January 16, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय २०४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय २०४ शर्कराचल दानविधि-वर्णन श्रीकृष्ण बोले — मैं तुम्हें उत्तम शक्कर-पर्वत का विधान बता रहा हूँ, जिसके दान करने से विष्णु, सूर्य और रुद्र देव सर्वदा प्रसन्न रहते हैं । इसके निर्माण में आठ-भार शक्कर का उत्तम पर्वत, चार भार का मध्यम, दो भार का अधम पर्वत बताया गया है तथा अल्पवित्त वाले मनुष्य को यथा शक्ति एक भार अथवा उसके आधे भाग से पर्वत-निर्माण करना चाहिए तथा उसके चौथाई भाग द्वारा विष्कम्भ पर्वतों का निर्माण करे । धान्यपर्वत की भाँति रसयुक्त समस्त कर्मों को सम्पन्न करते हुए मेरु (पर्वत) के ऊपर सुवर्ण निर्मित मदार, पारिजात और कल्पवृक्ष की स्थापना करे, क्योंकि सभी कर्मों में इन तीन वृक्षों की स्थापना बतायी गयी हैं । हरिचन्दन (श्रीखंड) और कल्पवृक्ष क्रमशः सभी पर्वतों में विशेषतया शक्कर पर्वत के पूर्व-पश्चिम भाग अवश्य स्थापित करना चाहिए । मन्दर पर्वत पर स्थित कदम्ब के नीचे कामदेव, गंधमादन पर्वत पर स्थित जम्बूवृक्ष के नीचे गरुड़, उस विशाल (सवित्र) पर्वत के नीचे पूर्वाभिमुख सुवर्ण मूर्ति हंस और हेममूर्ति सुरभी गौ दक्षिणाभिमुख स्थापित करे । धान्यपर्वत की भॉति समस्त क्रियाओं को सुसम्पन्न करके मध्य में स्थापित किया हुआ पर्वत गुरुचरण में और शेष चार पर्वतों को ऋत्विजों को सादर समर्पित करे । उस समय इन मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए — सौभाग्यामृतसारोऽयं परमः शर्करायुतः ।। यस्मादानन्दकारी त्वं भव शैलेन्द्र सर्वदा । अमृतं पिबतां ये तु निष्पेतुर्भुवि शीकराः ॥ देवानां तत्समुत्थोऽसि पाहि नः शर्कराचल । मनोभवधनुर्मध्यादुद्भूता शर्करा यतः ॥ तन्मयोऽसि महाशैल पाहि संसारसागरात् । (उत्तरपर्व २०४ । १०-१३) सौभाग्य और अमृत के सारभूत शक्कर से संयुक्त शैलेन्द्र ! तुम सदैव प्रदान करते रहो । क्योंकि देवों के अमृतदान करते समय अमृत की कुछ बूदें पृथ्वी पर गिर पड़ी थी उसी से शक्कर का आविर्भाव हुआ अतः मेरी रक्षा करो । महाशैल ! काम देव के धनुषमध्य से उत्पन्न होने वाली शक्कर से तुम संयुक्त हो अतः इस संसार सागर से मेरी रक्षा करो । इस विधान द्वारा शक्कर पर्वत का दान करने वाला मनुष्य पापरहित होकर शिवभक्ति की प्राप्ति करता है । पुनः अपने अनुचरों समेत सूर्य चन्द्र के समान प्रकाशित विमान द्वारा विष्णु लोक जाकर वहाँ सौ कल्प तक सुखानुभव करने के उपरांत सातो द्वीप का अधीश्वर होता है और तीन जन्म तक उसी भाँति दीर्घजीवी एवं आरोग्य रहता है । सभी पर्वतों के निर्माण-दान में यथाशक्ति भोजन से ब्राह्मणों को तृप्त करना चाहिए तथा ब्राह्मणों की आज्ञा से स्वयं उस दिन लवण समेत भोजन करे और पर्वतदान की सभी वह वस्तु ब्राह्मण के घर भेजवा देना चाहिए । प्राचीनकाल में ब्रह्म कल्प के समय धर्म मूर्ति नामक एक राजा था, जिसने इन्द्र की मित्रता स्वीकार करने के नाते युद्ध में सहस्रों दैत्यों का वध किया था, चन्द्र सूर्य आदि देवों को अपने तेज द्वारा