भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय २०५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय २०५
सदाचार धर्म-वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा — मधुसूदन ! मैं तो प्रतिपदा आदि तिथियों के क्रमशः विस्तृत वर्णन रहस्य मंत्र समेत प्रारम्भ उद्यापन विधान सुना । नवग्रह यज्ञ से होमकर्म, स्नान क्रम, समस्त उत्सव, निखिल दान धर्म, सरोवरों के उत्सर्जन विधान, वृक्षों के उत्सव आदि भी भलीभाँति जान लिया है । कृष्ण ! इतना होते हुए भी मेरा मन (सुनने के लिए) मुग्ध ही हो रहा है । अतः व्रत की व्याख्या करते हुए आप उनके देवता भी बतायें । om, ॐदेवकीपुत्र ! तिथियों के क्रमानुसार वर्णन करते हुए आपने अनेक भाँति के देवों, पूजामन्त्र और उनके अधिवासन भी बता दिया है किन्तु ध्यान योग के पारायण करने वाले व्यास आदि मुनियों द्वारा निर्दिष्टि वह एक देव, जो सर्वव्यापक और अनश्वर है, तथा वर्णाश्रम के आचारधर्म, आप के नहीं बताये ! जिसे आप की वाणी द्वारा जानने के लिए ये महर्षि गण भी अत्यन्त लालायित हो रहे हैं ।

श्रीकृष्ण बोले — पार्थिव ! मैंने तुम्हें व्रत और दान का एक लेश मात्र ही वर्णन सुनाया है, विशेषतः तो कभी हो सकता है यदि सरस्वती वर्णन कर सके । सभी इन कठिनाइयों को पार करते हुए कल्याण का दर्शन करें । यही श्रम का सामान्य धर्म बताया गया है । देवों के उद्देश्य से मैंने जिस व्रत की व्याख्या सुनाई है, उसे परमार्थ समझो और देव को बता रहा हूँ, सुनो ! जो ब्रह्मा है वही हरि है और हरि ही महेश्वर, महेश्वर सूर्य, सूर्य पावक, पावक कार्तिकेय तथा कार्तिकेय ही विनायक हैं । उसी भाँति गौरी, लक्ष्मी, और सावित्री, शक्तिके भेद रूप बतायी गयी है । देव अथवा देवी के उद्देश्य से जिस व्रत का विधान मनुष्य सुसम्पन्न करते हैं उसमें भेद नहीं मानना चाहिए यह सम्पूर्ण जगत् में शिवशक्तिमय रचित है । यद्यपि बहुत प्रकार की वसुधा और अग्नि, वायु एवं जल के भेद भली भाँति स्पष्ट हैं तथापि परमार्थ रूप से उन्हें देखने पर वे भेद नहीं दिखायी देते हैं ।

पार्थ ! किसी भी देव के आश्रित रहकर मनुष्य जिस किसी व्रत को सुसम्पन्न करता है, उस वैदिक धर्म का वैदिक धर्म होना ही एक मुख्य कारण है । मैंने जो तुम्हें व्रत दान के विधान बताये हैं वे सदाचार शील एवं सज्जन प्राणी के लिए ही सफल होते हैं । आचारहीन पुरुष को, यद्यपि उसने षडङ्ग समेत वेदों का अध्ययन किया है, वेद पुनीत नहीं करता है । पंख निकलने पर नीड (घोंसले) को त्यागने वाले पक्षियों की भाँति वेद उसे मृत्यु के समय छोड़ देता है । जिस प्रकार कपाल में स्थित जल और कुत्ते के चमड़े वाले मशक के जल की भाँति दूषित होने के नाते आचारहीन प्राणी के सभी शुभ-कर्म दुष्ट (दूषित) हो जाते हैं । इसलिए आचार की संरक्षा प्रयत्न पूर्वक करनी चाहिए और वित्त (धन) तो आता-जाता रहता है । धनहीन प्राणी कभी धनवान् कहा जा सकता है किन्तु आचार से भ्रष्ट होने पर वह सदैव के लिए नष्ट हो जाता है । राजन् ! इस प्रकार भ्रष्ट होने पर वह सदैव के लिए नष्ट हो जाता है । राजन् ! इस प्रकार धर्म और कुल का मूल आचार ही है । आचार से च्युत होने पर प्राणी न कुलीन कहा जा सकता है और न धार्मिक । इसलिए दुष्टों के विशाल कुल को उपदेश देने से क्या लाभ हो सकता है, क्योंकि सुगन्धित पुष्पों में क्या कीड़े नहीं होते अर्थात् सुगन्धित पुष्पों के भीतर उत्पन्न कीड़ों पर जिस प्रकार सुगन्ध का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है । उसी भाँति दुष्टों के मन में सदुपदेश का प्रभाव व्यर्थ हो जाता है । राजन् ! हीन जाति में उत्पन्न होने पर भी वह मनुष्य यदि पवित्रता पूर्ण आचार से सम्पन्न रहता है तो वही समस्त धर्म अर्थ में कुशल (प्रवीण), कुलीन, और श्रेष्ठ कहा जाता है । क्योंकि कुल कोई नहीं अपितु आचार कुल कहा जाता है । इस आचार कुशल प्राणी लोक-परलोक सर्वत्र आनन्द प्राप्त करता है ।

युधिष्ठिर ने कहा — कृष्ण ! मैं उस शाश्वत सदाचार सो सुनना चाहता हूँ, सर्वधर्ममय कौन सदाचार बताया गया है ? बताने की कृपा करें ।

श्रीकृष्ण बोले — धर्म आचार से उत्पन्न होता है अतः आचार धर्म का कारण कहा जाता है और आचार के लक्षण सन्तों (साधुओं) में पाये जाते हैं इसलिए साधुओं के व्यवहार सदाचार कहे जाते हैं । अतः उत्तम गति के इच्छुक प्राणियों को सदाचार का पालन अवश्य करना चाहिए क्योकि पापी के शरीर में स्थित कुलक्षण (अनाचार) को भी आचार विनष्ट करता है (तथा उसे पवित्र कर देता है)। अदृश्य और अद्भुत वेद भी धार्मिक पुरुष को, अपने कर्मों को सुसम्पन्न करने के नाते (लोक) प्रिय बना देता है । इसलिए नास्तिक, नैष्टिक, गुरु और शास्त्र की आज्ञाओं का उल्लंघन करने वाले, अधर्मी, दुराचारी क्षीणायु होते हैं । समस्त लक्षणों से रहित होने पर भी मनुष्य सदाचारी होने के नाते श्रद्धालु और अनिन्दित होकर अपनी सभी कामनाएँ सफल करता है ।

