January 15, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १९३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १९३ तिथिदान (तिथियों में दान के पदार्थ) वर्णन श्रीकृष्ण बोले — युधिष्ठिर ! इस समय मैं तुम्हें तिथि दान का विधान बता रहा हूँ, जो समस्त पापों के शमन पूर्वक सम्पूर्ण विघ्नों का विनाश करता है । पाण्डव ! इस दान द्वारा मानसिक, वाचिक और कायिक (शरीर जन्य) इन समस्त पापों का समूल नाश होता है । श्रावण, कार्तिक, चैत्र, वैशाख एवं फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से पुण्य-वर्द्धन-दान आरम्भ करना चाहिए । वित्त, श्रद्धा, सम्पन्न की प्राप्ति और दान-काल आदि सभी वस्तुएँ इस दान में तत्त्वदर्शियों ने सुस्पष्ट बता दिया है । किसी तीर्थ, देवालय, गोशाला, अथवा गृह में संयम पूर्वक दान करने वाला मनुष्य अनन्त सुख की प्राप्ति करता है । प्रतिपदा के दिन पूज्य ब्राह्मणों और प्रजापतियों के पूजनपूर्वक अष्ट दल वाला सुवर्ण निर्मित कमल सुगन्ध एवं घृतपूर्ण किसी गूलर के पात्र में स्थापित कर पुष्प-धूप आदि से पूजित कर किसी ब्राह्मण श्रेष्ठ को अर्पित करना चाहिए । क्योंकि इस विधान द्वारा कमला का निवासस्थानभूत कमल का दान करने पर उसे समस्त कामनाओं की सफलता पूर्वक निष्काम ब्रह्म का सायुज्यमोक्ष प्राप्त होता है । द्वितीया के दिन अग्नि पूजन पूर्वक ‘भूर्भुवस्वः ‘ के क्रमानुसार तिल-घृत की सौ आहुति प्रदान कर पूर्णाहुति प्रदान करे । अनन्तर सुवर्ण निर्मित वैश्वानर (अग्नि) की प्रतिमा गुड-घृत पूर्ण ताँबे के पात्र में जलपूर्ण कलश के ऊपर प्रतिष्ठित कर वस्त्र, माला एवं अनेक भाँति के भक्ष्य भोज्य द्वारा उनकी सविधि अर्चा के उपरान्त ‘वह्निर्मे प्रीयताम्’ – ‘अग्नि मुझ पर प्रसन्न हों’, कहकर ब्राह्मण को अर्पित करे । उसके परिणाम स्वरूप वह मनुष्य आजीवन पाप मुक्त होता है इसमें संशय नहीं तथा निधन होने पर अग्नि लोक में पहुँचता है ऐसा नारद मुनि का कथन है । तृतीया के दिन राधा की स्वर्णमयी शुभ प्रतिमा ताँबे पात्र में लवण के ऊपर स्थापित करते हुए उसके पार्श्व भाग में जीरा, कटुक और गुड़ की ढेरी रख कर दो रक्तवस्त्र से आच्छादन और कुंकुम से विभूषित वह प्रतिमा पुष्प, धूप तथा नैवेद्य, आदि द्वारा पूजन करके किसी ब्राह्मण को अर्पित करने पर जिस फल की प्राप्ति होती है उसका कौन वर्णन कर सकता है । पार्थ! जिस प्रदेश (लोक) में सुवर्णमय प्रसाद (कोष्ठ), पायस (खीर) कीचड़ वाली नदियाँ, और गन्धर्वो एवं अप्सराओं का सतत निवास रहता है वहाँ वह मनुष्य सदैव सुखानुभव करता है स्वर्ग में कदाचित् यहाँ (मर्त्यलोक) में आने पर सुरूप, सुभग, दाता, भोक्ता, बहुधन और पुत्र-पौत्र से युक्त रहता है तथा (दान करने वाली) स्त्री भी उसी प्रकार समस्त गुणों से युक्त होती है । चतुर्थी के दिन एक पल से अधिक सुवर्ण का सुशोभन गज अंकुश समेत निर्मित कर एक द्रोणि तिल के ऊपर स्थापित करते हुए वस्त्र, पुष्प द्वारा उसकी अर्चा करे । नैवेद्य अर्पित करने के अनन्तर ‘गणेशो मे प्रीयताम्’ – ‘गणेशदेव प्रसन्न हों’ कह कर सादर ब्राह्मण को अर्पित करने वाले के सभी कार्यों में कभी विघ्न नहीं होता है । उसे सात जन्मों तक मदमत्त गजराज (सवारी के लिए) मिलते रहते हैं, और उन्हीं मदविह्वल गजराजों पर आरुढ़ होकर वह त्रैलोक्य को जीत लेता है । पञ्चमी के दिन एक