भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १९६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १९६
लवणपर्वतदानविधि-वर्णन

श्रीकृष्ण बोले — मैं तुम्हें इस समय लवणाचल का विधान बता रहा हूँ, जिराके प्रदान करने से मनुष्य शिवलोक की प्राप्ति करता है । इस पर्वत के निर्माण में दस द्रोण का उत्तम, उसके अर्धभाग का मध्यम और उसके भी आधेभाग का पर्वत अधम बताया गया है । om, ॐकिन्तु निर्धन मनुष्य भी यथा शक्ति एक द्रोण के आधेभाग से पर्वत की रचना और चौथाई-भाग से पृथक्-पृथक् उसके चारों ओर के पर्वतों की रचना करके पूर्व की भाँति सविधान ब्रह्मादि देवगण, सुवर्ण वृक्षों और लोकपालों की उस पर्वत में स्थापना करे । उसके शिरोभाग में कामदेव आदि को प्रतिष्ठित करते हुए रात्रि जागरण करे । उसका दान मंत्र मैं बता रहा हूँ, सुनो ! नरोत्तम !—

“सौभाग्यरससम्भूतो यतोऽयं लवणोरसः ।
दानात्मकत्वेन च मां पाहि पापान्नगोत्तम ॥
तस्मादन्नराः सर्वे नोत्कृष्टा लवणं विना !
प्रियं च शिवयोर्नित्यं तस्माच्छान्तिप्रदो भव ॥
विष्णुदेह समुद्भूतं यस्मादारोग्यवर्धनम् ।
यस्मात्पर्वतरूपेण पाहि संसारसागरात् ॥
(उत्तरपर्व १९६ । ८-९)

‘सौभाग्य रस से उत्पन्न होने के नाते तुम्हारा लवणाचल नामकरण हुआ है अतः इस दान द्वारा पापों से मेरी रक्षा करने की कृपा करो । बिना लवण के सभी अन्नों के रस उत्कृष्ट (तीक्ष्ण) नहीं होते हैं, इसीलिए आप शिव और भवानी को नित्य अत्यन्त प्रिय है, मुझे शान्ति प्रदान करे । आप भगवान् विष्णु की देह से आविर्भूत होकर आरोग्य की वृद्धि करते हैं अतः इस पर्वत रूप द्वारा इस संसार सागर से मुझे बचायें ।’

इस विधान द्वारा लवण पर्वत का दान करने वाला मनुष्य उमा के लोक में एक कल्प तक सुखानुभव करने के उपरांत उत्तम गति प्राप्त करता है । कदाचित् पुण्य क्षीण होने पर यहाँ धार्मिक राजा होता है और पुत्र-पौत्र समेत सौ शारदीय वर्षों का जीवन भी प्राप्त करता है । इस प्रकार लवण पर्वत का दान करने वाला प्राणी शोभन एवं महान् विमान पर, जिसमें सेवा करने के लिए अप्सराएँ, सुर-असुर गण सदैव वर्तमान रहते हैं, सुशोभित होकर स्वर्ग पहुँचता है और सदैव प्रसन्न चित्त एवं वृद्धिशील रहता है ।
(अध्याय १९६)

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