Print Friendly, PDF & Email

भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १६९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १६९
अन्नदान की महिमा के प्रसंग में राजा श्वेत और एक वैश्य की कथा

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — महाराज ! किसी समय मुनियों ने अन्नदान का जो माहात्म्य कहा था, उसे मैं कह रहा हूँ, आप एकाग्रचित्त होकर सुनें । अनघ ! आप अन्नदान करें, जिससे तत्काल संतुष्टि प्राप्त होती है । वन में श्रीरामचन्द्रजी ने दुःखी होकर लक्ष्मण से कहा था — ‘लक्ष्मण ! सम्पूर्ण पृथ्वी अन्न से परिपूर्ण है, फिर भी हमलोगों को अन्न नहीं मिल रहा है, इससे यही जान पड़ता है कि हमलोगों ने पूर्वजन्मों में ब्राह्मणों को कभी अन्न का भोजन नहीं कराया ।’ om, ॐमनुष्य जिस कर्मरूपी बीज को बोता है, जैसा कर्म करता है, वह उसी का फल पाता है । संसार में यह ठीक ही कहा जाता है कि बिना दिये कुछ नहीं मिलता । भोजन-योग्य जिस अन्न का दान किया जाता है, वह अन्न दान परम श्रेयस्कर है । भारत ! भोज्य पदार्थों में बहुत से पदार्थ हैं, किंतु अन्न का दान सब दानों से श्रेष्ठ दान है । सत्य से बढ़कर कोई पुण्य नहीं, संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं और अन्नदान से बढ़कर कोई दान नहीं है । स्नान, अनुलेपन और वस्त्रालंकारों से मनुष्यों को वैसी तृप्ति नहीं होती, जैसी भोजन से होती है । इस विषय में एक इतिहास है —

राजन् ! बहुत पहले एक श्वेत नाम के चक्रवर्ती राजा हुए हैं, उन्होंने अनेक यज्ञ किये और अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की । अनेक प्रकार का दान दिये और धर्मपूर्वक राज्य पर शासन किया । राजा ने अनेक प्रकार के उत्तम भोग भोगकर अन्त में राज्य का परिल्याग कर वन में जाकर तपस्या की । अन्त में वे दिव्य विमान में आरूढ़ होकर स्वर्ग गये । वहाँ विद्याधर, किंनर आदि के साथ विहार करने लगे । अप्सराएँ उनकी सेवामें रहती थीं । गन्धर्व उन्हें गीत सुनाकर रिझाते, इन्द्र भी उनका बड़ा सम्मान करते थे । राजा को दिव्य वस्त्र, आभूषण, पुष्पमाला आदि पहनने को तो मिलता था, परंतु भोजन के समय विमान में बैठकर भूलोक में आकर अपने पूर्व-शरीर के मांस को प्रतिदिन खाना पड़ता था । प्रतिदिन मांस को भोजन करने के बाद भी पूर्वजन्म के कर्म के कारण उस पूर्वशरीर का मांस घटता नहीं था । इस प्रकार प्रतिदिन मांस-भक्षण से व्याकुल होकर राजा ने ब्रह्माजी से कहा — ‘ब्रह्मन् ! आपके अनुग्रह से मुझे स्वर्ग का सुख प्राप्त हुआ है, सभी देवता मेरा आदर करते हैं । सभी सामग्री उपभोग के लिये प्राप्त होती रहती है, परंतु सभी भोगों के रहते हुए भी यह पापिनी क्षुधा कभी शान्त नहीं होती, मझे सदा सताती रहती है । इसी कारण मुझे अपने पूर्व-शरीर के मांस को प्रतिदिन खाने के लिये भूलोक में जाना पड़ता है और इसमें मुझे बड़ी घृणा होती है । मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया हैं, जिससे मुझे उत्तम भोजन नहीं मिलता । आप कृपाकर ऐसा कोई उपाय बतायें जिससे मेरा यह दुःख दूर हो जाय ।

ब्रह्माजी बोले — राजन् ! आपने अनेक प्रकार के दान दिये हैं, बहुत-से यज्ञ किये हैं और गुरुजनों को भी संतुष्ट किया हैं, परंतु ब्राह्मणों को स्वादिष्ट उत्तम व्यञ्जनों का भोजन नहीं कराया । अन्नदान न करने से ही आज आपकी यह दशा हो रही है । अन्न से बढ़कर कोई संजीवनी नहीं । अन्न को ही अमृत जानना चाहिये । इसलिये अब आप पृथ्वी पर जाकर वेदशास्त्र जाननेवाले कुलीन ब्राह्मणों को भोजन करायें । उससे आपका यह दुःख दूर हो जायेगा ।

