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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १८८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १८८
कृष्णमृगचर्म (मृगछाला या कृष्णाजिन) दान -विधि-वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा — अनघ ! कृष्ण मृग चर्म का प्रदान काल और विधान तथा ब्राह्मण भी मुझे बताने की कृपा करें, क्योंकि इसमें मुझे महान् संशय उत्पन्न हो रहा है !

श्री कृष्ण बोले — युगारम्भ की तिथि, ग्रहणकाल, संक्रान्ति, दिनक्षय, माघपूर्णिमा, ग्रहपीडा के समय तथा दुःस्वप्न दर्शन होने पर या जिस समय विशेष धनागम हो, इस महादान को सुसम्पन्न करे । om, ॐपार्थिव ! दान ग्रहण करने वाला ब्राह्मण भी चाहिए, जो अग्निहोत्री वेद-वेदाङ्ग पारगामी, पुराणवेत्ता तथा कर्मकुशल हो । विधान भी मैं बता रहा हूँ, सुनो ! नराधिप ! किसी पवित्र देश में गोबर से लिपी हुई भूमि पर सर्वप्रथम ऊनी वस्त्र विछाकर सुवर्ण की सींग, चाँदी, दाँत, मोतियों की रस्सी, तिलाच्छन्न पूंछ तथा तिल द्वारा सिर का निर्माण कर वस्त्र से ढँक दे । विशेषकर सुवर्ण से उसके चारों ओर अलंकृत कर पुष्प, गंध, फल, नैवेद्य, आदि से अर्चा करते हुए उसके चारों ओर यथाशक्ति रत्नों से भूषित करे । चार काँसे के पात्रों में क्रमशः घृत, क्षीर, दधि , एवं मधु रख कर उसका सविधान दान करके इस मंत्र का उच्चारण करे —

“कृष्णः कृष्णमलो देव कृष्णाजिनवरस्तथा ॥
त्वद्दानापास्तपापस्य प्रीयतां मे नमो नमः ।
त्रयस्त्रिंशत्सुराणां च आधारे त्वं व्यवस्थितः ॥
कृष्णोऽसि मूर्तिमान् साक्षात्कृष्णाजिन नमोऽस्तु ते ।”
(उत्तरपर्व १८८ । १०-१२)
देव ! आप काले रंग और कृष्ण मंत्र वाले उत्तम कृष्णजिन (काले चर्म) हैं, तुम्हारे दान से मेरा समस्त पाप नष्ट हो गया है । अतः मैं बार-बार आपको नमस्कार कर रहा हूँ । तैंतीस (कोटि) देवों के तुम आधार बनाये गये हों, मूर्तिमान् साक्षात् कृष्ण हो अतः कृष्णाजिन को नमस्कार है ।

इस भाँति प्रदक्षिणा समेत बार-बार नमस्कार करके वेद-वेदाङ्ग का पारगामी उस प्रतिग्राही (दान लेने वाले) ब्राह्मण को भी दानोपरान्त दो वस्त्र और यथाशक्ति भूषण भूपित करे । भारत ! प्रतिग्राही को ग्रहण समय उसके पुच्छ प्रदेश का स्पर्श करना चाहिए ऐसा ब्रह्मा ने बताया है । प्रतिग्रह ग्रहण करने वाले उस ब्राह्मण का प्रतिग्रह ग्रहण करने पर उसके मुख का दर्शन न करे और न उससे सम्भाषण करे । इस विधान द्वारा कृष्णचर्म का दान करने वाला मनुष्य भूमिदान का समस्त फल प्राप्त करता है । कृष्णाजिन, तिल के ऊपर सुवर्ण, मधु-घृत समेत ब्राह्मण को अर्पित करने या वह कभी शोक नहीं करता है अपितु समस्त लोकों में आकाश मार्ग से यथेच्छ विचरण करता है । उसे महाफल पर्यन्त स्वर्ग में निवास प्राप्त होता है क्योंकि कृष्णाजिन के समान न अन्य दान तीनों लोक में नहीं बताया गया है । किन्तु वेद वादियों का कहना है कि उसका प्रतिग्राही पापी होता है। शिशु, युवा और वृद्धावस्था में किये हुए समस्त पाप कृष्णाजिन दान द्वारा उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार ध्यानमग्न रहकर काले नेत्र वाले मृग के चर्म किसी ब्राह्मण श्रेष्ठ को अर्पित करने पर मरण समय शोकरहित और अभीष्ट फल की प्राप्ति करता है ।
(अध्याय १८८)

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