January 14, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १७७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १७७ सुवर्ण निर्मित ब्रह्माण्डदान का वर्णन श्रीकृष्ण बोले — नृपशार्दूल ! प्राचीन काल में अगस्त्य जी ने दोनों का परमोत्तम विधान बताया है, मैं तुम्हें वही बता रहा हूँ, सुनो ! राजन् ! जिस विधान द्वारा दान देने पर कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों भाँति के पाप विनष्ट होते हैं तथा मंगलों में परम मङ्गल, समस्त दानों में वह परमोत्तम धन्य, यश और आयुवर्द्धक तथा शत्रुओं को भयप्रद हैं । ब्रह्माण्ड की सर्वलक्षण सम्पन्न काञ्चन प्रतिमा बनाये । जिसमें देव, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, सर्प, राक्षस, नदी, समुद्र, पर्वत, सैकड़ों उत्तम विमान, अप्सराएँ आठों दिग्गज, मध्य में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, सूर्य शिखर में और उमालक्ष्मी आदि स्थित हों । राजन् ! उसके अंग में चौदहों भुवन की रचना करे ब्रह्माण्ड निर्माण एवं दानकी ससंकल्प पूरी विधि दानसागर, दान-मयूख, दानचन्द्रिका, दानकल्पतरु में है । अधिक जानने की इच्छा रखनेवाले सज्जनों को इसे वहीं देखना चाहिये । मत्स्यपुराण अध्याय २७६ में भी यह अध्याय इसी प्रकार प्राप्त होता है ।। वह सौ अंगुल वा लम्बा चौड़ा हो । उसकी रचना कम-से-कम बीस पल से सहस्र पल सुवर्ण तक की करनी चाहिए । उसके दो खण्ड (भाग) बनाते समय उसे उठाकर (गोलाकार) बनाये । इस भाँति शिल्पी द्वारा उस ब्रह्माण्ड की रचना कराये, जो समस्त कामनाओं को सफल करता है । किसी अयन-संक्रान्ति, विषुवयोग, चन्द्र सूर्य ग्रहण या अन्य किसी पुण्य अवसर पर श्रद्धा भक्ति समेत उसे पुष्प मण्डप में स्थापित कर द्रोण प्रमाण तिल के ऊपर रखकर कुंकुम चन्दनचर्चित करे । दो वस्त्र से आच्छन्न कर पुष्प गन्ध से अधिवासित करते हुए उसके सभी दिशाओं में पूर्ण कलशों की स्थापना करे द्रोण प्रमाण अट्ठारह प्रकार के धान्यों को एकत्र कर घर या मण्डप में उस मूर्ति की स्थापना करे । चरणपादुका, उपानह, छत्र, पात्र, आसन, दर्पण, पयस्विनी गौ आदि सभी सामग्रियों को भी वहाँ रखे । एक हाथ का विस्तृत कुण्ड बनाये, जिसमें चार चारणिक श्रेष्ठ ब्राह्मण समस्त भूषित एवं नवीन वस्त्र धारण कर हवन कार्य सम्पन्न करें । उस यज्ञ में उपाध्याय समेत चार अन्य ब्राह्मण, पुरोहित और छठां राजा रहता है । ग्रहयज्ञ के विधान द्वारा ग्रहों की आहुति प्रदान करके ब्रह्मा, विष्णु, एवं शिव के लिए उनके नामों के उच्चारण करते हुए तिल की आहुति देनी चाहिए । नृप ! पश्चात् महाव्याहृतियों द्वारा दश सहस्र संख्या की आहुति अर्पित करते हुए बीच-बीच में ब्राह्मणों द्वारा रुद्र जाप होना चाहिए । सर्व की समाप्ति होने पर स्नान-शुक्लाम्बर धारण एवं पवित्रता पूर्ण यजमान भक्ति पूर्वक पुष्पाञ्जलि लेकर ब्रह्माण्ड की अर्चा करे — “नमो जगत्प्रतिष्ठाय विश्वधाम्ने नमोऽस्तु ते ॥ वाङ्मनोऽतीतरुपाय ब्रह्माण्ड शुभकृद्भव । ब्रह्माण्डोदरदर्तीनि यानि सत्त्वानि कानिचित् ॥ तानि सर्वाणि मे तुष्टिं प्रयच्छन्त्वतुलां सदा । ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च लोकपालास्तथा ग्रहाः ॥ नक्षत्राणि तथा नागा ऋषयो मरुतस्तथा । सर्वे भवन्तु सन्तुष्टा सप्तजन्मान्तराणि मे ॥” (उत्तरपर्व १७७ । १९-२२) (अपने में) जगत् स्थापित करने वाले को नमस्कार है, विश्व गृह को नमस्कार है । ब्रह्माण्ड ! आप वाङ्मय के भीतर निमग्न हैं एवं आप का जन्म शुभ कारक है । और ब्रह्माण्ड के उदर में जितने सत्व हैं उसे समेत मुझे अतुलनीय तुष्टिप्रदान करने की कृपा करें । