January 15, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १८५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १८५ आत्मप्रतिकृति दान विधि का वर्णन श्रीकृष्ण बोले — मैं तुम्हें आत्मप्रतिकृति (अपनी प्रतिमा) का दान जो मान बढ़ाने वाला है, पहले किसी को बता भी चुका हूँ, इस समय बता रहा हूँ । पार्थ ! मुनियों ने सज्जनों के निमित्त उस दान का काल भी बताया है क्योंकि पुण्य समय पुण्य द्वारा ही प्राप्त होता है न कि जीवित ही रहने पर । नृप ! लोहद्वारा अपनी भव्य आकृति का निर्माण कराये, जो अभीष्ट वाहन युक्त अलंकारभूषित, इष्ट जनसमेत, समस्त साधन सम्पन्न, वह पटी वस्त्र से आच्छन्न, रत्न भूषित, कुंकुम से अनुलिप्त, कपूर अगरु से सुवासित हो । स्त्री यदि दान करना चाहती है तो अपने हाथों उसे शयन शय्या पर स्थापित कराकर और जो कुछ अन्य अभीष्ट वस्तु हो तथा स्त्रियों के शरीर के उपकरण जो वस्तु हो, उन सभी को उसके पार्श्व भाग में स्थापित करते हुए अन्य आवश्यक वस्तुओं का विशेष ध्यान रखे । सभी वस्तुओं को वहाँ अपने-अपने स्थान रख कर लोकपाल, गृह, देवी, विनायक देवों की अर्चना के अनन्तर शुक्ल वस्त्रधारण किये हाथ में पुष्पाञ्जलि लिए ब्राह्मण के सम्मुख इन मन्त्रों का उच्चारण करे — आत्मनः प्रतिमा चेयं सर्वोपकरणैर्युता ॥ सर्वरत्नसमायुक्ता तव विप्र निवेदिता । आत्मा शंभुः शिवः शौरिः शक्रः सुरगणैर्वृतः ।। तस्मादात्मप्रदानेन ममात्मा सुप्रसीदतु । (उत्तरपर्व १८५ । ९-११) विप्र ! सर्वसाधन सम्पन्न और समस्त रत्नों मे भूषित यह अपनी प्रतिमा तुम्हें अर्पित की गयी है, आत्मा ही शम्भु, शिव, देवों समेत इन्द्र और शौरि है अतः इस आत्मप्रदान से मेरी आत्मा प्रसन्न हो युधिष्ठिर ! ऐसा कहकर वह प्रतिमा ब्राह्मण को अर्पित करे । ब्राह्मण भी ‘कोऽदातत्कस्मा० (यजु० ७ । ४८)’ इस मन्त्र के उच्चारण पूर्वक उसका ग्रहण करे । अनन्तर प्रदक्षिणा और नमस्कार करके विसर्जन करे । राजेन्द्र ! इस विधान द्वारा दान करने पर उस स्त्री या पुरुष को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, बता रहा हूँ, सुनो ! स्वर्गलोक में दिव्य सौ वर्ष तक देवों समेत इस अभीष्ट फल दान करने के नाते अभीष्ट फल का भागी होता है । नृप ! जन्तु (जीव) जहाँ उत्पन्न होता है, कर्मक्षीण होने पर पुनः वहाँ ही समस्त कामनाओं का सुखानुभव करता है । राजन् ! इष्टजनों से उसका कभी वियोग ही नहीं होता है और स्वर्ग में अनन्त सुखानुभव करता है । इस प्रकार अपनी सुवर्ण मूर्ति बना कर जो उत्तम वाहन पर स्थित और धनधान्य समेत हो, साधन सम्पन्न उसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मण श्रेष्ठ को अर्पित करने या वह मनुष्य आकाश स्थित सूर्य चन्द्र की भाँति यहाँ राजराज (महाराज) होकर सुशोभित होता है । (अध्याय १८५) Related