January 13, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १५६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १५६ सुवर्ण-धेनु-दान-विधि भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — महाराज ! अब मैं सुवर्ण धेनु दान की विधि बता रहा हूँ, जिससे सम्पूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है । पचास पल (प्रायः तीन किलो), पचीस पल अथवा जितनी भी सामर्थ्य हो उस मान में शुद्ध सुवर्ण से रत्नजटित सुन्दर कपिला सुवर्ण धेनु की रचना करनी चाहिये । उसके चतुर्थांश से उसका वत्स बनाये । गले में चाँदी की घंटी लगाये, रेशमी वस्त्र ओढ़ाये, इसी प्रकार हीरे के दाँत, वैदूर्य का गलकम्बल, ताँब के सींग, मोती की आँखें और मुँगे की जीभ बनाये । कृष्णमृगचर्म के ऊपर एक प्रस्थ गुड़ रखकर उसके ऊपर सुवर्णधेनु को स्थापित करे । अनेक प्रकार के फलयुक्त आठ कलश, अठारह प्रकार के धान्य, छाता, जूता, आसन, भोजन-सामग्री, ताँबे का दोहनपात्र, दीपक, लवण, शर्करा आदि स्थापित करे । तदनन्तर स्नान कर सुवर्णधेनु की प्रदक्षिणा कर उसकी भलीभाँति पूजा करे । पूजन के अनन्तर प्रार्थनापूर्वक उस सुवर्णधेन को दक्षिणा तथा सभी उपस्करों के साथ ब्राह्मण को दान करे । राजन् ! गौ के जिस अङ्ग में जो देवता, मनु एवं तीर्थ निवास करते हैं वे इस प्रकार हैं — नेत्रों में सूर्य और चन्द्रमा, जिह्वा में सरस्वती, दाँतों में मरुद्रण, कानों में अश्विनीकुमार, सींग के अग्रभाग में रुद्र और ब्रह्मा, ककुद् में गन्धर्व और अप्सराएँ, कुक्षि में चारों समुद्र, योनि में गङ्गा, रोमकूपों में ऋषिगण, अपानदेश में पृथ्वी, आँतों में नाग, अस्थियों में पर्वत, पैरों में चतुर्विध पुरुषार्थ, हुंकार में चारों वेद, कण्ठ में रुद्र, पृष्ठभाग में मेरु और समस्त शरीर में भगवान् विष्णु निवास करते हैं । इस प्रकार यह सुवर्णधेनु सर्वदेवमयी और परम पवित्र है । नेत्रयोः सूर्यशशिनौ जिह्वायां तु सरस्वती । दन्तेषु मरुतो देवाः कर्णयोश्च तथाश्विनौ ॥ शृङ्गाग्रगौ सदा चास्य देवौ रुद्रपितामहौ । गन्धर्वाप्सरसश्चैव ककुद्देशं प्रतिष्ठिताः ॥ कुक्षौ समुदाश्चत्वारो योनौ त्रिपथगामिनी ॥ ऋषयो रोमकूपेषु अपाने वसुधा स्थिता । अन्त्रेषु नागा विज्ञेयाः पर्वताश्चास्थिताः ॥ धर्मकामार्थमोक्षास्तु पादेषु परिसंस्थिताः । हुंकारे च चतुर्वेदाः कण्ठे रुद्राः प्रतिष्ठिताः ॥ पृष्ठभागे स्थितो मेरुर्विष्णुः सर्वशरीरगः । एवं सर्वमयी देवी पावनी विश्वरूपिणी ॥ (उत्तरपर्व १५६ । १६-२०) जो व्यक्ति सुवर्णधेनु का दान करता है, वह मानो सभी प्रकार के दान कर लेता है । इस कर्मभूमि में यह दान बहुत दुर्लभ है । इसलिये प्रयत्नपूर्वक काञ्चनधेनु का दान करना चाहिये । इससे संसार से उद्धार हो जाता है और कीर्ति तथा शान्ति की प्राप्ति होती है तथा उसके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं और अन्त में उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है । (अध्याय १५६) Related