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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १८१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १८१
कालपुरुषदान का वर्णन

युधिष्ठिर बोले — यदूत्तम ! कृष्ण ! मुझे दान बताने की कृपा करें, जो अत्यन्त मांगलिक, पवित्र एवं समस्त पापों का विनाशक हो । माधव ! इस संसार सागर के तारने में एक मात्र आप ही कारण हैं, क्योंकि इस लोक में धर्माधर्म का परिज्ञान आप से अधिक अन्य किसी को है ही नहीं ।

श्रीकृष्ण बोले — यदि तुम्हें इसके जानने के कौतुक है तो मैं यद्यपि अनेक भाँति का दान तुम्हें सुना चुका हूँ किन्तु फिर भी कह रहा हूँ सुनो ! मैंने जितने प्रकार के दान तुम्हें बताये और बताऊँगा वे महान् अर्थ द्वारा सिद्ध होते हैं, किन्तु वे महान् फल भी प्रदान करते हैं । om, ॐपार्थ ! काम्य दान विधान को सुसम्पन्न करने में सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए मुनियों ने तभी उन्हें फलदायक बताया है अन्यथा (अविधि होने पर) वे भय उत्पन्न करते हैं । समस्त दानों में सौ निष्क का दान विधान उत्तम बताया गया है, उसका आधा मध्यम और उसका भी आधा अवर (निम्न कोटि) का बताया गया है । इसी प्रकार वृक्ष, रथ, धेनु, कृष्णाजिन के दान विधान में भी जानना चाहिए । अशक्त प्राणी के लिए महान अत्यन्त कष्ट दायक है क्योंकि पाँच सुवर्ण (मुद्रा) से कम का दान विधान ही नहीं है । इसलिए इससे न्यून का दान करने वाला और उसका प्रतिग्राही (ग्रहण करने वाला) दोनों दु:ख शोक से व्याकुल रहा करते हैं । सर्वप्रथम मैं तुम्हें कालपुरुषदान, अनन्तर सप्तसागरदान और इसके उपरान्त महाभूत घटदान बताऊँगा । राजन् ! (ये उपरोक्त तीन दान), अर्घ्यदान, आत्मप्रतिकृति (प्रतिमा), सुवर्ण के अश्व, सुवर्ण के अश्वरथ, कृष्णाजिन, विश्वचक्र और सुवर्ण के गजरथ — ये दस दान बताये गये हैं । पार्थिवसत्तम ! इन्हीं दानों को सुसम्पन्न करने कराने के लिए स्वयं बुद्धि रखनी चाहिए । जिस वस्तु वा दान किया जाता है, वह नष्ट न हो कर दिन प्रतिदिन समृद्ध होता है (अर्थात् बढ़ता है) जिस प्रकार कूप खोदने पर उसका जल बढ़ता ही है ।

पाण्डुनन्दन ! इसलिए किसी पुण्य दिन शुभ समतल भूमि पर चौथ, चतुर्दशी, विष्टि में कृष्ण-तिल द्वारा पुरुष की रचना करे जिसके चाँदी के दाँत और सुवर्ण के नेत्र हों और हाथ में तलवार, दीर्ण, कान में जपा-कुसुम का कुण्डल, रक्तवस्त्र धारण किये, मालाभूषित, शंख माला अलंकृत, तीक्ष्ण खड्ग धनुषबाण, लम्बी कटि, उपानहयुक्त पार्श्व में कृष्ण कम्बल और बायें हाथ में माँस पिण्ड लिये हुए । इस भाँति के मनुष्य की रचना करके हाथ में पुष्पाञ्जलि गंध, कुसुम, नैवेद्य, आदि द्वारा पूजनोपरांत ‘त्र्यम्बक० ‘(यजु० ३ । ६०) मंत्र द्वारा तिल घृत की आहुति प्रदान करे । अपने गृह्यसूत्र के विधान द्वारा एक सौ आठ आहुति प्रदान करने के उपरांत यजमान प्रसन्नतापूर्ण इस मंत्र का उच्चारण करे —

सर्वं कलयसे यस्मात्कालस्त्वं तेन भण्यसे ।
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां त्वमसाध्योऽसि सुव्रत ॥
पूजितस्त्वं मया भक्त्या प्रार्थितश्च तथा सुखम् ।
यदुच्यते तव विभो तत्कुरुष्व नमो नमः ॥
(उत्तरपर्व १८१ । २१-२२)
सुव्रत ! सभी को नष्ट कर देने के नाते ही तुम्हारा नाम काल हुआ है, इसीलिए तुम विष्णु, ब्रह्मा, एवं शिव के लिए भी असाध्य हो । विभो ! भक्तिपूर्वक मैने आप की पूजा और प्रार्थना की है अतः सुख प्रदान करने की कृपा करें आप को बार-बार नमस्कार है ।’

इस प्रकार पूजनकर ब्राह्मण को अर्पित करे । वस्त्राभूषण द्वारा ब्राह्मण की पहले अर्चा कर लेनी चाहिए । यथाशक्ति दक्षिणा तथा नमस्कार करके विसर्जन करे । इस भाँति सविधान दान करने पर अपमृत्यु और व्याधिभय नहीं होता है अपितु वह अव्याहृत ऐश्वर्य की प्राप्ति पूर्वक सम्पूर्ण बाधाओं से रहित रहता है । निधन होने पर सूर्य भवन की प्राप्ति होती है । पुण्य क्षीण होने पर यहाँ धार्मिक राजा होता है जो सतत श्री और पुत्र पौत्र से युक्त होता है । इस प्रकार काल पुरुष का सविधान अर्चा कर किसी ब्राह्मण को अर्पित करने पर शुभाशुभ फल का भोग करने वाला यह देही (जीव) सकल दोषमय और रोगपूर्ण इस शरीर से बन्धन मुक्त हो जाता है ।
(अध्याय १८१)

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