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लोकपाल, ग्रह, नक्षत्र, नाग, ऋषि और मरुत गण आदि मेरे सात जन्म तक सन्तुष्ट रहें। इस प्रकार कहते हुए समस्त कामनाओं को सफलप्रद वह ब्रह्माण्ड धन दक्षिणा रामेत किसी ब्राह्मण को अर्पित करे । नरोत्तम ! इस विधान द्वारा उसके दान करने जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, उस मैं बता रहा हूँ, सुनो । भारत ! आदि युग में सुद्युम्न नामक एक राजा था, जो दस सहस्र हाथी के समान बलवान, श्रीमान्, एवं अनेक सेवक गणों से सम्पन्न था । तीस सहस्र वर्ष निष्कण्टक राज्य का सुखानुभव करने के उपरान्त राजा राज सिंहासन पर अपने पुत्र को प्रतिष्ठित कर स्वयं जंगल चले गये । वहाँ घोर वन में पहुँच कर राजा ने कठिन तप करना आरम्भ किया । अध्यात्म गति के तत्त्व का निपुणवेत्ता उस राजा ने कर्म-काण्ड का विसर्जन करते हुए बहुत दिनों के अनन्तर इस लोक का त्याग किया । अनेक भाँति के वाद्यध्वनियों से भूषित उस उत्तम विमान पर बैठकर वह राजा इन्द्र लोक के ऊपर ब्रह्म लोक चला गया । वहाँ देवगणों समेत ब्रह्मा ने आसन प्रदान कर उस का स्वागत किया, जो दिव्य, सुवर्ण से चित्र विचित्र और रत्नों से अलंकृत था । नृपोत्तम ! इस प्रकार के उत्तम लोक में रमण करते हुए वह राजा अनुदिन दिव्य भोग से वञ्चित होने लगा । वहाँ रहते हुए भी राजा का शरीर संतप्त होने लगा । नरश्रेष्ठ! भूख और प्यास से व्याकुल होने पर उसने हाथ जोड़ कर ब्रह्मा से कहा — भगवन् ! यह ब्रह्मलोक समस्त दोषों से रहित है किन्तु यहाँ रहते हुए भी मुझे भूख-प्यास की बाधा हो रही है, देव ! ब्रह्मलोक पहुँचने पर भी मेरे किस कर्म के दुष्परिणामस्वरूप यह क्षुधा निवृत्त नहीं हो रही है, यह संशय दूर करने की कृपा करें । ब्रह्मा बोले — पार्थिव ! राज्य करते हुए तुमने अपने शरीराङ्गों को ही पुष्ट किया अध्यात्मवादी होने के नाते कोई महान् दान नहीं किया । दान को बन्धन समझ कर उसे सम्पन्न नहीं किया इसलिए केवल ज्ञान द्वारा तुम्हें ब्रह्म पद प्राप्त हुआ है और दान न करने से क्षुधा । राजा बोले — भगवन्, परमेश्वर ! मेरी तृषा का अपहरण किस प्रकार होगा, उपदेश द्वारा बताने की कृपा करें । ब्रह्मा बोले — राजन् ! पुन: पृथ्वी पर जाकर सर्वकामप्रद ब्रह्माण्डदान किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को अर्पित करो, उससे तुम्हें तृप्ति होगी । उनके ऐसा कहने पर राजा मर्त्य लोक में आकर सविधान ब्रह्माण्ड का दान ब्राह्मणों को अर्पित किया, जिससे स्वर्ग जाने पर उसे शाश्वती तृप्ति हुई । इस भाँति इस महादान का जो फल होता है मैंने वह तुम्हें सुना दिया । ब्रह्माण्ड का दान करने वाला चराचर जगत् का दान किया इसमें संदेह नहीं । पूर्व और पर की सात सात पीढ़ियों का वह उद्धार करता है । इस दान के प्रभाव से स्त्री पुरुष छत्तीस मन्वन्तरों के समयं तक वहाँ (ब्रह्मलोक में) सुखानुभद करके पुनः धार्मिक मनुष्य कुल में जन्म ग्रहण करता है । दरिद्र, व्याधि, और वियोग दुःख उसे कभी नहीं होता है। भक्तिपूर्वक भक्तों को इसे सुनने सुनाने वाला भी सद्गति प्राप्त करता है तो दान करने वाले को क्या कहा जाये। इस प्रकार ब्रह्माण्ड के सुवर्ण निमित्त दो खण्ड बनाकर, जिसमें समस्त पर्वत, दिशाएँ, सागर, सरोवर आदि बने रहते हैं, गुणी एवं श्रेष्ठ दश ब्राह्मणों को अर्पित करने वाले को ब्रह्मपद प्राप्त होता है । (अध्याय १७७) Related