January 15, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १९९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १९९ तिलाचल दान-विधि-वर्णन श्रीकृष्ण बोले — मैं तुम्हें सविधान तिल शैल का वर्णन सुना रहा हूँ, जिसके दान करने से मनुष्य परमोत्तम विष्णुलोक की प्राप्ति करता है । तिल अत्यन्त पवित्र एवं पवित्रों में पावन है, भगवान् विष्णु की देह से उत्पन्न होने के नाते यह अति उत्तम हुआ है । प्राचीन समय में (कश्यप की दूसरी पत्नी) दिति के मधुकैटभ नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे । जिसमें मधु के साथ विष्णु का अनवरत युद्ध हो रहा था । दिव्य सहस्र वर्ष तक घोर युद्ध होने पर भी उस दैत्य का वध न हो सका तो अत्यन्त क्रुद्ध होने से गदाधारी भगवान् विष्णु की देह में महान् स्वेद (पसीना) हो आया और वह कण रूप में तथा खण्ड-खण्ड होकर पृथ्वी पर गिरा, जिससे तिल, उरद और कुशाओं की उत्पत्ति हुई । कुरुनन्दन ! उसी समय बलवान् मधु दैत्य भी युद्ध में हरि द्वारा निहत हुआ, जिसकी मेदा (चर्बी) से वह सम्पूर्ण पृथ्वी अत्यन्त रञ्जित हो गयी है और उसी के नाते उस दिन से इस पृथिवी का ‘मेदिनी’ भी नाम प्रचलित हो गया । उस बली दैत्य के वध होने पर देवगण अत्यन्त सन्तुष्ट हो गये तथा स्तुतियों द्वारा स्तुति करते हुए देवों ने कहा — “त्वया धृतं जगद्देव त्वया सृष्टं तथैव च ॥८ त्वयीश लीयते सर्व त्वमेव मधुसूदन । तस्मात्त्वदंगतो’ जातास्तिलाः सन्तु जगद्धिताः ॥९ पालयन्तु च देवेश हव्यकव्यानि सर्वदा । दैवे पित्र्ये च सततं नियोज्यास्तत्परैर्नरैः ।।१० नहि दैत्याः पिशाचा वा विघ्नं कुर्वन्ति भारत । तिला यत्रोपयुज्यन्ते एतच्छीघ्र विधीयताम् ॥ देव ! तुम्हीं इस जगत् का धारण किये हो और तुम्हारे ही द्वारा इसकी सृष्टि हुई है और तुम्हारे में इसका लय भी होता है । मधुसूदन, ईश ! तुम्हारे अंगों से उत्पन्न हुआ यह तिल जगत् के लिए कल्याणकारी हो तथा देवपितृ कर्मों में मनुष्यों को संलग्न कर द्रव्य क्रव्य द्वारा देवों पितरों का पालन करें । देवेश, भारत ! जिस कर्म में दैत्य या पिशाच कभी विघ्न नहीं करते हैं अतः इसे शीघ्र सम्पन्न करे ।’ देवों की इन बातों को सुनकर कर भगवान् विष्णु ने कहा — तीनों लोकों के रक्षार्थ ही यह तिल उत्पन्न हुआ है । अतः शुक्ल पक्ष में देवों के संतोषार्थ तिलोदक और कृष्ण पक्ष में पितरों को तिलोदक देना चाहिये । स्नानोपरांत श्रद्धा समेत सात-आठ तिलों की तिलाञ्जलि अर्पित करनी चाहिए इससे देव और पितर दोनों अत्यन्त तृप्त होते हैं । श्वान् (कुत्ते) और कौओं एवं पतितों द्वारा नष्ट की हुई भी वस्तु तिल से अभ्युक्षित (सिंचित) करने पर पवित्र हो जाती हैं इसमें संशय नहीं । इस प्रकार पवित्र तिलों का पर्वत निर्माण कर किसी ब्राह्मण श्रेष्ठ को उसका दान करने पर अक्षय फल प्राप्त होता है । दस द्रोण तिल का उत्तम पर्वत, पांच का मध्यम, और तीन द्रोण का पर्वत कनिष्ठ कहा जाता है । राजेन्द्र ! पूर्व की भाँति समस्त उसकी क्रियाओं को सम्पन्न करते हुए विष्कम्भ पर्वत आदि से युक्त करे और इस दान मंत्र का उच्चारण करे — यस्मान्मधुवधे विष्णुर्देहस्वेदसमुद्भवाः । तिलाः कुशाश्च माषाश्च तस्माच्छं नो भवन्त्विह ॥ हव्ये कव्ये च यस्माच्च तिलैरेवाभिमन्त्रणम् । भवादुद्धर शैलेन्द्र तिलाचल नमोऽस्तु ते ॥ (उत्तरपर्व १९९ । १९-२०) मधु दैत्य के वध होने के समय भगवान् विष्णु की देह से तिल, कुश और माष (उरद) की उत्पत्ति हुई है । द्रव्य और क्रव्य में तिल द्वारा ही मंत्रण होता है अतः इस संसार से मेरा उद्धार करें मैं आपको नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार आमन्त्रित कर उत्तम तिलाचल का दान करने वाला मनुष्य उस वैष्णव पद की प्राप्ति करता है, जहाँ से कभी पुनरावृत्ति (जन्म) होता ही नहीं । लोक परलोक में उसे दीर्घायु की प्राप्ति होती है और वह पितर, देव और गन्धर्वों से पूजित होते हुए स्वर्ग जाता है । कदाचित् पुण्य क्षीण होने पर इस भूतो पर पुनः धार्मिक राजा होता है और उसकी पत्नी रूप सौभाग्य सम्पन्न होती है । दान करने वाली स्त्री भी वही फल प्राप्त करती है तथा सभी कार्यों में दक्ष, कुलीना और पुत्र-पौत्र से सदैव युक्त रहती है । श्रद्धासमेत सविधान इस दान का श्रवण करने वाला पुरुष भी कपिलादान के तुल्य फल प्राप्त करता है । यदि इस तिलपर्वत के दान समान अन्य कोई दान हैं तो भली भाँति शास्त्र विचारकर मुझे बताने की कृपा करो । क्योंकि जिसने पितृक्रिया (श्राद्धतर्पणादि) और देवों के निमित्त हवन कर्म कभी सम्पन्न ही नहीं किया है क्या उस पुरुष के लिए यह दान कल्याणप्रद नहीं होता है ! अर्थात् होता ही है । (अध्याय १९९) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe