भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १७५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १७५
तुला-पुरुष-दान का वर्णन

श्रीकृष्ण बोले — प्राचीन काल में स्वायम्भुव पुत्र राजा प्रियव्रत ने (अपने राज्यकाल में) इस वसुधा का पालन पोषण एक अपर प्रजापति की भॉति किया था । उस विभु राजा ने तीस सहस्र वर्ष तक इस पृथ्वी का भली भाँति पालन पोषण करके सातों द्वीपों को अपने पुत्रों में विभक्त कर दिया । अनन्तर अपने सातों पुत्रों को अपने अपने राज्य सिंहासनों पर सुखासीन करके राजा ने संयम द्वारा विषयों से अपनी इन्द्रियों को विमुख और संयत करते हुए तप करने के लिए जंगल को प्रस्थान किया ।om, ॐ उस परम तेजस्वी राजा का वन गमन सुनकर ऋषि महात्मागण उनके दर्शनार्थ वहाँ उपस्थित हुए । मेधावी राजा ने अपने यहाँ उन ऋषियों का, जो अपने नैष्ठिक तप द्वारा पापों को विनष्ट कर दिये हैं, आगमन देखकर उनकी सविधि अर्चना की -पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय जल दान आदि तथा मधुर प्रश्नोत्तर द्वारा सुखी बनाया अनन्तर उन ब्राह्मण महात्माओं के शान्तचित्त सुखासीन होने पर ब्रह्मपुत्र महातेजस्वी पुलस्त्य जी का आगमन हुआ जो तेज से देदीप्यमान होने के नाते दूसरे भास्कर की भाँति दिखायी दे रहे थे । उन्हें देखकर महारथी राजा और समस्त मुनिगणों ने अपने-अपने आसनों पर उठकर उनका स्वागत किया । यथायोग्य एवं सविधान कुशल वार्ता के उपरान्त राजा ने आसन पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय जलादि द्वारा उनकी अर्चना की । पश्चात् सभी महर्षि गण सुखासीन रहकर वेद सम्बन्धी विविध कथाओं की प्रसन्नमुखमुद्रा में चर्चा करने लगे । कथाओं की सम्मत्ति होने पर राजा समेत मुनियों ने लोक हितार्थ व्रह्मपुत्र पुलस्त्य से पूछा ।

ऋषियों ने कहा — भगवन् ! मुनिसत्तम किस दान, व्रत अथवा नियम द्वारा सभी पुरुषों को सद्गति प्राप्त होती है, इसे जानने के लिए हम लोग और प्रियव्रत राजा भी समुत्सुक हैं ।

पुलस्त्य बोले—मुनिवृन्द ! मैं उस पापनाशक का रहस्य, जो सर्वश्रेष्ठ, और समस्त दानों से समन्वित हैं, बता रहा हूँ, सुनो ! उसके दान करने से ब्राह्मण, गौ और पिता आदि की हत्या करने वाला, गुरुपत्नीगामी कृतघ्नी और कूटसाक्षी (झूठी गवाही) देनेवाला अपने पापों से मुक्त हो जाता है । चाहे स्त्री ही क्यों न हो, उसकी भी उसी समय दिव्य देह हो जाती है । ब्रह्मपदाभिलाषी पुरुषों को तुलापुरुष वाले कृच्छ्रचान्द्रायणादि व्रतों के अनुष्ठान द्वारा शरीर का शोषण करना चाहिए । क्योंकि वनस्थित तपस्वी ब्राह्मण, भिक्षुक (संन्यसी) और रण्डा पुरुषों सन्तान हीन (अविवाहित) प्राणियों की सिद्धि चान्द्रायण आदि व्रतों के अनुष्ठान कायक्लेश करने से ही होती है किन्तु गृहस्थों को उनका उपयोग न करना चाहिए। महाधनवान तथा रत्नभोगी राजा आदि के लिए कृच्छ्र (अत्यन्त कष्ट) साध्य को भी धर्म प्रशस्त नहीं बताया गया है । क्योंकि (यह देह) द्रविण (धन) रूप है और प्राण उससे बाहर (पृथक्) की वस्तु है इसलिए प्राणों का आत्मयोग होना परमावश्यक कहा गया है । लोक में काञ्चन (सुवर्ण) समस्त द्रव्यों में श्रेष्ठ और पूर्ण कामनाप्रद होता है, क्योंकि उसे देव प्रमुख अग्नि देव का ज्येष्ठ पुत्र बताया गया है । इसलिए जो विद्वान् उससे अपने को तौलता है अर्थात् तुलादान करता है वह सद्यः अपने पापों को नष्ट कर दिव्यतनु हो जाता है । नृपश्रेष्ठ ! पार्थिव पुलस्य महर्षि द्वारा ऋषियों ने सुना है और ऋषियों से मुझे प्राप्त हुआ है ।