ब्रह्माजी का वचन सुनकर राजा श्वेत ने पृथ्वी पर आकर महर्षि अगस्त्यजी को परमभक्ति से भोजन कराया और अपने गले की दिव्य एकावली माला महाराज श्वेत की कथा कई स्थानों पर है, किंतु वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड के ७७ तथा ७८ सर्ग में बड़ी रम्य शैली और मधुर पदावलियों में वर्णित हुई है । वहाँ एकावली माला की जगह केयूर आदि दिव्य आभूषण की बात निर्दिष्ट है। को दक्षिणा के रूप में समर्पित किया । अगस्त्यजी को भोजन कराते ही राजा श्वेत संतुष्ट हो गये और सभी देवता वहाँ आकर अतीव आदरपूर्वक राजा को विमान में बैठाकर स्वर्गलोक चले गये । श्रीरामचन्द्रजी ने जब रावण का वध कर दिया, तब वह एकावली अगस्त्यजी ने श्रीरामचन्द्रजी को दे दी । यह अन्नदान का ही माहात्म्य है ।

मेरा वचन सत्य है कि प्राणियों के लिये अन्न से बढ़कर कोई उत्तम पदार्थ नहीं है । अन्न जीवों का प्राण है । अन्न ही तेज, बल और सुख है । इसलिये अन्नदाता प्राणदाता है । भूखा व्यक्ति जिस दूसरे व्यक्ति के घर आशा करके जाता है और वहाँ से संतुष्ट होकर आता है तो भोजन देनेवाला व्यक्ति धन्य हो जाता है, उसके समान पुण्यकर्मा और कौन होगा ? दीक्षा-प्राप्त स्नातक, कपिला गौ, याज्ञिक, राजा, भिक्षु तथा महोदधि — ये सब दर्शनमात्र से पवित्र कर देते हैं । इसलिये घर पर आये भूखे व्यक्ति को जो भोजन न दे सके उसका गृहस्थाश्रम व्यर्थ है । अन्न के बिना कोई अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता । मनुष्यों का दुष्कृत अर्थात् किया हुआ दूषित कर्म अन्न में प्रविष्ट हो जाता है, इसलिये जो ऐसे व्यक्ति का अन्न खाता है, वह अन्न देनेवाले दुष्कृत का ही भक्षण करता है । इसके विपरीत अमृतमय पवित्र परान्न का भोजन करनेवाले व्यक्ति को एक महीने का किया हुआ पुण्य अन्नदाता को प्राप्त हो जाता है । जिस अन्न के दान का इतना महत्त्व है, उसका दान क्यों नहीं करते ? (अर्थात् थोड़ा-बहुत अवश्य करो, करनी चाहिये ।) जो व्यक्ति ब्राह्मण-अतिथि आदि को भोजन आदि कराने तथा भिक्षा देने के पूर्व ही स्वयं भोजन कर लेता है, वह केवल पाप ही भक्षण करता है । जिस व्यक्ति ने दस हजार या एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराया है, उसने मानो ब्रह्मलोक में अपना स्थान बना लिया ।

प्राचीन काल में वाराणसी देवता और ब्राह्मणों का पूजक धनेश्वर नाम का एक वैश्य रहता था । उसकी दुकान में एक स्थान पर एक सर्पिणी ने अंडा दिया और वह उस अंडे को छोड़कर कहीं अन्यत्र चली गयी । वैश्य ने अंडे को देखा और उसपर दयाकर उसकी रक्षा करने लगा । कुछ समय बाद अंडे को फोड़कर कृष्ण सर्प का बच्चा बाहर निकला । उस सर्प के बच्चे को वैश्य प्रतिदिन दूध पिलाता था । वह सर्प भी वैश्य के पैरों पर लोटता, उसके अङ्ग को चाटता और पूरे घर में निर्भय हो घूमता रहता । वैश्य भी भलीभाँति सर्प की रक्षा करता । थोड़े ही समय में वह भयंकर सर्प हो गया । किसी समय की बात है, वह धनेश्वर गङ्गा-स्नान करने के लिये गया था और उसका पुत्र दुकान पर बैठकर सामान बेच रहा था । उसी समय वह सर्प उस लड़के के पैरों के बीच से निकला, जिससे वह लड़का डर गया और उसने सर्प को डंडे से मारा । चोट लगते ही सर्प उछलकर वैश्यपुत्र के सिरपर बैठ गया और क्रोधित होकर कहने लगा — ‘मूर्ख ! मैं तुम्हारे पिता की शरण में हूँ और तुम्हारे पिता ने ही मेरा पालन-पोषण किया है, इसलिये मैं तुम्हारा भी भला ही चाहता था, परंतु तुमने मुझे अकारण ही प्रताड़ित किया है, इसलिये अब मैं तुम्हें जीवित नहीं छोड़ूँगा।’ सर्प के इस प्रकार कहने के साथ ही वैश्य घर में दुःखी हो सब रोने लगे ।

