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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १७४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १७४
विद्यादान का वर्णन

महाराज युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! अनेक प्रकार के गोदान और भूमिदान की विधि एवं माहात्म्य आदि सुनने के बाद अब मैं विद्यादान की महिमा सुनना चाहता हूँ, उसे आप बतलायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! जिस प्रकार विद्या का दान करना चाहिये तथा उससे जो फल प्राप्त होता है, उसका मैं वर्णन कर रहा हूँ —
om, ॐ
शुभ मुहूर्त में स्वस्तिक, फूलमालासे भूषित एक चौकोर मण्डल बनाकर उसके मध्य में पुस्तक को स्थापित कर गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि से उसका पूजन करे । लेखक का पूजन कर सुवर्ण की लेखनी और चाँदी का मसिपात्र (दावात) बनाकर लेखक को देना चाहिये । लेखक को सुशील और अप्रमत्त होना चाहिये । अनन्तर लेखक पुस्तक लिखना आरम्भ करे । उसे एकाग्रचित्त होकर मात्रा, अनुस्वार, संयुक्त अक्षरों को साफ-साफ और पदों को अलग अलग लिखना चाहिये । अक्षर गोल-गोल सुन्दर, एक समान और शीर्षरेखायुक्त हों । इस विधि से शिवभक्तिपरक या विष्णुभक्तिपरक पुराण, आगम धर्मशास्त्र आदि लिखवाकर अन्त में वस्त्र और आभूषण आदि से लेखक का पूजन करने के बाद उस पुस्तक को दो वस्त्रों से आवेष्टित कर दक्षिणासहित व्युत्पन्नमति, प्रियंवद और उत्तम वाचक ब्राह्मण को अथवा सबके कल्याण के लिये मठ, मन्दिर या सामान्य गृह आदि में स्थापित करे । इस विधि से जो व्यक्ति पुस्तकदान करता है, वह यज्ञ और तीर्थयात्रा करने से भी कोटिगुना अधिक फल प्राप्त करता है । एक हजार कपिला गाय का विधिपूर्वक दान करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एक पुस्तक के दान करने से हो जाता है । फिर पुराण, रामायण और महाभारत, गीता आदि पवित्र ग्रन्थों के दान करने से जो फल प्राप्त होता है, उसका वर्णन कौन कर सकता है ?

प्रातःकाल उठकर जो अपने शिष्यों को वेदादि शास्त्रों तथा नृत्य, गीत-कलाओं को पढ़ाता है, उसके समान पुण्यात्मा कौन है ? जो पढ़ानेवाले को वृत्ति देकर विद्यार्थियों को पढ़वाता है, उसने कौन-सा दान नहीं किया ? विद्यार्थियों को भोजन, वस्त्र, भिक्षा एवं पुस्तक आदि देने से मनुष्यों के सभी मनोरथ नि:संदेह सिद्ध होते हैं । वह विवेकवान, दीर्घजीवी होता है तथा धर्म, अर्थ, काम आदि सब कुछ प्राप्त कर लेता है । राजन् ! जो भी व्यक्ति शास्त्रविद्या, शस्त्रविद्या, चौंसठ कलाएँ, ज्ञान-विज्ञान आदि को सीखना चाहता है, उसकी यथा-शक्ति सहायता करनी चाहिये और उसके उपकार के लिये सदा तत्पर रहना चाहिये, क्योंकि उससे पारमार्थिक लाभ होता है । हजार वाजपेय-यज्ञ करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल सद्विद्यादान से प्राप्त हो जाता है । शिवविष्णु, अथवा सूर्य के मन्दिरों में जो व्यक्ति प्रतिदिन पुराण आदि के वाचन की व्यवस्था करवाता है, वह प्रतिदिन गौ, भूमि, सुवर्ण औरवस्त्र के दान का फल प्राप्त करता है । विद्याहीन व्यक्ति धर्म तथा अधर्म का निर्णय नहीं कर सकता इसलिये सदा विद्यादान में तत्पर रहना चाहिये । ब्रह्मा आदि सभी देवता विद्यादान में प्रतिष्ठित रहते हैं । विद्यादान करनेवाला व्यक्ति एक कल्पतक विष्णुलोक में पूजित होता है और पुनः भूलोक में जन्म लेकर दाता, भोगी, रूपसौभाग्ययुक्त, दीर्घायु नीरोग और पुत्र-पौत्रयुक्त धर्मात्मा राजा होता है ।
(अध्याय १७४)

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