार मेघपाली की पूजा करनेवाली नारी या पुरुष परम ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं तथा सुख-सौभाग्य से समन्वित हो सौ वर्षों तक मर्त्यलोक में जीवित रहते हैं । अन्त में विमान पर आरूढ़ हो विष्णुलोक को प्राप्त करते हैं और अपने सात कुल को निःसंदेह नरक से स्वर्ग पहुँचा देते हैं । जो नरक के भय से फलादि से समन्वित अ मेघपाली को प्रदान करता है, उसके सभी पाप वैसे ही नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्य के द्वारा अन्धकार नष्ट हो जाता है ।
(अध्याय १६-१७)

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