भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १६५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १६५
सुवर्णरचित भूदानकी विधि

महाराज युधिष्ठिरने पूछा — भगवन् ! भूमि का दान तो क्षत्रिय ही कर सकते हैं, क्योंकि क्षत्रिय ही भूमि का उपार्जन करने में, उसका दान करने में और उसके पालन करने में समर्थ होते हैं और लोगों से न तो भूमि का दान हो सकता है, न ही उसका पालन ही हो सकता है । अतः आप कोई ऐसा उपाय बताइये जो भूमिदान के समकक्ष हो ।
om, ॐ
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! यदि भूमि का दान सम्भव न हो तो सुवर्ण के द्वारा भूमण्डल की आकृति बनाकर और नदी-पर्वत को रेखाङ्कित कर उसे ही दान कर देना चाहिये । इससे सम्पूर्ण पृथ्वी के दान का फल प्राप्त हो जाता है । अब मैं इसकी विधि बता रहा हूँ —

सूर्य-चन्द्र-ग्रहण, जन्मनक्षत्र, विषुवयोग, युगादि तिथियों तथा अयनसंक्रान्ति आदि पुण्य समयों में पापक्षय और यश की प्राप्ति के लिये इस दान करना चाहिये । अन्य भी प्रशस्त समयों में जब धन एकत्र हो जाय, इस दान को किया जा सकता है । एक सौ पल से लेकर कम-के-कम पाँच पल तक अर्थात् अपनी सामर्थ्य के अनुसार सुवर्ण की जम्बूद्वीप के आकार में पृथ्वी की प्रतिमा बनानी चाहिये । जिसके मध्य मेरु पर्वत तथा यथास्थान अन्य पर्वत अङ्कित हों । वह पृथ्वी सस्यसम्पन्न तथा लोकपालों से रक्षित, ब्रह्मा, शंकर आदि देवताओं से सुशोभित तथा सभी रत्न आदि आभूषणों से अलंकृत हो । बाईस हाथ लंबा-चौड़ा तोरणयुक्त चार द्वारोंवाला एक सुन्दर मण्डप बनाकर उसमें चार हाथ की वेदी बनानी चाहिये । ईशानकोण में वेदी पर देवताओं का स्थापन करे और अग्निकोण में कुण्ड बनाये । पताका-तोरण आदि से मण्डप को सजा ले । अनन्तर पञ्चलोकपाल और नवग्रहों का षोडशोपचार पूजन करने के बाद ब्राह्मणों से हवन कराना चाहिये । ब्राह्मणवर्ग वेदध्वनि करते हुए तथा मङ्गलघोषपूर्वक भेरी, शङ्ख इत्यादि वाद्यों की ध्वनि के साथ उस सुवर्णमयी पृथ्वी की प्रतिमा को मण्डप में लाकर तिल बिछी हुई वेदी पर स्थापित करे । तत्पश्चात् उसके चारों ओर अठारह प्रकार के अन्नों, लवणादि रसों और जल से भरे आठ माङ्गलिक कलश को स्थापित करना चाहिये । उसे रेशमी चँदोवा, विविध प्रकार के फल, मनोहर रेशमी वस्त्र और चन्दन द्वारा अलंकृत करना चाहिये । इस प्रकार अधिवासनपूर्वक पृथ्वी का सारा कार्य सम्पन्न कर स्वयं श्वेत वस्त्र और पुष्पमाला धारणकर, श्वेत वर्ण के आभूषणों से विभूषित हो अञ्जलि में पुष्प लेकर प्रदक्षिणा करे तथा पुण्यकाल आनेपर इन मन्त्रों का उच्चारण करे —

“नमस्ते सर्वदेवानां त्वमेव भवनं यतः ।
धात्री त्वमसि भूतानामतः पाहि वसुन्धरे ॥
वसु धारयसे यस्मात् सर्वसौख्यप्रदायकम् ।
वसुन्धरा ततो जाता तस्मात् पाहि भयादलम् ॥
चतुर्मुखोऽपि नो गच्छेद्यस्मादन्तं तवाचले ।
अनन्तायै नमस्तुभ्यं पाहि संसारकर्दमात् ।।
त्वमेव लक्ष्मीर्गोविन्दे शिवे गौरीति संस्थिता ।
गायत्री ब्रह्मणः पार्श्वे ज्योत्स्ना चन्द्रे रवौ प्रभा ।।
बुद्धिर्बृहस्पतौ ख्याता मेधा मुनिषु संस्थिता ।
विश्व व्याप्य स्थिता यस्मात् ततो विश्वम्भरा मता ।।
धृतिः क्षितिः क्षमा क्षोणी पृथिवी वसुधा मही ।
एताभिमूर्तिभिः पाहि देवि संसारसागरात् ।।”
(उत्तरपर्व १६५ । २१–२६)
“वसुन्धरे ! चूँकि तुम्हीं सभी देवताओं तथा सम्पूर्ण जीवनकाय की भवनभूता तथा धात्री हो, अतः मेरी रक्षा करो । तुम्हें नमस्कार है । चूंकि तुम सभी प्रकार के सुख प्रदाता वसुओं को धारण करती हो, इसीसे तुम्हारा नाम वसुन्धरा है, तुम संसार-भय से मेरी रक्षा करो । अचले ! चूँकि ब्रह्मा भी तुम्हारे अन्त को नहीं प्राप्त कर सकते, इसलिये तुम अनन्ता हो, तुम्हें प्रणाम है । तुम इस संसाररूप कीचड़ से मेरी रक्षा करो । तुम्हीं विष्णु में लक्ष्मी, शिव में गौरी, ब्रह्मा के समीप गायत्री, चन्द्रमा में ज्योत्स्ना, रवि में प्रभा, बृहस्पति में बुद्धि और मुनियों में मेधा-रूप में स्थित हो । चूंकि तुम समस्त विश्व में व्याप्त हो, इसलिये विश्वम्भरा कही जाती हो । धृति, क्षिति, क्षमा, क्षोणी, पृथ्वी, वसुधा तथा मही — ये तुम्हारी मूर्तियाँ हैं । देवि ! तुम अपनी इन मूर्तियों द्वारा इस संसारसागर से मेरी रक्षा करो ।’

इस प्रकार उच्चारणकर पृथ्वी की मूर्ति ब्राह्मणों को निवेदित कर दें । उस पृथ्वी का आधा अथवा चौथाई भाग गुरु को समर्पित करे । जो मनुष्य पुण्यकाल आनेपर सुवर्णनिर्मित कल्याणमयी पृथ्वी की सुवर्णमूर्ति का इस विधि के साथ दान करता है, वह वैष्णव पद को प्राप्त होता है तथा क्षुद्र घंटिकाओं (मुँघरू) से सुशोभित एवं सूर्य के समान तेजस्वी विमान द्वारा वैकुण्ठ में जाकर तीन कल्पपर्यन्त निवास करता है और पुण्य क्षीण होनेपर इस संसार में आकर वह धार्मिक चक्रवर्ती राजा होता है ।
(अध्याय १६५)

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