January 14, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १७१ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १७१ दासीदान का वर्णन श्रीकृष्ण बोले — अरिसूदन ! तुम्हारी भक्ति और स्नेह वश मैं तुम्हें दासी दान बता रहा हूँ, जिसे कहीं कोई जानता ही नहीं । चारो आश्रमों में गृहस्थाश्रम सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, गृहस्थ से गृह श्रेष्ठ और गृह से उत्तम स्त्रियाँ श्रेष्ठ कही गयी हैं । क्योंकि गृह वही कहा जाता है जिसमें पूर्ण चन्द्र के समान मुख, पीत और उन्नत पयोधर एवं शील भूषित स्त्रियाँ निवास करती हैं । कुलस्त्रियों की अर्चना (पूर्ण रीति से पालन पोषण) जिस घर में सुसम्पन्न होती है । देवता भी उसी घर में आनन्द मग्न रहकर निवास करते हैं और जिस घर में उनका सम्मान नहीं होता वह अत्यन्त शीघ्र विनष्ट हो जाता है । क्योंकि जिस घर में असम्मानित होकर कुलस्त्रियाँ उसे शाप देती है वह घर कृत्या द्वारा विनष्ट होने की भाँति सद्यः नष्ट हो जाता है । इसलिए कि स्त्रियाँ अमृत का कुण्ड, सुखों की राशि और रति का विधान रूप होती हैं । अतः आश्चर्य होता है कि इनका निर्माण कर्ता कौन है । श्यामा (षोडशवर्षीया), (स्थूल नितम्ब के नाते) मन्थर गमन करने वाली और पीन उन्नत पयोधर वाली परमोत्तम नारियाँ और भैंसे प्रत्येक गृहस्थों के यहाँ नहीं होती हैं । जिस कृपण (कार्पण्य) वृत्तिवाले पुरुष के घर में हिरण्य (सोना चाँदी), दासी, (नौकरानी), गोरस न हो और पुत्र घृत पर्याप्त न होता हो वह दूसरा नरक ही है । दण्ड पाशधारी सेवक (द्वारपाल) रहित ग्राम, दासीहीन गृह, घृत हीन भोजन, मेरी सम्मति से ये सभी व्यर्थ हैं । अनेक भाँति के आभूषणों से सुशोभित दासी जिस घर में सेवा करती है, उस घर में क्षीर सागर निवासिनी लक्ष्मी हाथ में सुशोभित कमल पुष्प लिए सदैव निवास करती है । जिस घर में पवित्रता, व्यावहारिक सुख और एक भी दासी नहीं रहती है वह घर सदैव अनवस्थित रहता है । उसी भाँति जिस घर में समस्त कार्यों को सुसम्पन्न करने वाली दासी नहीं रहती है उसमें सैकड़ों सेवकों के रहते हुए भी वह शुभ कार्य नहीं हो पाता है, जो स्वामी द्वारा पाली पोषी जाने वाली एक शुभ लक्षणा एवं परिश्रम शीला दासी सुसम्पन्न करती है । जिसके ग्राम में जन संख्या परिपूर्ण हो, घरमें अनेक दास-दासियाँ वर्तमान हों और बुद्धि सदैव धर्मकार्यों में व्यस्त रहती है, क्या उस पुरुष (गृह स्वामी) का चित्त कभी आकुल हो सकता है । जिस घर में स्त्री (गृहस्वामिनी), अत्यन्त दक्ष (चतुर) कर्मठ दासी और सेवक वर्ग सदैव उद्यम परायण रहते हैं वहाँ तीनों वर्गों (धर्म, अर्थ और काम) की सफलता सदैव दिखायी देती है । मर्त्य लोक में रहकर जो अपनी अत्यन्त अभीष्ट वस्तु हो उसका दान, अवश्य करना चाहिए, ऐसी श्रुति का कथन है, इसलिए अपने हृदय में इन बातों पर विचार विमर्श करके दासी दान ब्राह्मण को अवश्य अर्पित करना चाहिए । स्थिर नक्षत्र, सौम्यग्रह युक्त चन्द्रमा (सोम) का दिन या पर्व दिवस प्रशस्त दान काल बताया गया है । कौरव ! इसलिए यथा शक्ति वस्त्राभूषण से सुशोभित दासी का दान इस मन्त्र द्वारा ब्राह्मणों को अर्पित करना चाहिए — इयं दासी मया तुभ्यं भगवन्प्रतिपादिता ॥ कर्मोपयोज्या भोज्या वा यथेष्टं भद्रमस्तु ते । (उत्तरपर्व १७१ । १८-१९) ‘भगवन् ! मैंने यह दासी आप की सेवा में अर्पित की है अतः आप के यथेष्ट कार्यों को यह सुसम्पन्न करती रहेगी ।’ यह कहकर काञ्चन समेत दासी ब्राह्मण को अर्पित करते हुए गृह के दरवाजे तक अनुगमन करके विसर्जित करे । महराज ! इस विधान द्वारा देवालय, यज्ञ, अथवा किसी प्रसिद्ध स्थान में समस्त कार्यों को सुसम्पन्न करने वाली दासी, जो तरुणी एवं रूप सौन्दर्य सम्पन्न हो, ब्राह्मण को अर्पित करने में कौन समर्थ हो सकता है । इस प्रकार गृह कर्म में अत्यन्त निपुण दासी किसी कुलशील वाले ब्राह्मण की सेवा में अर्पित करने वाला मनुष्य विद्याधरों के सैकड़ों अधिनायकों द्वारा पूजित होकर लोक में त्रिलोक सुन्दरी अप्सराओं से नित्य सुसेवित होता है । (अध्याय १७१) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe