January 15, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १९४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १९४ वराहदान विधि-वर्णन श्रीकृष्ण बोले — युधिष्ठिर ! मैं तुम्हें आदिवराह दान का विधान बता रहा हूँ, जिसे मैंने पहले समय वराहावतार धारण कर पृथ्वी को बताया था । यह दान पुण्य, पवित्र, आयु की वृद्धि करने वाला, समस्त दानों में उत्तम एवं महापाप आदि महान् दोषों का शमन करता है और श्रेष्ठ धार्मिकों द्वारा पूजित है । सूर्य की संक्रान्ति, ग्रहण, द्वादशी, यज्ञ, विवाहादि उत्सव, दुःख में अहुत दर्शन और जिस समय अधिक वित्त की प्राप्ति हो तथा चित्त श्रद्धालु हो वही इस नश्वर जीवन में दान काल समझना चाहिए । कुरुक्षेत्र आदि तीर्थ, गङ्गा आदि नदी, पवित्र नगर, असंख्य गोशालाएँ, देवालय, रथ या अपने गृह के प्राङ्गण में यह दान पुराणों के विधान द्वारा किसी कुटुम्बी ब्राह्मण को अर्पित करना चाहिए । पार्थ ! कुशास्तरण करके तिलराशि के ऊपर ओंकार समेत मंत्रोच्चारण करते हुए वराहमूर्ति की कल्पना करनी चाहिए, जो सम्पूर्ण चार द्रोण, तदर्ध, अथवा एक अढैया (सेर) का निर्मित रहता है । उस समय कृपणता करना अनुचित कहा गया है । इस भाँति उनकी रचना में सुवर्ण का मुख, चक्र गदाभूषित हाथ, चाँदी के पद्मरागमणि भूषित दाँत, तथा पार्श्व भाग में शंख, हिरण्यमयी वनमाला स्थापित करते हुए पुष्पों अथवा चाँदी के द्वारा चरण की रचना करनी चाहिए । दाँत में लगी हुई सुवर्ण की शुभ पृथ्वी, और समस्त धान्यों के रस युक्त उनके शरीर पर दो वस्त्र से अलंकृत करे । वस्त्रों से आवृत देवेश वराह की प्रतिमा की, जो समस्त कामनाओं को सफल करती है, कुशों द्वारा रोमराजि (रोएँ) का निर्माण करते हुए गन्ध-पुष्पों से अर्चा सुसम्पन्न करे । इस यज्ञ में नवग्रहों का पूजन तिलों की आहुति प्रदान करके इस स्तोत्र द्वारा अभ्यर्चना करे — वराहेश प्रदुष्टानि सर्वपापफलानि च । मर्द्दमर्द्द महादंष्ट्र भास्वत्कनककुण्डल ॥ शङ्खचक्रासिहस्ताय हिरण्याक्षांतकाय च । दंष्ट्रोद्धतधराभृते त्रयीमूर्तिमते नमः ॥ (उत्तरपर्व १९४ । १४-१५) देदीव्यमान कनक कुण्डलों से भूषित एवं महान् दाँत वाले वराहेश देव! समस्त पापों के फल चूर्ण कर दो! शंख, चक्र, खङ्ग हाथों से धारण किये आप ने हिरण्याक्ष का वध किया है और अपने दाँतों से इस पृथिवी का उद्धार किया अतः त्रयी (वेद) मूर्ति आप को मैं नमस्कार पूर्वक प्रदक्षिणा करके वस्त्रालंकार भूषित वह प्रतिमा ब्राह्मण को अर्पित करे। परमर्षियों के कथनानुसार प्रतिग्राही (ब्राह्मण) को उस समय उनके चरण का परिग्रहण (स्पर्श) करना चाहिए । इस विधान द्वारा करने के अनन्तर प्रणाम पूर्वक क्षमा प्रार्थना करे। महीनाथ, पार्थ! समस्त कामनाओं को सफल करने वाली उस वराह-प्रतिमा के दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, उसका वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है। क्योंकि समस्त दान और सुवर्ण प्रतिमा के दान करने से प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार वराह भगवान् ने यथाशक्ति इसपृथिवी का उद्धार किया है, उसी भाँति इसका दान करने वाला मनुष्य अपने कुल का उद्धार कर विष्णु लोक में पूजित होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र और शैव, वैष्णव, योगी के लिए यह साधारण दान कहा गया है । इस प्रकार वस्त्रों से अलंकृत उस नृवराह रूप का दान, जो तिल और अमल सुवर्ण द्वारा निर्मित रहता है, किसी वेद मर्मज्ञ व्राह्मण को अर्पित करने पर वह मनुष्य सभी पुत्र-मित्र समेत अपने पूर्व पुरुषों के उद्धार पूर्वक सुरसिद्ध सेवित सिद्धलोक की प्राप्ति करता है । (अध्याय १९४) Related