भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १७०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १७०
स्थालीदान की महिमा में द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा

महाराज युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! आपके द्वारा अन्नदान के माहात्म्य को सुनकर मुझे भी एक बात स्मरण आ रही है । जिसे मैंने अपनी आँखों से देखा है, उसे मैं आपको सुनाता हूँ । जिस समय दुर्योधन, कर्ण, शकुनि आदि ने द्यूतक्रीडा में छल से हमारे राज्य को छीन लिया और हमलोग द्रौपदी के साथ वल्कल वस्त्र तथा मृग-चर्म धारण कर वन को जा रहे थे, उस समय नगर के लोग और सदाचारी ब्राह्मण स्नेह से हमारे साथ चलने लगे । om, ॐउन्हें देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ और मैं यह सोचने लगा कि जो व्यक्ति ब्राह्मण, मित्र, भृत्य आदि का पोषण करता है, उसका जीवन सफल है । अपना पेट तो मनुष्य, जीव, जन्तु, पशु, पक्षी सभी भर लेते हैं । अभ्यागत, सुहद्वर्ग और कुटुम्ब को छोड़कर जो व्यक्ति केवल अपना ही पेट भरता है, वह जीवित होते हुए भी मरे हुए के समान है । यही सोचकर मैंने उन ब्राह्मणों से कहा कि आपलोग त्रिकालज्ञ और ज्ञान-विज्ञान में पारंगत हैं और मेरे स्नेह के वशीभूत होकर ही आये हैं । अब कोई ऐसा उपाय बताने की कृपा कीजिये जिससे कि भाई, बन्धु, मित्र, भृत्यसहित आपलोगों के लिये भी भोजन आदि का प्रबन्ध हो सके, क्योंकि इस निर्जन वन में हमें बारह वर्ष बिताना है । मेरे इस प्रकार के वचन को सुनकर मैत्रेय मुनि ने मुझसे कहा कि — कौन्तेय ! एक प्राचीन वृत्तान्त मैंने दिव्य दृष्टि से देखा है, जिसे मैं कह रहा हूँ, आप ध्यान से सुनें ।

किसी समय एक तपोवन में कोई दुर्भगा, दरिद्रा, ब्रह्मचारिणी ब्राह्मणी निवास कर रही थी । वह इस दशा में भी प्रतिदिन ब्राह्मणों का पूजन किया करती । उसकी शम-दम से परिपूर्ण श्रद्धा को देखकर एक दिन ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर उससे कहा — सुव्रते ! हमलोग तुमसे बहुत प्रसन्न हैं, तुम कोई वर माँगो ।’ तब ब्राह्मणी ने कहा —‘महाराज ! किसी व्रत अथवा दान की ऐसी विधि बताने की कृपा कौजिये, जिसके करने से में पति को प्रिय, पुत्रवती, सौभाग्यवती, नाय तथा लोक में प्रशंसा के योग्य हो जाऊँ ।’

ब्राह्मणी का यह वचन सुनकर वसिष्ठजी ने कहा कि ब्राह्मण ! मैं तुम्हें सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाले स्थालीदान की विधि बता रहा हूँ । पांच सौ पल, दो सौ पचास पल अथवा एक सौ पचीस पल ताँबे का पात्र बनाये अथवा सामर्थ्य न हो तो मिट्टी की उतम हाँड़ी बना ले । वह गहरी और सुदृढ़ हो । उसे मूंग तथा चावल से बने पदार्थ से भरकर चन्दन से चर्चित कर एक मण्डल के मध्य में स्थापित कर ले तथा उसके समीप सब प्रकार शाक, जलपात्र, घी का पात्र रखे और पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र आदि से उस्का पूजन करे और इस प्रकार उस पात्र की प्रार्थना करे —

“ज्वलज्ज्वलनपार्श्वस्थैस्तण्डुलैः सजलैरपि ।
न भवेद्भोज्यसंसिद्धिर्भूतानां पिठरीं विना ॥
त्वं सिद्धिः सिद्धिकामानां त्वं पुष्टिः पुष्टिमिच्छताम् ।
अतस्त्वां प्रणमाम्याशु सत्यं कुरु वचो मम ॥
ज्ञातिबन्धुसुहृद्वर्गे विप्रे प्रेष्यजने तथा ।
अभुक्तवति नाश्नीयात् तथा भव वरप्रदा ॥
(उत्तरपर्व १७० । २२-२४)

इसका भाव यह है कि समीप ही प्रज्वलित अग्नि हो, चावल हो तथा जल भी हो, किंतु यदि स्थाली (बटलोई) न हो तो भोजन नहीं पकाया जा सकता । स्थाली ! तुम सिद्धि चाहनेवालों के लिये सिद्धि तथा पुष्टि चाहनेवालों के लिये पुष्टिस्वरूप हो । मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ । मेरी बात को सत्य करो । मेरे ज्ञातिवर्ग, सुहृद्वर्ग, बन्धुवर्ग तथा भृत्यवर्ग आदि जबतक भोजन न कर लें, तबतक तुममें – से भोजन घटे नहीं ऐसा वर प्रदान करो ।

यह मन्त्र पढ़कर वह पात्र द्विजश्रेष्ठ को दान कर दे । यह दान रविवार, संक्रान्ति, चतुर्दशी, अष्टमी, एकादशी अथवा तृतीया को करना चाहिये । वसिष्ठजी का यह उपदेश मानकर वह ब्राह्मणी नित्य ब्राह्मणों को दक्षिणासहित स्थालीपात्र देने लगी । पार्थ ! उसी पुण्य के प्रभाव से जन्मान्तर में वही ब्राह्मणी द्रौपदीरूप में तुम्हारी भार्या हुई है और दान देने में द्रौपदी का हाथ कभी शून्य नहीं रहेगा; क्योंकि यह द्रौपदी, सती, शची, स्वाहा, सावित्री, भू, अरुन्धती तथा लक्ष्मी के रूप में जहाँ रह रही हो, वहाँ फिर कौन-सा पदार्थ दुर्लभ हो सकता है । इतना कहकर मैत्रेय मुनि ने कहा कि महाराज युधिष्ठिर ! यह द्रौपदी अपनी स्थाली से अन्न दे तो सम्पूर्ण जगत् को तृप्त कर सकती है, फिर इन थोडे-से ब्राह्मणों के भोजन आदि के विषयमें आप क्यों चिन्तित होते हैं ?

मैत्रेयजी का ऐसा वचन सुनकर भगवन् ! हमलोगों ने भी वैसा ही किया और सभी परिजन के साथ ब्राह्मणों को नित्य भोजन कराने लगे । प्रभो ! अन्नदान के प्रसंग से यह स्थालीदान की विधि मैंने कही, इसलिये आप मेरी धृष्टता को क्षमा करें । जो व्यक्ति सुन्दर ताम्र की स्थाली बनाकर चावलों से उसे भरकर पर्व-दिन में इस विधि से ब्राह्मण को देता है, उसके घर सुहृद्, सम्बन्धी, बान्धव, मित्र, भृत्य और अतिथि नित्य भोजन करें तो भी भोजन की कमी नहीं होती ।
(अध्याय १७०)

Please follow and like us:
Pin Share

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.