युधिष्ठिर बोले — महाभाग, परेमश्वर ! मुझ भक्त पर कृपा करते हुए आप तुला पुरुष दान का माहात्म्य बतायें ।

श्रीकृष्ण बोले — राजन् नृपोत्तम ! मैं तुला पुरुष दान का विधान बता रहा हूँ, सुनो ! नृपसत्तम ! व्यतीपात, अयनसंक्रान्ति, कार्तिक पूर्णिमा, विषुव योग, चन्द्र, सूर्यग्रहण, और माघ पूर्णिमा तथा जलनक्षत्र पर स्थित (अनिष्ट) ग्रह द्वारा पीड़ित होने या दुःस्वप्न के देखने पर अथवा जिस समय (अभूत) धनागम होता, उसी समय – यह दान अवश्य करना चाहिए । क्योंकि जीवन अनित्य होने के नाते यह शरीर अत्यन्त अस्थिर है और मृत्यु (जन्मतः) सिर की चोटी पकड़े हुए है इसलिए (दूसरे दिन का वाद न कर) आज ही इस दान के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए । उसे ही दान का काल समझ कर मेरे निमित्त दान करके के लिए किसी तीर्थ, विशाल गोशाला या अपने गृहप्राङ्गण में चार भद्रमुख वाले मण्डप का निर्माण करके, जो (वृक्ष की) हरी शाखाओं से युक्त, दिव्य, पूर्व उत्तर की ओर ढालू, दृढ़, सोलह हाथ का विस्तृत और पताकाओं से विभूषित हो, उसके मध्य में सात हाथ की विस्तृत, एक हाथ की ऊँची, चौकोर और सुशोभन एक वेदी की रचना करे और उसके मध्य भाग में सविधान दिव्य तुला की स्थापना करे । महाराज ! दो हांथ के विस्तृत चार हाथ की भी नीचाई वाले गढ्ढे में दो स्तम्भ (खम्भे) की स्थापना करे, जो दृढ़ एवं नवीन हो । चन्दन, खैर, बैल, शक्ति, इंगुदी , तिन्दुक, देवदारु, और श्रीपर्ण, यही आठ प्रकार के वृक्ष (शुभ कार्य के लिए) स्तम्भ के लिए बताये गये हैं और अन्य भी वृक्ष हैं जो सारज्ञ और यज्ञ के काम आते हैं । इस प्रकार उस निश्चल स्तम्भ के ऊपर चार हाथ की उपरोक्त वृक्ष की एक टेढ़ी लकड़ी रखकर उसके मध्य में उसी वृक्ष की बनी हुई तुला स्थापित करे, जो दृढ़, छानवे, अङ्गुल की विस्तृत, दिव्य और चारों कर्ण (कान) काले रङ्ग और लोह का होने चाहिए तथा उसके मध्य तुला पुरुष नामक पुरुष रहे । इस प्रकार अनेक रत्नों से भूषित, चन्दन से अनुलिप्त और वस्त्राभूषण से सुशोभित उस तुला के दोनों स्तम्भ वस्त्राच्छन्न, लम्बी पुष्प माला से आबद्ध चन्दन से अनुलिप्त, एवं अनेक भाँति के रत्नों से अलंकृत करना चाहिए ।