तोले सुवर्ण द्वारा पन्नग (नाग) की प्रतिमा बना कर क्षीर और घृत पूर्ण पात्र के मध्य में स्थापित पूजित कर किसी ब्राह्मण को अर्पित करे । वस्त्रों से उस ब्राह्मण की अर्चा करके नमस्कार पूर्वक क्षमा याचना करे । क्योंकि यह दान लोक-परलोक सभी स्थान में सुख प्रदान करता है । शंकरजी ने नाग के काटे पुरुष के लिए प्रायश्चित्त भी बताया है, जो नाग समस्त उपद्रवों का दमन करने वाला एवं समस्त दुष्टों का विनाश करता है । षष्ठी के दिन शक्ति एवं मयूर वाहन समेत कुमार (कार्तिकेय) की सुवर्ण प्रतिमा का निर्माण कर यथाशक्ति होम (सुवर्ण) माला से विभूषित करे । अनन्तर चावल के (पर्वत) शिखर पर स्थापित कर यथाशक्ति गंध, पुष्प वस्त्र से पूजित कर किसी कुटुम्बी ब्राह्मण को अर्पित करे । उससे उसे इस लोक में अत्यन्त ऐश्वर्य की प्राप्ति पूर्वक स्वर्ग सम्मान प्राप्त होता है और बाह्मण होने से ब्रह्म सालोक्य मोक्ष की प्राप्ति होती है । सप्तमी के दिन भास्कर, ब्राह्मण और सुवर्ण निर्मित अश्व के जिसकी ग्रीवा अलंकृत की गयी हो, पूजनोपरांत दक्षिणा, समेत उसे ब्राह्मण को अर्पित करने पर सूर्य लोक की प्राप्ति होती है और वह सूर्य के साथ सदैव आनन्दानुभव करता है । समलंकृत अश्व के दान करने से गन्धर्व गण भी सन्तुष्ट होते हैं । अष्टमी के दिन श्वेत वर्ण के अव्यंग, धुरंधर, चार श्वेत वस्त्रों से आच्छन्न और घण्टा-भरण-भूषित वृषभ (बैल) का ‘वृषभध्वजो मे प्रीयताम्’ -‘वृषभध्वज (शिव) प्रसन्न हों’, कहते हुए नमस्कार पूर्वक ब्राह्मण को दान प्रदक्षिणा के उपरांत उसका द्वार तक अनुगमन भी करे । नृपते ! इस दान द्वारा शिवलोक की प्राप्ति दुर्लभ नहीं होती है । क्योंकि वृषभों के कन्धे पर चौदहों भुवन प्रतिष्ठित रहते हैं । इसलिए वृषभ दान करने से उसका भारती (विद्या) दान भी सम्पन्न हो जाता है । नवमी के दिन यथाशक्ति सुवर्ण सिंह का दान जो आठ मोतियों और नीलवस्त्र से आच्छन्न रहता है, दुष्टों-दैत्यों को छलने वाली देवी जी के स्मरण पूर्वक किसी ब्राह्मण श्रेष्ठ को अर्पित करने पर सभी कामनाएँ सफल होती हैं । इस दान के प्रभाव से वनों के उस दुर्गम मार्ग में रहने वाले चोर एवं सर्प आदि हिंसक जीव उसके ऊपर प्रहार नहीं करते हैं । अन्त में निधन होने पर देवों असुरों से पूजित होकर वह देवीलोक जाता है । पुनः कदाचित् पुण्य क्षीण होने पर इस लोक में धार्मिक राजा होता है । दशमी के दिन सुवर्ण निर्मित दस दिशा-देवियों की प्रतिमा लवण, गुड़, क्षीर, निष्पाव, तिल, दूध, दही, घी समेत चावलों और उरदों की राशि पर स्थापित एवं वस्त्र पुष्पादि से पूजित कर ब्राह्मण को अर्पित करे । राजेन्द्र ! सविधान द्वारा इस दान को सुसम्पन्न करने वाले पुरुष अथवा स्त्री को जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है, मैं बता रहा हूँ, सुनो ! इस लोक में राजा होकर सुखानुभव के उपरांत अन्त में निधन होने पर स्वर्ग में सम्मानित होता है और उसके अधीन समस्त दिशाएँ रहती हैं अतः मन इच्छित दिशा में स्वर्ग से आकर महान् कुल में जन्म ग्रहण करता है । एकादशी के दिन गरुड़ की सुवर्ण-प्रतिमा ताँबे के पात्र में घृत के ऊपर स्थापित करके पूजनोपरांत पंचाग्नि तपस्वी एवं पुराण मर्मज्ञ किसी ब्राह्मण को अर्पित करने पर उसे विष्णु लोक में सुसम्मान प्राप्त होता है और अधिक क्या कहा जायँ । द्वादशी के दिन द्वादश