हतप्रभ किया और सैकड़ों राजाओं को पराजित किया था । उसकी भानुमती नामक त्रैलोक्य सुन्दरी भार्या थी, जो लक्ष्मी की भाँति अपने रूप सौन्दर्य से देवाङ्गनाओं को भी पराजित किये थी । राजा की वह प्रधान रानी उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यारी थी, जो उनकी अन्य दस सहस्र रानियों में श्री की भाँति सुशोभित होती थी । उस राजा की आज्ञा शिरोधार्य करने के लिए सहस्रों एवं करोड़ो राजगण सदैव उनके समीप रहा करते थे । एक बार दरबार में पुरोहित के आने पर राजा ने आश्चर्य चकित होकर उनसे कहा— भगवन् ! किस धर्म का परिणाम यह अनुपम लक्ष्मी मुझे मिली है और मेरी देह में इस प्रकार के उत्तम एवं विपुल तेज के होने क्या हेतु है ? बताने की कृपा करे । वशिष्ठ बोले — पूर्वकाल में लीलावती नामक वेश्या थी, जो सदैव शिवभक्ति में तन्मय रहा करती थी । उसने चतुर्दशी के दिन सुवर्ण निर्मित वृक्ष और देवों की काञ्चनी प्रतिमा समेत सविधान लवणाचल गुरुचरण में सादर अर्पित किया था । शौण्ड नामक शूद्र सुवर्णकार (सोनार) लीलावती के यहाँ नौकर था, जिसने श्रद्धालु होकर सुवर्ण द्वारा वृक्षों और देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था । पार्थिव ! उस (सोनार) ने वृक्षों और देवों की अत्यन्त सुन्दर प्रतिमा बनाकर उसे धर्मकार्य समझ कर वेश्या से उसका पारिश्रमिक शुल्क (वेतन) नहीं लिया और उसकी पत्नी के उन देवों और वृक्षों की प्रतिमाओं को अत्यन्त देदीप्यमान किया था । पार्थिव ! इस प्रकार लीलावती के घर रहकर वे दोनों उसकी परिचर्या (सेवा) कर रहे थे । उन दोनों ने अत्यन्त हर्षित होकर ब्राह्मणों की सेवा भी की थी । नृप ! बहुत समय जीवन के पश्चात् निधन होने पर वह लीलावती वेश्या समस्त पापों से मुक्त होकर शिव मन्दिर चली गयी । वह सुवर्णकार (सोनार), जो दरिद्र होते हुए भी अत्यन्त साहसी था और उस वेश्या से उसका मूल्य नही लिये था, आप हैं, जो दश सहस्र सूर्यों की प्रभा से भूषित होकर सातों द्वीप के अधीश्वर हुए हैं और जिसने उस सुवर्ण के वृक्ष एवं देवों की प्रतिमाओं को भलीभाँति समुज्जवल किया था, वह आप की यह भानुमती पत्नी है । उस (प्रतिमाओं) के उज्ज्वल करने के नाते इसे समुज्जवल रूप तथा तुम्हें भुवनों का अधिपत्य प्राप्त हुआ । इस प्रकार रात्रि में लवणाचल के निमित्त किये परिश्रम का परिणाम तुम्हें प्राप्त हुआ है, इसीलिए तुम लोक में अपराजित हो और आरोग्य सौभाग्य समेत लक्ष्मी की प्राप्ति हुई है । तुम इस समय भी धान्याचल आदि दस पर्वतों के दान अवश्य सुसम्पन्न करो । इस भाँति वशिष्ठ की बातें स्वीकार करके धर्ममूर्ति ने उन धान्याचल नाम के पर्वतों का दान क्रमशः सुसम्पन्न करके गुरु वशिष्ठ को अर्पित किया और अन्त में देवपूजित होकर शिव लोक की प्राप्ति की । भक्ति पूर्वक इस दान को देखने एवं सुनने वाला धार्मिक निर्धन मनुष्य भी पाप रहित होकर स्वर्ग की प्राप्ति करता है । नृपपुङ्गव ! इस प्रकार इन पर्वतों के आख्यान पढ़ने-सुनने वाले मनुष्यों के दुःस्वप्न शांत होते हैं, उनका संसार-भय दूर होता है । (अध्याय २०४) Related