उसी समय अच्युत, गोविन्द, अनन्त आदि भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण करता हुआ स्नान कर वह धनेश्वर भी घर आ गया । पुत्र की वैसी स्थिति देखकर उसने सर्प से कहा —‘पन्नग ! तुम मेरे पुत्र के मस्तक पर फण फैलाये क्यों बैठे हो ? यह ठीक ही कहा गया है कि मूर्ख मित्र और हीन जाति में उत्पन्न प्राणी के साथ सम्बन्ध करना अपने हाथ से जलता हुआ अंगारा उठाना है ।’ वणिक् की बात सुनकर साँप ने कहा — ‘धनेश्वर ! तुम्हारे पुत्र ने मुझे निरपराध ही मारा हैं, इसलिये तुम्हारे सामने ही मैं इसका प्राण ले रहा हूँ, जिससे अन्य कोई भी व्यक्ति ऐसा काम न करे ।’ यह सुनकर धनेश्वर ने कहा — ‘सर्प ! जो उपकार, भक्ति तथा स्नेह आदि को भूलकर अपने रास्ते से भटक जाय अर्थात् अपने कर्तव्यमार्ग को छोड़ दे, उसे कौन रोक सकता है, परंतु क्षणमात्र तुम इस बालक को छोड़ दो, दंश न करो, जिससे मैं ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपना और्ध्वदैहिक कर्म अपने हाथ से कर सकें, क्योंकि बाद में मेरे पास कोई पुत्र नहीं रहेगा । सर्प ने इस बात को स्वीकार कर लिया । तदनन्तर वैश्य ने वेदवेत्ता और जितेन्द्रिय एक हजार ब्राह्मणों तथा संन्यासियों आदि को घी, पायससहित मधुर स्वादिष्ट भोजन कराया । भोजन से संतुष्ट हो ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर कहा —

“वणिक्पुत्र विरं जीव नश्यन्तु तव शत्रवः ।
अभीष्टफलसंसिद्धिरस्तु ते ब्राह्मणाज्ञया ।।”
(उतरपर्व १६९ । ६३)
‘वणिक् पुत्र ! ब्राह्मणों की आज्ञा से तुम चिरंजीवी होओ, तुम्हारे सभी शत्रु नष्ट हो जायें और तुम्हारा मनोरथ सिद्ध हो जाय ।’

ऐसा कहकर ब्राह्मणों ने अक्षत और पुष्प वैश्यपुत्र के मस्तक पर छोड़े । ब्राह्मणों के वाग्वज्र से ताड़ित होकर वह सर्प मस्तक से गिरा और मर गया । सर्प को मरा हुआ देखकर धनेश्वर को बड़ा दुःख हुआ और वह सोचने लगा कि मैंने इस सर्प को पुत्र की भाँति पाला था और आज यह मेरे ही दोष से मर गया । यह बड़ा ही अनुचित हुआ । उपकार करनेवाले में जो साधुता रखता है, उसकी साधुता में कौन-सी विशेषता रहती है ? अर्थात् वह प्रशंसा के योग्य नहीं है, किंतु जो अपकारियों में साधुता रखता है, उसकी साधुता ही सराहनीय है ।

इस प्रकार अनेक प्रकार से पश्चात्ताप करते हुए दुःखी होकर वैश्य ने न तो उस दिन भोजन किया, न ही रात्रि में सो सका । प्रातःकाल होते ही गङ्गा में स्नान कर देवता-पितरों का पूजन-तर्पण आदिकर घर आया और पुनः एक हजार ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के उत्तम व्यञ्जन का भोजन कराकर संतुष्ट किया । इस पर ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर कहा — ‘धनेश्वर ! हमलोग तुमसे बहुत ही संतुष्ट हैं, इसलिये तुम वर माँगो ।’ यह सुनकर उसने वर माँगा कि ‘यह मृत सर्प पुनः जीवित हो जाय ।’ वैश्य के यह कहने पर ब्राह्मणों ने अभिमन्त्रित जल सर्प के ऊपर छिड़का । जल के छींटे पड़ते ही वह सर्प जीवित हो गया । यह देखकर धनेश्वर बड़ा ही प्रसन्न हुआ और नगर के लोग धनेश्वर की प्रशंसा करने लगे ।

महाराज ! यह सहस्र-ब्राह्मण-भोजन (अन्नदान) का संक्षेप से मैंने माहात्म्य वर्णन किया । जो व्यक्ति ब्राह्मणों को और अभ्यागत को अन्न देता है, वह बहुत दिन तक संसार-सुख को भोगकर विष्णुलोक को प्राप्त कर लेता है ।
(अध्याय १६९)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.