अनन्तर योनि युक्त चार कुण्डों के निर्माणपूर्वक, जो एक हाथ के विस्तृत और तीन मेखलाओं से युक्त हो उसके पूर्वोतर भाग (ईशानकोण) में एक हांथ की सुशोभन वेदी बना कर उस पर लोकपाल समेत ग्रहों की स्थापना तथा अर्चा करें । नृप ! उसी वेदी पर माला, वस्त्र, फल एवं अक्षतादि द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर की अर्चना करे । क्षीर वृक्ष के तोरण से भूषित उन चारों द्वार पर माला पल्लव से सुशोभित कलश की स्थापना करे, जो पंचरत्न युक्त और सप्त धान्य के ऊपर स्थित हों, पूर्व के कुण्ड की बैर से ऋग्वेद पाठी को यजुर्वेद पाठी दक्षिण, दो साम वेदपाठी पश्चिम और दो अथर्व वेदपाठी ब्राह्मणों को उत्तर की ओर सुसम्मान करते हुए वरण करें । यहाँ पर कुछ ऋषियों की सम्मति है कि सोलह ऋत्विक रहने चाहिए । उपरोक्त सभी ब्राहाणों को दो ताम्रपत्र एक आसन प्रत्येक व्यक्ति को अर्पित कर होम द्रव्य तिल, घृत, समिधा, (लकड़ी) स्रुव, स्रुक्, विष्ठर (कुशासन) और पुष्प-सुवर्णभूषित लोकपाल तथा चारों ओर वह स्थान पताका से भूषित करे । महाध्वज को बाँधते हुए पाँच रङ्ग की चांदनी (चंदोबा) बाँधे । अनन्तर शुक्ल वस्त्र धारण कर पवित्रता पूर्ण वह प्राज्ञ यजमान शंख, तुरूही की ध्वनि, और वेदघोष पूर्वक वहाँ लोकपालों के निमित्त मंत्रोच्चारण करते हुए आवाहन करे ।

एह्येहि सर्वामरसिद्धसाध्यैरभिष्टुतो वज्रधरामरेश ।
सम्वीज्यमानोप्सरसां गणेन रक्षाध्वरं नो भगवन्नमस्ते ॥५३
(ॐ इन्द्राय नमः)
भगवन्, वज्रधारी अमरेश ! मेरे इस यज्ञ में आकर यह बलि स्वीकार करने की कृपा करें । समस्त देव, सिद्ध साध्यगण आप की सदैव स्तुति करते है और अप्सराएँ पंखा झलती रहती हैं । आप मेरे यज्ञ की रक्षा करें अतः मैं बार-बार आप को नमस्कार कर रहा हूँ – इस मंत्र से इन्द्र का आवाहन करे ।
एह्येहि सर्वामरहव्यवाह मुनिप्रवीरैरभिहृष्टमानसः ।
तेजोवता लोकगणेन सार्द्धं ममाध्वरं रक्ष कवे नमस्ते ॥५४
(ॐ अग्नये नमः)
समस्त देवों के हव्यवाहक अग्नि देव ! मुनिगण सदैव आप को सदैव प्रसन्न रखते हैं । आप तेजस्वी लोकगण समेत यहाँ आकर यह बलि उपहार ग्रहण करते हुए मेरे इस यज्ञ की रक्षा करें मैं आप को नमस्कार कर रहा हूँ – इस मंत्र से अग्नि का आवाहन करे ।
एह्येहि दैवस्वतधर्मराज सर्वामरैरर्चितदिव्यमूर्ते ।
शुभाशुभानन्दकृतामधीशरक्षाध्वरं मे भगवन्नमस्ते ॥५५
(ॐ यमाय नमः)
समस्त देवगणों द्वारा अर्चित होने के नाते दिव्य मूर्ति धारण करने वाले सूर्य पुत्र धर्मराज ! आए शुभाशुभ कर्म करने वालों के अधीश्वर हैं इस मेरे यज्ञ की रक्षा करें । मैं आपको नमस्कार कर रहा हूँ । इस मंत्र से यम का आवाहन करें ।
एह्येहि रक्षोगणनायकत्वं विशालवेतालपिशाचसङ्घैः ।
ममाध्वरं पाहि पिशाचनाथ लोकेश्वरस्त्वं भगवन्नमस्ते ।।५६
एह्महि यादोगणवारिधीनां गणेन पर्जन्यसहाप्सरोभिः ।
विद्याधरेन्द्रामरगीयमान पाहि त्वमस्मान्भगवन्नमस्ते ॥५७
(ॐ वरुणायनमः)
भगवन्, पिशाचनाथ ! आप राक्षसगण के नायक और लोकेश्वर हैं अतः वेताल पिशाच के विशाल समूह समेत मेरे यज्ञ की रक्षा क रें। मैं आप को नमस्कार कर रहा हूँ इस मंत्र से निर्ऋति का आवाहन करे । विद्याधरेन्द्र आदि देवों द्वारा गीयमान वरुण देव ! आप जल जन्तु और वारिधिगण मेघ तथा अप्सराओं से सदैव स्तुत होते रहते हैं आप को नमस्कार कर रहा हूँ इस मेरे यज्ञ की रक्षा करने की कृपा करें । इस मंत्र से वरुण का आवाहन करे ।
एह्येहि यज्ञे मम रक्षणाय मृगाधिरूढः सह सिद्धसन्धैः ।
प्राणाधिपः कालकवे सहायो गृहाण पूजां भगवन्नमस्ते ॥५८
(ॐ वायवे नमः)
भगवान् ! वायुदेव ! आप सिद्धों के साथ सदैव मृग आरूढ रहते हैं, प्राणों के अधीश्वर और कालविधि के सहायक हैं मेरी इस पूजा को ग्रहण करने की कृपा करें में आप को नमस्कार कर रहा हूँ, इस मंत्र से वायु का आवाहन करे ।
एह्येहि यज्ञेश्वर यज्ञरक्षां विधत्स्व नक्षत्रगणेन सार्द्धम् ।
सर्वोषधीभिः पितृभिः सहैव गृहाण पूजा भगवन्नमस्ते॥५९
(ॐ सोमाय नमः)
भगवान्, यज्ञेश्वर ! नक्षत्र गण समेत आप इस यज्ञ की रक्षा करते हुए सम्पूर्ण ओषधि और पितरों सहित उसे पूजा को ग्रहण करें मैं आप को नमस्कार कर रहा हूँ, इस मंत्र से सोम को बलि अर्पित करे ।५९।
एह्येहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते त्रिशूलखट्वाङ्गधरेण सार्द्धम् ।
लोकेन भूतेश्वर यज्ञसिद्धयै गृहाण पूजां भगवन्नमस्ते ॥६०
(ईशानाय नमः)
भगवान् विश्वमूर्ते विश्वेश्वर ! त्रिशूल, खट्टाङ्गधारी लोगों के साथ आप यज्ञ सिद्धयर्थ यह पूजा ग्रहण करें । भूतेश्वर ! में आप को बार-बार नमस्कार कर रहा हूँ, इस मंत्र से ईशान (शिव) का आवाहन करे ।
एह्येहि पातालधराधरेन्द्र नागाङ्गनाकिन्नरगीयमान् ।
यक्षोरगेन्द्रामरलोकसंघेरनन्त रक्षाध्वरमस्मदीयम् ।।६१
(ॐ अनन्ताय नमः)
पातालधराधरेन्द्र, अनन्तदेव ! नागों की स्त्रियाँ और किन्नरगण आप का सदैव यशोगान करते हैं आप यक्ष और सर्वाधीश्वर वृन्तों समेत मेरे यज्ञ की रक्षा करने की कृपा करें इस मंत्र से अनन्त का आवाहन करे ।
एह्येहि विश्वाधिपते मुनींद्र लोकेश सार्द्धं पितृदेवताभिः ।
विश्वाध्वरान्तं सततं शिवाय पितामहस्त्वं सततं नमस्ते ।।६२
( ॐ ब्रह्मणे नमः)
विश्वाधिपते, मुनीन्द्र, एवं लोकेश ! पितृदेवताओं समेत आप कल्याणार्थ इस यज्ञ के अन्त:स्थल में प्रवेश करने की कृपा करें । आप पितामह हैं । अत: आपको में बार-बार नमस्कार कर रहा हूँ, इस मंत्र से ब्रह्मा का आवाहन करें ।

त्रैलोक्यं यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च ।
ब्रह्मविष्णुशिवैः सार्द्धं रक्षां कुर्वन्तु तानि मे ॥६३
देवदानवगन्धर्वाः यक्षराक्षसपन्नगाः ।
ऋषयो मनवो गावो देवमातर एव च ॥६४
सर्वे ममान्वरे रक्षां प्रकुर्वन्तु मुदान्विताः ।
तीनों लोक में विचरण करने वाले समस्त चर-अचर प्राणी व्रह्मा, विष्णु और शिव समेत मेरी रक्षा करने की कृपा करें । उसी भाँति देव, दानव, गन्धर्वगण, यक्ष, राक्षस पन्नग, सूर्य, ऋषिगण, मनु गौएँ और देवमाताएँ सहर्ष मेरे यज्ञ की रक्षा करें ।

