भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १७२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १७२
प्रपा दान (प्याऊ या पौंसला) विधि का वर्णन

युधिष्ठिर बोले — देवकीनन्दन ! मुझे प्रपा (प्याऊ) दान का महत्त्व बताने की कृपा करें, वह दान किस विधान द्वारा और किस समय दिया जाता है एवं उस दान का फल क्या है ।

श्रीकृष्ण बोले — फाल्गुन मास के व्यतीत होने के अनन्तर चैत्रमास के उस महोत्सव के समय, जो ग्रहबल और चन्द्रबल समेत पुण्य अवसर कहलाता है, घने छाया वाले एक मनोरम मण्डप का निर्माण करे जो गाँव के मध्य, किसी मार्ग, जलविहीन, देवालय, या चैत्य वृक्ष की छाया में निश्चित हो और सुशीतल, रमणीयक, विचित्र आसन युक्त, भव्या भाग में मृत्तिका के सुन्दर और दृढ़ घड़े और पानी पिलाने के लिए करवा रखे तथा इन्हें वस्त्राच्छादित किये रहे । om, ॐकिसी शील सम्पन्न ब्राह्मण को जिसके अनेक पुत्र हों, उचित वेतन द्वारा वैतनिक रूप में वहाँ उस कार्य के लिए नियुक्त करे । जो भ्रान्त प्राणियों को जलपान द्वारा प्रभान्त (सुखी) बनाने की चेष्टा करता रहे । नरश्रेष्ठ ! इस प्रकार किसी शुभ अवसर पर सविधान उस प्रपा (प्यऊ) को स्थापित कर यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन भी उसके आरम्भ में सम्पन्न करे और उसके अनन्तर इस मन्त्र द्वारा उसका उत्सर्जन करे —

“प्रपेयं सर्वसामान्या भूतेभ्यः प्रतिपादिता ॥
अस्याः प्रदानात् पितरस्तृप्यन्तु च पितामहाः ।
(उत्तरपर्व १७२ । ९-१०)
‘सभी प्राणियों के (जलपान करानेके) निमित्त सर्वसाधरण प्याऊ मैंने प्रारम्भ कर दिया है, जिसके प्रदान से पितृपितामहगण भली भाँति तृप्त हों ।’

पश्चात् चार मास तक अनिवार्य वह (प्याऊ का कार्य) चलाता रहे । महाराज ! जीवों के जीवन रूप यह जल दान जो सुगन्धित, सुरस (स्वादिष्ट) और शीतल रूप में किसी शोभन पात्र में रखा रहे, (कम से कम) तीन पक्ष (डेढ़ मास) तक अवश्य सुसम्पन्न करे । पानी पिलाते समय पीने वाले का मुख न देखकर यह कार्य व्यापार अवतिहत अनिवार्य रूप से किया करें । इस विधान द्वारा ग्रीष्म की उष्णता का अपहरण करने में समर्थ इस उत्तम जल दान से जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है मैं बता रहा हूँ, सुनो ! समस्त तीर्थों और सम्पूर्ण दानों द्वारा जिन फलों की प्राप्ति होती है वे सभी इसके द्वारा प्राप्त होते हैं और अन्त में समस्त देवों से पूजित होकर पूर्व चन्द्रमा के समान विमान पर सुशोभित तथा अप्सरागणों से सुसेवित होते हुए वह भी देवेन्द्र नगर (स्वर्ग) पहुँचता है । वहाँ यक्ष गन्धर्वो द्वारा बीस कोटि वर्षों तक सुखानुभव करने के उपरान्त क्षीण पुण्य के समय इसलोक में चतुर्वेदी ब्राह्मण होता है । पुनः अन्त में निधन होने पर वहाँ से वह पद प्राप्त करता है जहाँ से इस लोक में आना अत्यन्त दुर्लभ रहता है । धर्म की विशेष इच्छा वश प्रपादान (प्याऊ) की असमर्थता में मनुष्य को पवित्र प्रमल जल पूर्ण एक घड़े वस्त्राच्छन्न करके प्रतिदिन ब्राह्मण के घर अर्पित करना चाहिए । नरोत्तम ! प्रतिमास भाँति-भाँति के पक्वान्नों समेत वस्त्राच्छन्न जल-कलश द्वारा उद्यापन कार्य सुसम्पन्न करे । कुरुनन्दन ! शङ्कर, विष्णु और ब्रह्मा के उद्देश्य से मनुष्य को इस मन्त्र द्वारा जलप्रोक्षण करना चाहिए —

“एष धर्मघटो दत्तो ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः ।
अस्य प्रदानात् सफला मम सन्तु मनोरथाः ॥”
(उत्तरपर्व १७२ । २१)
‘ब्रह्मा, विष्णु और शिवात्मक यह धर्मघट मैने अर्पित किया है अतः इसके प्रदान द्वारा मेरे सभी मनोरथ सफल हों’

— ऐसा कहकर अर्पित करे । इस विधान द्वारा धर्म कलश का दान करने वाला मनुष्य निस्सन्देह प्रपा (प्याउ) दान का फल प्राप्त करता है। इस भाँति के धर्म घर के दान करने में भी असमर्थ रहने वाले मनुष्य को सयंम पूर्वक प्रतिदिन पीपल वृक्ष के मूलभाग का सेचन करना चाहिए । ‘अश्वत्थ (पीपल) दृक्ष रूपी भगवान् जनार्दन मेरे ऊपर प्रसन्न हों’ ऐसा कहते हुए उन पापनाशक को प्रतिदिन नमस्कार करे । इस प्रकार निरन्तर चार मास तक पीपल वृक्ष के मूल भाग (जड़) का सेचन करने वाला प्राणी भी वही फल प्राप्त करता है, ऐसा सनातनी श्रुति (वेदों) का कथन है । इस भाँति सुस्वादु, शीतल जलपुर्ण खेदनाशिनी अपा (प्याऊ) का दान जिससे समस्त जन सुखी हों अपने नगर गाँव के समीप या किसी चौराहे पर नित्य करने वाला मनुष्य धर्ममूर्ति के रूप में इसलोक में वही जीवित कहा जाता है ।
(अध्याय १७२)

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