धर्म और अर्थ (अपनी आजीविका) का चिन्तन करते मनुष्य को ब्रह्म मुहूर्त में (शय्या से) उठ जाना चाहिए और ब्राह्मण अग्नि के समीप तथा सूर्योदय के समय मलत्याग कभी न करे अर्थात् सूर्योदय के पूर्व ही इस क्रिया से निवृत्त हो जाना चाहिए । दिन और रात्रि में क्रमशः उत्तराभिमुख और दक्षिणाभिमुख मलत्याग करके आचमन (कुल्ला), स्नान और प्रातःकाल की संध्या उपासन करे और उसी भाँति पुनः मौन होकर सायं संध्या की उपासना करें । उदय अस्त होते समय सूर्य का कभी दर्शन न करे । क्योंकि इन्हीं क्रमों को सुसम्पन्न करने के नाते और दीर्घतप द्वारा ऋषिगण दीर्घायु प्राप्त करते हैं । प्रातःकाल और सायं की संध्या न करने वाले द्विजों को राजा शूद्रकर्मों में लगाये । निर्बाध स्थानों में यथेच्छ मलमूत्रका त्याग करना चाहिए । उस समय सिर को ढके हुए मलत्याग करके भूमि को तृणों से आच्छादितकर, मलत्याग करे । गाँव, गृह तीर्थस्थान, क्षेत्रों (खेतों) के मार्ग, जोती भूमि और गौओं के रहने के स्थान में मूत्र त्याग (पेशाब) न करना चाहिए । मलत्याग करने के अनन्तर जल के भीतर, आश्रम, वल्मीकि एवं चूहों के बिल और मलत्याग होने के समीप वाला भूमि, इन पाँच स्थानों से (अशुद्धि के कारण) मिट्टी नहीं लेनी चाहिए । देवों की अर्चना करके गुरु की पूजा करना चाहिए तथा उसी प्रकार अन्न भोजन भी आचमन पूर्वक ही करे । फेन तथा गंध रहित स्वच्छ जल से सादर आचमन पूर्वभिमुख या उत्तराभिमुख होकर सदैव मनुष्य को करना चाहिए क्योंकि वह त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) का साधन बताया गया है उसी द्वारा गृहस्थ के लोक-परलोक की सिद्धि भी होती है । अपनी आय का चौथाई (एक भाग) परलोक के कार्यों में, एक भाग का संचय तथा आधेभाग से भोजन और नित्य नैमित्तिक कार्यों को सम्पन्न करे । नृप ! धनोपार्जन में विद्वानों को सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए, क्योंकि अर्थ सिद्धि द्वारा ही धर्म अर्थ एवं कामनाओं की सिद्धि होती है । केश प्रसाधन (शिर के बालों को सँवारना), दर्पण देखना, दातून करना, और देवपूजन क्रियाएँ पूर्वाह्ण के समय ही करना चाहिए । घर से दूर मूत्रत्याग, पादप्रक्षालन, और (पाकालय के) झुठे अन्नादि फेंकना चाहिए । हाथ से मिट्टी मलते रहने, (नाखूनों से) तृणच्छेदन, नख से नख काटने, नित्य उच्छिष्ट (जूठा भोजन करने वाले), और जार पुरुष होकर संकर (वर्णसंकर) की उत्पत्ति करने वाले मनुष्य दीर्घजीवी नहीं होते हैं । दूसरे की नग्नस्त्री और अपना मल नहीं देखना चाहिए । रजस्वला स्त्री का दर्शन, स्पर्श और उसके साथ संभाषण, तथा जल में मल-मूत्र का त्याग एवं मैथुन नहीं करना चाहिए । मूत्र में मलत्याग न करे । केश, भस्म, कपाल, तुषांगार (भूसी की अग्नि) और अस्थि (हड्डी) मिश्रित रस्सी या वस्त्रादि धारण करने वाले पुरुष को न नमस्कार करे और न आसन प्रदान करे । केवल ब्राह्मणों को ही नमस्कार और आसन प्रदान करे और सेवा करने के उपरांत जब वे जाने लगे तो उनके पीछे (कुछ दूर) सादर उनका अनुगमन भी करे । उनके पृथक् आसन और पृथक् कांस्यपात्र भी न होने चाहिए । केश बाँधे भोजन, नग्न स्नान, नग्न शयन और जूठामुख किये शयन न करे । उच्छिष्ट (जूठे मुख) शिर स्पर्श न करे क्योंकि समस्त प्राण आदि उसी के आश्रित रहते हैं । उसी भाँति (किसी के) सिर के बालों को न पकड़ना चाहिए और न सिर पर प्रहार ही करें । पुत्र तथा शिष्य को शिखा (चोटी) पकड़ कर कभी न मारे और दोनों हाथों को मिलाकर अपना सिर कभी न खुजलाये । मनुष्य को निष्प्रयोजन बार-बार सिर से स्नान न करना चाहिए क्योंकि ग्रहण समय के अतिरिक्त बार-बार सिर से स्नान करना निन्दित बताया गया है । भोजनोपरान्त किसी गम्भीर जलाशय में सिर से स्नान और अंग में तैलमर्दन न करे । तिल की पीठी का भोजन न करना चाहिए, क्योंकि गरिष्ठ होने ने नाते देरी से पचता है ।

