January 14, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १७६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १७६ सुवर्णदान (हिरण्यगर्भदान) का वर्णन युधिष्ठिर बोले — भगवन् ! आप समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं सम्पूर्ण प्राणी आप को नमस्कार करते हैं, अतः लोगों के अनुग्रहार्थ आप कोई अन्य विषय बताने की कृपा करें । देवेश ! जिस दान अथवा व्रत द्वारा आयु, यश और श्री में आप के समान प्राणी बन सके वह मुझे बतायें । श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! जिस उपाय द्वारा इस भूतल में मनुष्य मेरे समान हो सकता है, मैं उसे लोकहितार्थ तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ! महाभाग पार्थ ! व्रत, उपवास, तीर्थ यात्रा, महापथादि (महातीर्थादि) में मरण, यज्ञ एवं वेदाध्ययन द्वारा मेरे लोक की प्राप्ति नहीं हो सकती है और वह देवों के लिए दुर्लभ है, किन्तु तुम्हारे स्नेह वश मैं उसे बता रहा हूँ । यद्यपि गौ, ब्राह्मण के उपकारार्थ मरण, प्रयाग में अनशन या शंकर जी अर्चना जिस विद्वान् ने की है, उसे ब्रह्मसालोक्य मुक्ति प्राप्ति होती है, ऐसा सनातनी श्रुति का कथन है तथापि जिससे मेरी समता प्राप्त होती है वह अन्य हैं, उसे बता रहा हूँ । हिरण्य नामक दान की व्याख्य मैं कर रहा हूँ सुनो ! अग्नि का ज्येष्ठ पुत्र सुवर्ण कहा जाता है, जो समस्त प्राणियों में महान् परमपवित्र है । उसका दूसरा सार्वलौकिक नाम हिरण्य है । वही जल के गर्भ में प्रविष्ट होकर पुनः भूतल पर (सुवर्ण रूप में) उत्पन्न हुआ है । उसे ब्राह्मण को अर्पित करने वाला मनुष्य मेरे तुल्य होता है । युधिष्ठिर बोले — देवेश, सनातन एवं परमेश्वर ! उसका विधान और जितने प्रमाण में वह दान किया जाता हो, बताने की कृपा करें । श्रीकृष्ण बोले — महामते ! यह दान किसी पर्वकाल, अयन (उत्तरायण-दक्षिणायन), विषुव, चन्द्र सूर्य ग्रहण, व्यतीपात, कार्तिकी पूर्णिमा, जन्म नक्षत्र, दुःस्वप्न दर्शन अथवा ग्रह पीड़ित होने पर प्रयाग, नैमिष, कुरुक्षेत्र, अर्बुद, गंगा, यमुना या सिंधु सागर संगम स्थल में करना चाहिए । इसी के दान द्वारा ये पुण्य नदियाँ प्रशस्त हुई हैं इसमें संदेह नहीं । राजन् ! अपने घर, देवालय उपवन, सरोवर अथवा जहाँ कहीं रुचिकर हो, उसी पवित्र देश में सविधान प्रथम भूमिशोधन करके बारह हाथ का सुशोभन मण्डप बनाये, जो पूर्वोत्तर की ओर निम्न मनोहर स्तम्भों तथा हरी शाखाओं से विभूषित हो उसके मध्य में पाँच हाथ की अलंकृत वेदी का निर्माण करके उसके ऊपर वितान (चँदोवा) लगाये और पुरुष महात्माओं से विभूषित करे । प्रथम दिन उसके मध्य भाग में हिरण्यगर्भ की कल्पना करें । मैं उनका प्रमाण और रूप बता रहा हूँ, जो स्थण्डिल (ऊँची भूमि) से उत्पन्न हुए है । सर्वप्रथम यजमान को चाहिए वस्त्राभूषणों द्वारा शिल्पी (राजगीर) की अर्चना करके ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिवाचन कराये अनन्तर यज्ञारम्भ करें । विद्वान् को चाहिए यथाशक्ति सुशुद्ध सुवर्ण द्वारा चौंसठ अङ्गुल की प्रतिमा बनाये । उसके चौथाई भाग से वदन (मुख) की रचना करे, जो मूल भाग के अर्द्ध भाग में विस्तृत वर्तुल (गोलाकार) हो । कणिकाकार और चारु ग्रन्थियों से रहित उस (प्रतिमा) को ढाँकने के लिए दो अङ्गंल अधिक प्रमाण का एक विधान बना कर दश अस्त्र सुवर्णनाल, सूर्य मूर्ति, कांचन, पट्टी और समस्त साधनों समेत दान, सूची (सूई), छुरा का सुवर्ण द्वारा निर्माण कराये । उसके पार्श्व भाग में हेमदण्ड कमण्डलु, और छत्र वज्र वैदूर्य भूषित चरणपादुका स्थापित करे । राजन् ! इस प्रकार के लक्षण युक्त उस हिरण्यगर्भ-कलश को प्रदक्षिणा पूर्वक उच्चस्वरेण ब्रह्म घोष, शंख, तुरही की ध्वनि करते हुए हांथी, गाड़ी अथवा ब्राह्म रथ द्वारा मण्डप में लाये । द्रोण प्रमाण तिल के उपर वेदी के मध्भाग में अधिवास कराते हुए कुंकुम और सुगन्ध का लेप करके स्वच्छ दो रेशमी वस्त्र से ढाँक दे उसके चारों ओर पुष्प माला से भूषित करते हुए भक्तिपूर्वक धूप से धूपित करने के अनन्तर निम्नलिखित मंत्रों से अभ्यर्चन करे — भूर्लोकप्रमुखालोकास्तव गर्भे व्यवस्थिताः ॥ ब्रह्मादयस्तथा देवा नमस्ते भूवनोद्भव । नमस्ते भुवनाधार नमस्ते भुवनेश्वर ॥ नमो हिरण्यगर्भाय गर्भे यस्य पितामहः । (उत्तरपर्व १७६ । ३०-३२) ‘भुवनोद्भव ! भूलोक आदि प्रमुख लोक और ब्रह्मादि देवगण तुम्हारे ही भीतर सुव्यवस्थित हैं अतः आप को नमस्कार है, भुवनाधार को नमस्कार है, अतः आप को नमस्कार है । जिसके गर्भ में पितामह (ब्रह्मा) स्थित हैं उन हिरण्यगर्भ को नमस्कार है । इस भाँति पूजन पूर्वक उस रात्रि अधिवास कराये । वेदी के चारों ओर चार चौकोर कुण्ड का निर्माण कर उसमें हवन करे । चार चारणिक ब्राह्मण जो मंत्र पारगामी और पूज्य संयमी हों, मौन होकर हवन कार्य सम्पन्न करें । उन सभी ब्राह्मणों को सर्वाभरणभूषित और नवीनवस्त्र से सुसज्जित रहना चाहिए । गंध पुष्पादि से पूजित करते हुए उन्हें दो-दो ताम्र पात्र भी अर्पित करना चाहिए । वेदी के पूर्व उत्तर (ईशान कोण) में ग्रहों की बनाकर उस पर ग्रहगण, लोकपाल, ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की सुवर्ण प्रतिमा की अर्चना पुष्प, धूप एवं अनुलेपादि द्वारा सुसम्पन्न करते हुए पताकाओं और तोरणों से अलङ्कृत उस मण्डप में प्रत्येक द्वार पर रत्नजटित दो-दो कलशों की स्थापना करे । तुला पुरुष के मंत्रों द्वारा लोकपालों को बलि प्रदान करने के अनन्तर उस हवन कर्म में प्रशस्त पलाश की समिधा, इन्द्र देवता वाली चरु, तिल, गो घृत को एकत्र कर प्रथम नामलिंगात्मक मंत्र और व्याहृतियों द्वारा आहूति प्रदान करें । मनीषियों ने बीस सहस्र संख्या की आहुति इस हवन कर्म में समर्पित करना बताया है । अनन्तर यजमान पर्व काल में भक्तिपूर्वक स्नानकर श्वेत वस्त्र धारणकर हिरण्यगर्भ का पीजन करने के बाद इस प्रकार प्रार्थना और प्रदक्षिणा करे — “नमो हिरण्यगर्भाय विश्वगर्भाय वै नमः । चराचरस्य जगतो गृहभूताय ते नमः ।। मात्राहं जनितः पूर्वं मर्त्यधर्मा सुरोत्तम । त्वद्गर्भसम्भवादद्य दिव्यदेहो भवाम्यहम् ।।” (उत्तरपर्व १७६ । ४२-४३) शुक्लाम्बर-हिरण्यगर्भ को नमस्कार है, विश्वगर्भ को नमस्कार है और चराचर जगत् के गृहभूत को नमस्कार है । सुरोत्तम ! सर्वप्रथम माता द्वारा मैं मनुष्यधर्मा होकर उत्पन्न हुआ था, किन्तु आज पुनः तुम्हारे गर्भ से सम्भूत होकर मैं दिव्य देह हो जाऊँ ।’ ऐसा कहते हुए भक्ति श्रद्धा सम्पन्न यजमान प्रदक्षिणा पूर्वक दूध, दही, घी पूर्ण उस गर्भ को मण्डप में प्रवेश कराये । धर्मराज की सुवर्ण प्रतिमा बायें हांथ और सूर्य की सुवर्ण प्रतिमा दाहिने हाथ में मुट्ठी बांधे, जानु (घुटने) के भीतर सिर गले और पाँच श्वास तक शिव (कल्याण) चिंतन करते हुए स्थित रहे । अनन्तर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को हिरण्यगर्भ का गर्भाधान, पुंसवन, सीमनोत्पन्नादि स्नेह संस्कार सुसम्पन्न करना चाहिए । नृपसत्तम ! अनन्तर आचार्य यजमान को उठाये और जब तक दक्षिणा की सुवर्ण प्रतिमा का स्पष्ट दर्शन न हो तब तक यजमान किसी व्यक्ति का मुख न देखे । पश्चात् ब्रह्मघोष पूर्वक स्नान करने के अनन्तर आठ ब्राह्मण, जो सुवर्ण भूषित हों, सुवर्ण, चाँदी, ताँबा ये मिट्टी के कलशों द्वारा, जो दधि, अक्षत से चित्र विचित्र, आम के पल्लव से भूषित, कण्ठ में पुष्प माला, व्रण रहित एवं दृढ़ हो चतुष्क के मध्य व्रण रहित पीठासन पर स्थित यजमान का ‘देवस्य त्वा० ‘ मंत्रोच्चार पूर्वक अभिषेक करते हुए कहें कि— अद्य जातस्य तेऽङ्गानि अभिषेक्ष्यामहे वयम् । दिव्येनानेन वपुषा चिरं जीव सुखी भव ।।” (उत्तरपर्व १७६ । ५४) ‘आज उत्पन्न हुए तुम्हारे अंगों का हम लोग अभिषेक कर रहे हैं अतः इस दिव्य शरीर द्वारा चिरजीवन प्राप्त करते हुए सुखी रहो ।’ इस भाँति ध्यान मग्न यजमान के अभिषेक हो जाने पर यजमान संकल्पपूर्वक हिरण्यगर्भ-प्रतिमा का दान करे । उन ऋत्विजों की प्रेमार्चा करते हुए उन्हें या उनकी आज्ञा से अनेकों को वितरण अथवा यज्ञ का समस्त साधन गुरु को सादर समर्पित करे । चरणपादुका, उपानह, छाता, चामर, पात्र, अन्य विप्र या सभासदों को अर्पित करें । पुनः विशेषदान दीन, अंधे, कृपण आदि व्यक्तियों को यथेच्छ अन्न दान यज्ञ समाप्ति करता रहे । इस विधान द्वारा दान करने वाला मनुष्य समस्त कुल को तारते हुए पाँच योजन के विस्तृत एवं परमोत्तम विमान द्वारा उस देवलोक की यात्रा करता है, जो बावली, कूप, सरोवर आदि जलाशयों से अलंकृत, सैकड़ों उपवन और पद्माकर से सेवित, सैकड़ों प्रासाद (महलों के कोठे) से आच्छन्न है एवं जहाँ सैकड़ों दिव्याङ्गनाएँ सेवा करने के लालायित रहती है, वीणा, वेणु, मृदङ्ग, की ध्वनियों का महान् कोलाहल आरम्भ रहता है । राजेन्द्र ! उसकी भूमि मणिमय, दिव्य एवं शुभ होती है, विचित्र वेदियों से सुशोभित तथा भास्कर के समान उसकी प्रभा है । विश्वकर्मा ने निर्माण के समय उसमें सैकड़ों स्तम्भ लगाये हैं, विचित्र पताकाओं और बच्चों से वह नितान्त विभूषित है । ऐसे परमोत्तम विमान पर बैठ कर विद्याधरगणों समेत इन्द्र लोक पहुँच कर इन्द्र के साथ वह आनन्दानुभव करता है । सौ मन्वन्तरों के समान तक वहाँ सुखानुभव करने के पश्चात् वह इस कर्म भूमि में जन्म ग्रहण कर अपने दिव्य पराक्रम द्वारा निखिल जम्बूद्वीप का उपभोग करता है । दश जन्म तक धार्मिक सत्यशील, ब्रह्मतेजा, गुरु वत्सल एवं नीरोग राजा होता है। भक्तिपूर्वक इस रहस्य का श्रवण करने वाला भी पापविनाश पूर्वक सौ वर्ष तक सुरलोक में पूजित होता है । इस प्रकार हिरण्य (सुवर्ण) रचित गर्भ में प्रविष्ट होकर पुनः (गर्भाधानादि) संस्कार सम्पन्न होकर निकलने पर वह मनुष्य भक्तिपूर्वक श्रेष्ठ ब्राह्मण को उसे अर्पित करने पर सूर्य की भाँति दिव्य देह प्राप्त कर सुशोभित होता है । (अध्याय १७६) Related