भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय २०२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय २०२
रत्नाचलदानविधि-वर्णन

श्रीकृष्ण बोले — मैं तुम्हें रत्नाचल का विधान बता रहा हूँ, जिसके दान करने से मनुष्य सप्तर्षि के लोकों की प्राप्ति करता है और जो सहस्रों मोतियों द्वारा निर्मित पर्वत उत्तम, पाँच सौ मध्यम, और तीन दौ मोती का पर्वत अधम बताया जाता है । अल्पधनवालों को सौ मोतियों द्वारा उसका निर्माण करना चाहिए और उसके चौथाई भाग से चारों ओर विष्कम्भ पर्वतों की रचना भी । om, ॐहीरे और गोमेद द्वारा पूर्व की ओर, इन्द्रनील द्वारा सुरचित और पुष्परागयुत गन्धमादन पर्वत दक्षिण की ओर वैदूर्य मूँगे द्वारा उस विपुल सवित्राचल का पश्चिम की ओर और सुवर्ण समेत पद्मरागमणि का पर्वत उत्तर की ओर स्थापित करते हुए धान्यपर्वत की भाँति सुवर्ण निर्मित देवों और वृक्षों के आवाहन आदि शेष सभी कर्म विद्वानों को सुसम्पन्न करना चाहिए । पुष्प नैवेद्य आदि वस्तुओं से अर्चा करके प्रातः काल विसर्जन करे तथा गुरु और ऋत्विजों समेत इन मंत्र के उच्चारण भी –

यथा देवगणाः सर्वे सर्वरत्नेष्ववस्थिताः ।
त्वं च रत्नमयो नित्यमतः पाहि महाचल ॥
यस्माद्रत्नप्रदानेन तुष्टिमेति जनार्दनः ।
पूजारत्नप्रदानेन तस्मान्नः पाहि सर्वदा ॥
(उत्तरपर्व २०२ । ८-९)
महाचल ! सभी रत्नों में देवगणों की सदैव उपस्थिति रहती है और तुम सदैव रत्न रूप सुशोभित रहते हो अत: मेरी रक्षा करो ! अतः इस पूजा में इस रत्न के प्रदान से आप मेरी सदैव रक्षा करें।

इस विधान द्वारा चलाचल प्रदान करने वाला मनुष्य देव पूजित वैष्णव लोक की प्राप्ति करता है । नराधिप ! सौ कल्प तक वहाँ सुखानुभव करने के अनन्तर वह यहाँ रूप, आरोग्य आदि गुणों से सम्पन्न होकर सप्तद्वीपा वसुमती का अधिनायक होता है । देव राज इन्द्र के वज्र से आहत पर्वत की भाँति लोक-परलोक जनित उसकी ब्रह्म हत्या इसके प्रभाव से सर्वथा विलीन हो जाती है । इस भाँति उस रत्नाचल का दान, जो मोती, वर्ण, विद्गम आदि से चित्र-विचित्र एवं गहामणियों की मरीचियों (किरणों) से विभूषित रहता है, किसी ब्राह्मण श्रेष्ठ को अर्पित करने वाला मनुष्य देव लोक में पहुँच कर सूर्य तेज को भी अभिभूत कर देता है ।
(अध्याय २०२)

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