गुरु को कभी कटुवाक्य न कहे अपितु क्रुद्ध देखकर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करे । दूसरे की भी निन्दा न सुने । सदैव प्रसन्नमुख मुद्रा में रहना चाहिए । मनुष्यों को प्रशस्त औषधी और गारुड रत्न प्रयत्नपूर्वक धारण करना चाहिए । स्निग्ध निर्मल केश एवं सुगन्ध लगाकर, श्वेत वर्ण के प्रिय पुष्पों की माला धारण किये मनुष्यों को सदैव अपना सुन्दर वेष बनाये रखना चाहिए । किसी पराये का अल्प धनोपहरण न करे, कभी भी अप्रिय बात न कहे । असत्य विप्र भाषण न करे, न अन्य के दोष का प्रचार करे । पुरुषों को दूसरे का वैर (झगड़) न अपनाना चाहिए । किसी दोष पूर्ण सवारी पर न बैठें, कभी नदी तट की छाया में विश्राम न करे । विद्वेषी, पतित, उन्मत्त, अनेक भाँति के वैर आदि करने का व्यसनी, कुलटा स्त्री और उसके पति, (विचार के) क्षुद्र व्यक्ति, झूठी कथाओं के कहने वाले, अति व्यय करने वाले, और दूसरे की सतत निन्दा करने वाले एवं शठ मनुष्यों के साथ विद्वानों को कभी मैत्री न करनी चाहिए । नरेश्वर ! अकेले मार्ग न चले, किसी जल समूह के वेग के सामने स्नान न करे । जलते हुए घर में प्रवेश न करें, किसी वृक्ष के शिखर (ऊपरी) भाग पर आरोहण न करे । किसी शव को देख कर ‘हुँ’ न कहे, क्योंकि शव का गन्ध सोम से उत्पन्न होना बताया जाता है । दाँतों के संघर्ष (दाँतों से दाँतों को काटना), और नासिका चञ्चल न करनी चाहिए । भलीभाँति विना मुख शुद्ध किये न बोले न दीर्घनि:श्वास (लम्बी सांस) न ले और न खांसे । बल पूर्वक शब्द समेत (ठट्ठामार के) न हंसे और शब्द (ध्वनि) समेत मुख से वायु न निकाले । न नख से बजाये, न कोई वस्तु (या नख ही) काटे और न नखों से भूमि में ऐसा क रे। श्मश्रु (दाढ़ी) का मुख में स्पर्श न करे, हाथ से मिट्टी मलने का अभ्यास न करे । चरण के ऊपर चरण न रखे और न किसी पूज्य के सम्मुख करे । गुरुजनों के सम्मुख किसी ऊँचे आसन पर न बैठे । इसलिए सदैव सदाचारी बने रहने का प्रयत्न करे, स्वेच्छाचारी का नहीं । क्योंकि उससे दोनों लोक में शुभ की प्राप्ति पूर्वक अन्त में स्वर्ग सम्मान प्राप्त होता है । रात्रि में सर्वदा चौराहे, चैत्य वृक्ष, श्मशान के उपवन और दुष्ट स्त्री से दूर रहना चाहिए । ग्रीष्म और वर्षाकाल में छाता लगायें । रात्रि तथा वन में मौन रहे । केश, अस्थि, कण्टक (काँटे), अपवित्र बलि, भस्म, भूसी, स्नान से गीली, भूमि दूर से त्याग करना चाहिए ।

