January 13, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १५७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १५७ रत्नधेनुदान-विधि भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — राजन् ! अब मैं गोलोक प्राप्त कराने वाले अत्युत्तम रत्न-धेनु-दान की विधि बता रहा हूँ । किसी पुण्य दिन में भूमि को पवित्र गोबर से लीपकर उसमें धेनु की कल्पना करे । पृथ्वी पर कृष्णमृगचर्म बिछाकर उसपर एक द्रोण लवण रखकर उसके ऊपर विधिपूर्वक संकल्पसहित रत्नमयी धेनु स्थापित करे । बुद्धिमान् पुरुष उसके मुख में इक्यासी पद्मरागमणि तथा चरणों में पुष्पराग स्थापित करे । उस गौ के ललाट पर सोने का तिलक, उसकी दोनों आँखों में सौ मोती, दोनों भौंहों पर सौ मुँगा और दोनों कानों की जगह दो सीपें लगाये । उसके सींग सोने के होने चाहिये । सिर की जगह सौ हीरों को स्थापित करना चाहिये । कण्ठ और नेत्र-पलकों में सौ गोमेदक, पृष्ठभाग में नौ इन्द्रनील (नीलम), दोनों पार्श्वस्थानों में सौ वैदूर्य (बिल्लौर), उदर पर स्फटिक तथा कटिदेश पर सौ सौगन्धिक (माणिक-लाल) मणि रखना चाहिये । खुरों को स्वर्णमय, पूँछ को मुक्ता (मोतियों) की लड़ियों से युक्त कर तथा दोनों नाकों की सूर्यकान्त तथा चन्द्रकान्त मणियों से रचना कर कर्पूर और चन्दन से चर्चित करे । रोमों को केसर और नाभि को चाँदी से बनवाये । गुदा में सौ लाल मणियों को लगाना चाहिये। अन्य रत्नों को संधिभागोंपर लगाना चाहिये । जीभ को शक्कर से, गोबर को गुड़ से और गोमूत्र को घी से बनाना चाहिये । दही-दूध प्रत्यक्ष ही रखे । पूँछ के अग्रभाग पर चमर तथा स्तनों के पास ताँबे की दोहनी रखनी चाहिये । इसी प्रकार गौ के चतुर्थांश से बड़ा बनाना चाहिये । इसके बाद धेनु को आमन्त्रित करे । उस समय गुडघेनु की तरह आवाहन कर यह कहना चाहिये — देवि ! चूंकि रुद्र, इन्द्र, चन्द्रमा, ब्रह्मा, विष्ण-ये सभी तुम्हें देवताओं का निवासस्थान मानते हैं तथा समस्त त्रिभुवन तुम्हारे ही शरीर में व्याप्त है, अतः तुम भवसागर से पीड़ित मेरा शीघ्र ही उद्धार करो ।’ इस प्रकार आमन्त्रित करने के बाद गौ की पूजा तथा पक्रिमा कर भक्तिपूर्वक साष्टाङ्ग प्रणाम करके उस रत्नधेनु का दान ब्राह्मण को दक्षिणा के साथ करे, अन्त में क्षमा-प्रार्थना करे । इस प्रकार सम्पूर्ण विधियों को जाननेवाला जो पुरुष इस रत्नधेनु का दान करता है, वह शिवलोक (कैलास या सुमेरुस्थित दिव्य शिव धाम) को प्राप्त करता है तथा पुनः बहुत समय के बाद इस पृथ्वी पर चक्रवर्ती राजा होता है और उसकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । (अध्याय १५७) Related