भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १६६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १६६
हलपंक्तिदान-विधि

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — महाराज ! अब मैं सर्वपापनाशक तथा सर्वसौख्यप्रद हलपंक्ति-दान की विधि बतला रहा हूँ, जिससे सभी प्रकार के दानों का फल प्राप्त हो जाता है । एक हल के लिये चार बैलों की आवश्यकता होती है और दस हल की एक पंक्ति होती है । साखू की लकड़ी से दस हल बनवाकर उन्हें सुवर्ण-पट्ट और रत्नों से मढ़कर अलंकृत कर ले ।om, ॐ वस्त्र, स्वर्ण, पुष्प तथा चन्दन आदि से मण्डित तरुण, सुन्दर, हष्ट-पुष्ट, उत्तम वृष उन हलों में जोतने चाहिये । बैलो के कंधों पर जुआ भी रखे, साथ में कील लगा हुआ अंकुश आदि उपकरण भी रहने चाहिये । पर्वकाल में हलपंक्ति के साथ सस्यसम्पन्न बड़ा ग्राम, छोटा ग्राम अथवा सौ निवर्तन (सौ बीघा) अथवा पचास निवर्तन भूमि देनी चाहिये । इसका दान विशेषरूप से कार्तिकी, वैशाखी, अयनसंक्रान्ति, जन्मनक्षत्र, ग्रहण, विषुवयोग में करे । वेदवेत्ता, सदाचारी, सम्पूर्णाङ्ग, अलंकृत दस ब्राह्मणों को निमंत्रित करे । दस हाथ प्रमाणवाला एक मण्डप बनाकर उसमें पूर्व दिशा में एक हाथ प्रमाणवाले दो अथवा एक कुण्ड बनवाये । निमन्त्रित ब्राहाणों से पलाश की समिधा, घी, काला तिल और खीर से व्याहृतियों, पर्जन्यसूक्त, आदित्यसूक्त और रुद्रमन्त्रों से हवन कराये । तदनन्तर यजमान स्नान कर शुक्ल वस्त्र आदि से अलंकृत हो सप्तधान्य के ऊपर हलपंक्ति को स्थापित करे और उसमें बैलों को जोते । उस समय विविध प्रकारके वाद्य-यन्त्र को बजाना चाहिये और ब्राह्मणवर्ग वेद-पाठ करें । यजमान दान के समय पुष्पाञ्जलि ग्रहण कर इन मन्त्र को पढ़ें —

यस्माद् देवगणाः सर्वे हले तिष्ठन्ति सर्वदा ।
वृषस्कन्धे संनिहितास्तस्माद्भक्तिः शिवेऽस्तु मे ॥
यस्माच्च भूमिदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।
दानान्यन्यानि मे भक्तिर्धमें चास्तु दृढा सदा ॥
(उत्तरपर्व १६६ । १६-१७)

चूंकि बैल के कंधे पर स्थित हल में सभी देवगण सदा स्थित रहते हैं, अतः भगवान् शंकर में मेरी भक्ति हो । अन्य समस्त दान भूमिदान की सोलहवीं कला के भी तुल्य नहीं हैं, अतः धर्म में मेरी सुदृढ़ भक्ति हो ।’ इसके बाद भूमि और हल उन ब्राह्मणों को दे दे । इस प्रकार जो व्यक्ति हलपंक्ति का दान करता है, वह अपने इक्कीस कुलों सहित स्वर्ग जाता है । सात जन्म तक उस व्यक्ति को निर्धनता, दुर्भाग्य, व्याधि आदि दुःख नहीं भोगने पड़ते और वह पृथ्वी का अधिपति होता है । युधिष्ठिर ! दान करते समय जो भक्तिपूर्वक इस दानकर्म का दर्शन करता है, वह भी जन्मभर किये गये पापों से मुक्त हो जाता है । इस दान को महाराज़ दिलीप, ययाति, शिबि, निमि, भरत आदि सभी श्रेष्ठ राजर्षियों ने किया, जिसके प्रभाव से वे राजा आज भी स्वर्गका सुख भोग रहे हैं । इसलिये भक्तिपूर्वक सभी स्त्री-पुरुष को यह दान करना चाहिये । यदि दस हलपंक्ति का दान करने में समर्थ न हो तो पाँच, चार अथवा एक ही हल का दान करे । हल-पंक्ति का दान करनेवाले हल से जितनी मिट्टी उठती है और बैलों के शरीर में जितने भी रोम होते हैं, उतने ही हजार वर्ष तक शिवलोक में निवासकर अन्त में पृथ्वीपर श्रेष्ठ राजा होते हैं ।
(अध्याय १६६)

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