इस प्रकार देवों के आवाहन करने के अनन्तर ऋत्विजों को सुवर्ण माला, कुण्डल, सुवर्ण सूत्र, अङ्गद, अंगुठी, वस्त्र और पुष्पों से भूषित करते हुए गुरु को भूषण वस्त्रादि दुगुने अर्पित करे । सर्वप्रथम ‘आज्यभाग आधार’ (घृत की आहुति) प्रदान करते हुए ‘ओंकार पूर्वक नामों के अन्त में स्वाहापद जोड़ कर वहाँ प्रतिष्ठित देवों के निमित्त हवन करें । तदुपरान्त गृह, लोकपाल, शिव, विष्णु, वनस्पतिगण, और ब्रह्मा को यथेच्छ आहुति अर्पित करे । पश्चात् पुष्पाञ्जलि समेत शुक्ल वस्त्र, माला धारण किये यजमान मांगलिक शब्दों (वेदमंत्रों) के उच्चारण पूर्वक तीन प्रदक्षिणा के उपरान्त तुला अभिमन्त्रित करे —

“नमस्ते सर्वदेवानां शक्तिस्त्वं सत्यमास्थिता ।
साक्षिभूता जगद्धात्रि निर्मिता विश्वयोनिना ।
एकतः सर्वसत्यानि तथानृतशतानि च ॥
धर्माधर्मकृतां मध्ये स्थापितासि जगद्धिते ।
त्वं तुले सर्वभूतानां प्रमाणमिह कीर्तिताः ।।
मां तोलयन्ती संसारादुद्धरास्व नमोऽस्तुते ।
योऽसौ तत्त्वाधिपो देवः पुरुषः पञ्चविंशकः ॥
स एकोऽधिष्ठितो देवि त्वयि तस्मान्नमो नमः ।
नमो नमस्ते गोविन्द तुलापुरुषसंज्ञक ।।
त्वं हरे तारयस्वास्मानस्मात् संसारसागरात् ।
)उत्तरपर्व १७५ । ७१-७६)
‘जगद्धात्रि ! तुम्हें नमस्कार है, तू समस्त देवों की शक्ति हो, सत्य में ही तुम्हारी स्थिति है, साक्षी रूप, हो, उसी हेतु विश्वयोनि ब्रह्मा ने तुम्हारा निर्माण किया है, तुम्हारे एक ओर सर्वसत्य और दूसरी ओर सैकड़ों असत्य रहते हैं इस लिए धर्माधर्म के मध्य तुम्हारी स्थिति होती है । जगद्धिते ! तुले ! तू समस्त प्राणियों के प्रमाण रूप हो मुझे तौलती हुई तू इस संसार से मेरा उद्धार करो, मैं तुम्हें नमस्कार कर रहा हूँ, क्योंकि पच्चीस तत्व में अधिष्ठित रहने वाला यही एक पुरुष देव तुम्हारे ऊपर स्थित है, अतः तुम्हें बार-बार नमस्कार कर रहा हूँ । तुला पुरुष नामक गोविन्द ! तुम्हें बार-बार नमस्कार है, इस संसार सागर से मुझे तारने की कृपा करें ।’

इस प्रकार किसी पुण्य काल में भक्तिपूर्वक अधिवासन करने के अनन्तर प्रणाम पूर्वक विद्वान् को तुलारोहण करना चाहिए । जो खड्ग, चर्म, और कवच धारण किये सर्वाभरण भूषित हो । सुवर्ण की सूर्य प्रतिमा समेत धर्मराज को लिए दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बाँधे सम्मुख विष्णु मुख का दर्शन करते हुए उस पर आसीन होना चाहिए । द्विजपुङ्गवों को चाहिए कि बायें ओर यम और दाहिनी ओर सूर्य को रखते हुए तुला के अपरभाग में समता से अधिक भाग निर्मल सुवर्ण रखें । नरेश्वर ! पुष्टि कामनया उस सुवर्ण वाले तुला को भूमिस्थ ही रखना चाहिए । पुन: उस पर क्षण मात्र स्थित रहकर इस प्रकार अभ्यर्थना करे —

नमस्ते सर्वभूतानां साक्षिभूते सनातने ।
पितामहेन देवि त्वं निर्मिता परमेष्टिना ॥
त्वयोद्धृतं जगत्सर्वं सहस्थावरजङ्गमम् ।
सर्वभूतात्मभूतस्थे नमस्ते विश्वधारिणि ॥
(उत्तरपर्व १७५ । ८१-८२)
देवि ! तुम समस्त प्राणियों की साक्षी रूप और सनातन हो । परमेष्ठी पितामह ने तुम्हारा निर्माण किया है अतः तुम्हें नमस्कार है । स्थावर जङ्गम (चराचर) समस्त जगत् का तुमने उद्धार किया है। विश्वधारिणी! तू समस्त प्राणियों को आत्मा में सदैव स्थित रहती हों अतः तुम्हें नमस्कार कर रहा हूँ ।’

पश्चात् उस तुला से उतर कर समस्त का अर्द्ध भाग गुरु को और शेष अर्द्ध भाग जल समेत ऋत्विजों को भी दिया जा सकता है। दीन, अनाथ आदि की भी ब्राह्मणों के साथ पूजा (सुसम्पन्न) करनी चाहिए । विद्वान् को चाहिए कि उस समस्त सुवर्ण दान चिरकाल तक अपने घर में न रखें क्योंकि उसके रखने से भय, कष्ट आदि व्याधियाँ उत्पन्न होने लगती है । इसलिए उस पराये धन को शीघ्र ही उसके स्वामी को अर्पित करना चाहिए । इससे उसे उत्तम श्री प्राप्त होती है।

इस विधान द्वारा चाँदी या कपूर को भी तुलादान कर सकते हैं । कृष्ण पक्ष की तृतीया में दान करने वाली स्त्रियों का सौभाग्यवर्द्धन होता है । कुंकुम, लवण या गुड का तुला दान करते समय मंत्र और हवन कर्म की आवश्यकता नहीं होती है । राजन् ! इस विधान द्वारा इस दान कर्म के सुसम्पन्न करने जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है, मैं बता रहा है, मुनो ! दानी स्त्री या पुरुष ऐसे उत्तम विमान पर सुशोभित होकर, जो गन्धर्व नगर के समान अप्सराओं से आच्छन्न रहता है, अनेक भाँति के रमणीयक वृक्ष समूहों से भूषित, अनेक गंधों से अधिवासित रहता है, उसके प्रत्येक अंगों में अनेक भाँति के रत्न विभूषित रहते हैं, मोतियों के गुच्छे लटकते रहते हैं, संकीर्ण शयनासन और पताकाओं से अलंकृत रहता है, इसमें सैकड़ों घटों की ध्वनि होती रहती है, चामर, व्यञ्जन चलते रहते हैं, समस्त ऋतुओं में सुखप्रद रम्य और समस्त दुःखों से वर्जित रहता है। (ऐसे उत्तम विमान द्वारा) सूर्य लोक की यात्रा करता है । राजेन्द्र ! नीरोग रहकर कल्प पर्यंन्त वहाँ रमण करने के अनन्तर विष्णु शिव के लोक में भी कल्प पर्यन्त निवास करता है । अनन्तर विश्वेदेव, इन्द्रलोक, धर्मराज की पुरी, वरुण तथा कुबेर के लोक में सौ कोटि कल्प सुखानुभव करने के उपरान्त पुनः मानुषकुल में जन्म ग्रहण कर परम धार्मिक राजा होता है, जो यज्ञकर्ता, दानपति, धीमान् और शत्रुओं का विनाशक होता है। इस महादान के आख्यान को भक्तिपूर्वक सुनने वाला भी अपने त्रिविध पापों से मुक्त होता है इसमें संशय नहीं । क्योंकि तीनो लोक में ब्रह्मा, शिव और विष्णु से अन्य कोई पूजनीय नहीं है, अश्वमेध के समान कोई यज्ञ नहीं है, गङ्गा के समान कोई तीर्थ और तुला पुरुष दान के समान कोई दान नहीं है ।
(अध्याय १७५)

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