January 14, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १८० ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १८० हाथी और घोड़े के रथदान विधि का वर्णन महाराज युधिष्ठिर बोले — भगवन् ! कृष्ण ! उन शूरवीर क्षत्रियों और धर्म भीरु अन्य पुरुषों को ग्रह पीडा से पीडित अथवा दुःस्वप्न दर्शन होने पर किस पवित्र एवं शुभ दान को सुसम्पन्न करना चाहिए, महामते ! इस लोक तथा परलोक में जो समस्त कामनाओं को सफल करे, ऐसा कोई विशेष विशिष्ट दान बताने की कृपा करें । श्रीकृष्ण बोले — भूपाल ! मैं तुम्हें वह परमोत्तम एवं कल्याणकारी दान बता रहा हूँ, जो राजाओं के लिए विशेष हितकर है । राजेन्द्र ! यद्यपि शास्त्रों में अनेक भाँति के गोदान आदि प्रधान दान बताये गये हैं इसमें संशय नहीं हैं, कितु मैं तुम्हें बता रहा हूँ, वह प्रधान दान बता रहा हूँ, जो शुक्राचार्य ने वैरोचन बलि को बताया था । शुक्र बोले — दैत्यपते ! मैं तुम्हें वह दान बता रहा हूँ, जिससे समस्त पाप, आधि व्याधि, भयानक, ग्रहपीड़ा के विनाशपूर्वक परमोत्तम पुण्य की प्राप्ति होती है । कार्तिकपूणिमा, अयन-संक्रान्ति, चन्द्र-सूर्य ग्रहण, विषुवयोग, सूर्य संक्रान्ति अथवा किसी पुण्य दिन क्रोध रहित इन्द्रिय संयम पूर्वक काष्ठ का बना हुआ रथ स्थापित करे, जो दिव्य हेमपट्ट से भूषित, दृढ़ (मूढ़ी आरागज आदि) सर्वाङ्ग सम्पन्न चक्र (पहिया) और जूएँ रस्सी आदि से युक्त हो । सुवर्ण की ध्वजाओं तथा श्वेत एवं अन्य रंग की पताकाओं से सुसज्जित हो । किसी शुभ दिन में नदीतट, गोशाला या गृहाङ्गण में स्थापित रथ के पूर्व के भाग में उत्तम वेदी की रचना करके वह पुराण वेद देवता, एवं विनयविनम्र आचार शील यजमान उस वेदी पर ब्रह्मादि देवों को जहाँ प्रतिष्ठित करता है में बता रहा हूँ । वेदी के मध्य भाग में ब्रह्मा को प्रतिष्ठित कर प्रणव (ओंकार) पूर्वक उनकी अर्चना करे । उत्तर की ओर विष्णु को स्थापित कर पुरुष सूक्त द्वारा पूजित करे । दक्षिण में रुद्र को स्थापित कर रुद्र सूक्त से अर्चना करे । उसी भाँति सूर्यादि प्रमुख ग्रहों की सविधि अर्चना करके पुष्प, गंध, भक्ष्य, फल, दीपमाला, गंध पूर्णपुष्प, श्वेत वस्त्र चन्दन आदि द्वारा शंख भेरी, मृदङ्ग आदि वाद्यों और उस महान् ब्रह्मघोष के कोलाहल में रथादि की पूजा सुसम्पन्न करें । राजेन्द्र ! उसकी अग्नि दिशा में एक हाथ का कुण्ड बनाकर चार चारणिक ब्राह्मणों को जो वेदमर्मज्ञ हों, वस्त्राभूषण से पूजनोपरांत वहाँ नियत करे । महाराज ! चार अथवा आठ अन्य ब्राह्मणों के अतिरिक्त एक गुरु भी रहना चाहिए । हवन के समस्त साधन तिल घृत आदि एकत्र कर सविधि अग्निकार्य (हवन) सम्पन्न करते हुए प्रथम आज्य भाग आधार की आहुति प्रदान करें । अनन्तर विष्णु, शितिकण्ठ शिव को पूर्वोक्त मन्त्रों द्वारा और ग्रहों को ग्रहयज्ञ के मन्त्रों से आहुति प्रदान करनी चाहिए। इस प्रकार यजमान ब्राह्मणों समेत यज्ञविधान सुसम्पन्न कर रथ में लक्षण-सम्पन्न दो गजों को युक्त करे, जो चित्र-विचित्र वस्त्रों से आच्छन्न, शुभ कक्ष भाग, घंटाभूषित, हेमपट्ट, सुन्दर तिलक एवं शंख चामर से सुशोभित दिव्य मोतियों से सुसज्जित दिव्य अंकुश (गजवांक) से युक्त, महामात्य (पीलवान) समेत और सर्वाभरण भूषित हों । इस प्रकार उस सुसज्जित रथ पर वेदाध्यायी ब्राह्मण को बैठाये, जो सुवर्ण माला, अङ्गद (वाहुभूषण), कुण्डल, अंगूठी, चोलक, छत्र, वस्त्र, आयुध सम्पन्न तरकस बाँधे, हाथ में धनुष, अनेक चर्म (ढाल) खड्ग धेनुक से आबद्ध और हार सुशोभित हो । अनन्तर वह बुद्धिमान् यजमान शुक्लवस्त्र कर पवित्रता पूर्ण पुष्पाञ्जलि लिए रथ की प्रदक्षिणा करते हुए कहे — कुमुदैरावणौ पद्मः पुष्पदन्तोऽथ वामनः । सुप्रतीकोऽञ्जनः सार्वभौमोऽष्टौ देवयोनयः ॥ तेषां वंशप्रसूतौ तु बलरूपसमन्वितौ । तद्युक्तरथदानेन मम स्यातां वरप्रदौ ॥ रथोऽयं यज्ञपुरुषो ब्राह्मणोऽत्र शिवः स्वयम् । ममेभरथदानेन व प्रीयेतां शिवकेशवौ ॥ (उत्तरपर्व १८० । २९-३१) ‘कुमुद, ऐरावण (ऐरावत), पद्म, वामन, सुप्रतीक, अञ्जन तथा सार्वभौम — ये आठ गज देवयोनि में उत्पन्न हैं । इनके वंश में उत्पन्न दो गज अत्यन्त बलवान् और रूपवान् हैं । इस रथ में इनको नियोजित कर देने से और गजयुक्त रथका दान करने से ये गज मेरे लिये वर प्रदान करनेवाले हों । यह रथ यज्ञपुरुष साक्षात् विष्णुरूप है और इसपर बैठे ब्राह्मण शिवस्वरूप हैं । इसलिये इन गजों से युक्त रथ के दान करने से भगवान् विष्णु तथा शंकर मुझपर प्रसन्न हों ।’ महाभाग ! इस भाँति के मंत्रोच्चारण पूर्वक बार-बार पूजन करने के उपरान्त उस पर ब्राह्मण को स्थापित करे, जो वेदानुयायी, एकपत्नीव्रती शांत, वेद और वेदाङ्ग का मर्मज्ञ, पञ्चाग्नि सेवी, अव्यङ्ग एवं व्याधि रहित हो । पश्चात् रथस्थित उस ब्राह्मण श्रेष्ठ की परिक्रमा करके द्वार तक उसका अनुगमन कर, अनन्तर प्रणाम कर अपने घर आये । उस यज्ञ की समाप्ति होने पर दीन, अंधे, जड़ और दुर्बल (निर्धन) आदि प्राणियों को अनेक भाँति के वस्त्र, गोदान एवं भोजनादि द्वारा सम्मानित करे । इस प्रकार इसी विधान द्वारा उत्तम रथ की कल्पना करके कुण्ड, मण्डप, उसके संभार भूषण आच्छादन आदि, वही तिल आदि होम द्रव्य और वही हवन के मंत्र भी रहते हैं । राजन् ! किन्तु इस, अश्वरथ में जो विशेषता है वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ! शुभ लक्षण वाले अश्वों को खलीन (लगाम) आदि वस्तुओं से सुसज्जित, चित्रविचित्र वस्त्र और कण्ठाभरण से भूषित एवं लगाम आदि की सुन्दर रस्सियों से युक्त करते हुए उन्हें उस उत्तम रथ मे युक्त करे । पुनः दाता उस रथ की प्रदक्षिणा करते हुए इस मंत्र का उच्चारण करे — “नमोऽस्तु ते वेदतुरङ्गमाय त्रयीमयाप त्रिगुणात्मकाय । सुदुर्गमार्गे सुखपानपात्रे नमोऽस्तु ते वाजिधराय नित्यम् ॥ रथोऽयं सविता साक्षाद्वेदाश्चामी तुरङ्गमाः । अरुणो ब्राह्मणश्चायं प्रयच्छन्तु सुखं मम ॥ (उत्तरपर्व १८० । ४०-४१) ‘वेदरूपी तुरुङ्ग को नमस्कार है, जो (वेद) मयी एवं त्रिगुणात्मक हैं तथा सुदुर्गमार्ग में सुखपान कराने वाले बाजिधर को नित्य नमस्कार है । यह रथ साक्षात् सविता (सूर्य) तुरङ्गम वेद और यह ब्राह्मण अरुण है । अतः मुझे सुख प्रदान करने की कृपा करें।’ ऐसा कहकर उस उत्तम रथ पर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिष्ठित कर उनके द्वार तक अनुगमन करे । इस विधान द्वारा अश्वमेध रथ का, जो वाहरथ राज्य कहा जाता है, दान करने वाले विद्वान् को जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है, मैं बता रहा हूँ, सुनो ! समस्त पापों से मुक्त होकर सर्व व्याधिहीन वह प्राणी सैकड़ों मन्वन्तरों के समय तक सम्पूर्ण भोगों के उपभोग करते हुए स्वर्ग में सूर्य के समान प्रकाश पूर्ण विमान पर अप्सराओं के साथ विहार करता है तथा स्वर्ग में वह श्रीमान् सदैव यथेच्छ भोग करता है । अनन्तर पुण्य क्षीण होने पर इस पृथ्वी पर धार्मिक राजा होता है, जो पुत्र-पौत्रों समेत चिरजीवी और अतिथि प्रिय रहता है । नृप ! एक गज से भी गजरथ और एक ही अश्व से अश्वरथ होता है ऐसा वेद वादियों का कथन है । दोनों के दानमंत्र एक ही हैं और फल बता रहा हूँ – परमोत्तम रथ का निर्माण कराकर, जो सुन्दर धुरा, चक्र मूड़ी आदि साधनों से सम्पन्न और कनक पट्टों द्वारा उसके अंग चित्रविचित्र बनाये रहते हैं, उसमें मदमत्त गज या अश्व जोत कर उसका दान करने वाला उत्तम स्यन्दन द्वारा सुरराज (इन्द्र) लोक की प्राप्ति करता है । (अध्याय १८०) Related