January 14, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १७३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १७३ अग्नीष्टिका (अँगीठी) दान का वर्णन युधिष्ठिर बोले — शिशिर ऋतु में शीतभीरु प्राणियों द्वारा जो अत्यन्त कारुणिक होते हैं, समस्त प्राणियों के उपकारार्थ अग्नीष्टिका (अंगीठी) का दान किस भाँति किया जाता है । श्रीकृष्ण बोले — पार्थ ! मैं तुम्हें अग्नीष्टिका (अंगीठी) का विधान बता रहा हूँ, जिससे वह समस्त प्राणियों के लिए सुखप्रद होती है, सुनो ! मार्गशीर्ष (अगहन) मास के प्रारम्भ में किसी शुभ दिवस सुन्दर शुभासन युक्त अंगीठी बनाकर देवालय के प्राङ्गण, मार्ग, गृह या विस्तृत चौराहे पर दोनों संध्या समय रखकर उसमें सूखे काष्ठ का संचय करते हुए उसी प्रज्वलित अग्नि में सर्वप्रथम व्याहृतियों के उच्चारण पूर्वक आहुति डालना चाहिए । उसी भाँति प्रतिदिन हवन पूर्वक उसे प्रज्वलित रखना बताया गया है । यदि उस समय कोई क्षुधा पीड़ित प्राणी आ जाता है तो उसके लिए भोजन की भी व्यवस्था करे । पार्थ ! वहाँ स्थित मनुष्यों की आपस में जो कथाएँ आदि होती रहती हैं उसे बताने में असमर्थ हूँ क्योंकि कोई राजचर्चा, कोई जनवार्ता करता रहता है और यदि कोई स्वेच्छया कुछ भी कहता है तो उसे कौन रोक सकता है । राजन् ! इस विधान द्वारा अंगीठी दान करने वाले मनुष्य को जिस फल की प्राप्ति होती है, मैं बता रहा हूँ, सुनो ! सूर्य सन्निभ विमान पर जो अत्यन्त धनपूर्ण रहता है, बैठकर अत्यन्त सुख पूर्वक ब्रह्मलोक में पहुँचने पर वह मनुष्य वहाँ साठ सहस्र और साठ वर्ष तक पूजित होता है । पुनः कभी इस लोक में आने पर वह चतुर्वेदी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होता है और अग्नि के समान तेजस्वी रहकर वह सदैव नीरोग और याज्ञिक होता है । इस प्रकार चैत्य, देवालय प्राङ्गण, सभा, या चौराहे पर हेमंत शिशिर के दिनों में प्रचुर काष्ठों की अंगीठी का जो अत्यन्त सुन्दर और मनुष्यों को सुखप्रदा होती है, दान करने वाले शरीरादि दान फल प्राप्त करते हैं । (अध्याय १७३) Please follow and like us: Related