ब्राह्मणों को गौ, वृष (बैल) महिषी (भैंस), सुवर्ण, सदाधान्य, भेड़, बकरी, वडवा, (घोड़ी), गुड, फल-फूल, वृक्ष, विचित्र भाँति के पुष्प और गंध, सभी वस्तुओं को सम्मिलित कर यथाशक्ति वस्त्रों से आच्छादन करते हुए अर्पित करें अथवा एक ही ब्राह्मण को भी वह सब प्रदान कर सकता है । महाराज ! उसके दान करने का जो फल प्राप्त होता है, उसे बता रहा हूँ, सुनो ! इस लोक में परमोत्तम यश की प्राप्तिपूर्वक यथेच्छ भोगों के उपभोग करने के उपरांत विष्णुलोक में जाकर अप्सराओं से सुसेवित होता है । कदाचित् पुण्य क्षीण होने पर इस लोक में धार्मिक राजा होकर यज्ञों को सुसम्पन्न करता रहता है, दानपति कहलाता है एवं सैकड़ों वर्ष का जीवन प्राप्त करता है । त्रयोदशी के दिन तेरह ब्राहमणों को स्नान कराकर नवीन वस्त्रों से आच्छादन करते हुए गन्ध पुष्प द्वारा उनकी अर्चा करने के उपरांत उन्हें मिष्ठान्न भोजन कराये और यथाशक्ति सुवर्णखण्ड का दान करे । उस समय उसे ‘धर्मो मे प्रीयताम्’ – ‘धर्मात्मा प्रसन्न हों, कहकर दान, अर्पित करना चाहिए । धर्मराज, काल, चित्रगुप्त, दण्डी, मृत्यु, क्षयरूप, अन्तक, यम, प्रेतनाथ, रौद्र, वैवस्वत, महिषस्थ और देव — इन तेरह नामों को उच्चारण करते हुए श्रद्धाभक्ति समेत नमस्कारपूर्वक विसर्जन करे । महाराज ! यम के निमित्त इस मनोरम पूजा को सुसम्पन्न करने वाला मनुष्य इस मर्त्यलोक में व्याधिरहित सुखी जीवन व्यतीत करता है और यम के मार्ग से जाते हुए उसे कभी किसी दुःख का अनुभव नहीं करना पड़ता है । पितृलोक जाते हुए उसे कभी प्रेतमुख नहीं दिखायी देते हैं । कदाचित् पुण्यक्षीण होने पर वह यहाँ आकर सुखी और नीरोग जीवन व्यतीत करता है । चतुर्दशी के दिन महिष, सुशोभन जलपूर्ण कलश, सुवर्ण कर्षक संयुक्त, उत्तम वस्त्र से आच्छन्न, घंटाभरण से भूषित और वृषभ (वैल) समेत उसे किसी शिवभक्त एवं कुटुम्बी ब्राह्मण को अर्पित करे । नरश्रेष्ठ! उस वृष (वैल) के दान करने से वह शिव-लोक में सुसम्मानित होता है और वहाँ चिरकाल तक सुखानुभव करने के अनन्तर यहाँ भूतल पर आरोग्य धनपूर्ण एवं महान् कुल में उत्पन्न होता है, इस भाँति वह तीन सौ जन्म तक अपनी समस्त कामनाओं की सफलता पूर्वक सुसमृद्ध सुख का अनुभव करता है । पूर्णिमा के दिन सविधान वृषोत्सर्ग समाप्त करते हुए जिसमें चन्द्रमा की चाँदी की प्रतिमा एक फल के समेत स्थापित किया गया हो, गंध पुष्प और नैवेद्य द्वारा उसकी अर्चा करे । अनन्तर वस्त्राभूषण से अलंकृत वह रजतचन्द्र ब्राह्मण को सादर समर्पित करे । राजेन्द्र ! उस समय उसे इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए — “क्षीरोदार्णवसंभूतत्रैलोक्यांगणदीपक ॥ उमापतेः शिरोरत्नशिवं यच्छ नमो नमः ।” (उत्तरपर्व १९३ । ६३-६४) ‘क्षीरसागर से उत्पन्न एवं तीनों लोक के आङ्गण द्वीप ! तुम उमापति शिव के सिर को सुशोभित करने वाले रत्न हो, मुझे कल्याण प्रदान करो, मैं तुम्हें नमस्कार कर रहा हूँ ।’ नृपते ! इस विधान द्वारा वह मनुष्य स्वर्ग में महाप्रलय पर्यन्त अप्सराओं से सुसेवित होते हुए चन्द्रमा की भाँति सुशोभित रहता है । इस प्रकार सविधान यह दान ब्राह्मण को अर्पित करने वाला सहृदय वह प्राणि ब्रह्मा और विष्णु के लोकों में सुखविहार करने के उपरांत शिव का सायुज्यनोक्ष प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं । (अध्याय १९३) Related