ब्राह्मणों, राजाओं, स्त्रियों तथा विद्वान्, गर्भिणी और महान् भारवाही पुरुषों का मार्ग दूर से छोड़ देना चाहिए । उसी भाँति मूक (गूंगे) बधिर, अन्धे, मत्त और उन्मत्त का भी मार्ग छोड़ दे । दूसरे का उपानह, जूते, वस्त्र और माला न धारण करे । लोक में उस प्रकार का क्षीणायु बनाने वाला अन्य कोई कर्म नहीं हैं जितना कि परस्त्री का उपभोग । स्त्रियों से कभी भी ईर्ष्या न करके प्रयत्न पूर्वक सदैव उनकी रक्षा ही करनी चाहिए क्योंकि ईर्ष्या अल्पायु बनाती हैं अतः उसका त्याग ही करना चाहिए । मूर्ख, उन्मत्त, व्यसनी, कुरूप, मानी, हीनांग, अधिकाङ्ग और विद्याहीन प्राणियों की निन्दा न करे । महाराज ! नक्त व्रत में पानीय क्रिया, दही, सत्तू और निशीथ (मध्यरात्रि) में भोजन करना वर्जित है । ऊपर घुटने पर चिर काल तक न ठहरे, रहस्यात्मक न बने, और चरण से बिस्तरे को लपेटे न बैठे । उसी प्रकार अत्यन्त रक्त, चित्र-विचित्र और काले वस्त्र न धारण करे तथा भूषण-वस्त्र में उलट-फेर न करे । दीर्घजीवन के इच्छुक को कभी दुबली-पतली स्त्री का अपमान न करना चाहिए (दुर्बल नहीं समझना चाहिये)। ब्राह्मण या क्षत्रिय ये सभी सर्प की भाँति होते हैं, अतः इनसे सदैव सतर्क रहें । क्योंकि सर्प क्रुद्ध होने पर दाँत से काटता है, कुद्ध क्षत्रिय भी अपने तेज बल द्वारा (वादी) को समूल नष्ट करता है और ब्राह्मण तो ध्यान करने और देखने मात्र से उसे कुल समेत नष्ट कर देते हैं । अत्यन्त प्रातःकाल, दोपहर और संध्या समय, अपरिचित के साथ, अकेले तथा अनेकों के साथ यात्रा न करें । किसी के मर्मस्थल में पीड़ा न पहुँचाये, न परोक्ष होने और परशु (कुल्हाड़े) से काटने पर भी वन (के वृक्ष गण), अकुंरित हो जाते हैं किन्तु प्रतिवादी के वीभत्सवचन से मर्माहत होने पर प्राणी कदापि पल्लवित नहीं हो सकता है । नास्तिकता, वेदनिन्दा, देवों की निन्दा और द्वेष स्तम्भादि मान की कृपणता से सदैव दूर रहना चाहिए । ब्राह्मण से कलह तथा नक्षत्र दर्शन न करना चाहिए एवं तिथियों आदि के बताने का कार्य भी न करे क्योंकि इससे आयु क्षीण होती है । गर्भाधान होने और वस्त्र धारण करने पर विद्वान् को आचमन करना चाहिए ।

शत्रुजेता राजा के निकट, जो बलवान् और अपने कर्मों में सदैव तत्पर रहता है, सुखदर्शन निवास कर बुद्धिमान् को कृतकृत्य हो जाना चाहिए । क्योंकि जिस स्थान के निवासी आपस में सुसंगठित रहते और न्याय प्रिय होते हैं तथा स्त्रियाँ आपस में ईर्ष्या-द्वेष नहीं करती है वहाँ का जीवन सुखमय होता है । जिस राष्ट्र में प्रायः खेतिहर किसान (प्रजाएँ) अतिभाषी नहीं होते और समस्त औषधियाँ सुलभ रहती हैं वहाँ बुद्धिमान् को अवश्य निवास करना चाहिए । राजन् ! जहाँ आपस के एक दूसरे की विजय के इच्छुक, पूर्व वैर के स्मरण करने वाले एवं उत्सवों आदि से उदासीन रहने वाली जनता, ये तीनों का साथ हो वहाँ कदापि निवास न करे । राजन् ! उसी भाँति जहाँ ऋणदाता, वैद्य, वेदपाठी विद्वान्, सदैव जल पूर्ण नदी, ये चारों न हों, वहाँ कदापि निवास न करे । बुद्धिमान् मनुष्य को मलिन दर्पण में कभी भी मुख दर्शन न करना चाहिए । महाराज! दीर्घ काल तक राज्य सुखोपभोग के इच्छुक राजाओं को रात्रि में सुवर्णकार (सोनार) के यहाँ अन्न-भोजन और उसका विश्वास कभी न करना चाहिए। सोनार को कभी मित्र भी न बनाना चाहिए । टूटा-फूटा पात्र, खट्टा (चारपाई), कुत्ते और मुर्गे, इन चारों समेत काँटेवाला भी अप्रशस्त बताये गये हैं । क्योंकि टूटे-फूटे पात्र में बलि प्रदान, खट्टा में शयन, तथा कुत्ते-मुर्गे वालों के घर पितरं कभी भी भोजन नहीं करते और न तृप्त होते हैं ।

वृक्ष के मूल भाग में सभी पिशाचों की स्थिति होती है इसलिए उसके नीचे भोजन करना पूप (पीव) और शोणित का भोजन करना है। वहाँ कच्चे अन्न का भक्षण भी बालादि जनित मूत्र के समान होता है । सुवासिनी सभी गर्भिणी, वृद्धा, चपल बच्चे को घर में सबसे प्रथमं भोजन कराना चाहिए । गौ, विश्वास कभी न वाहन आदि को बाँधे हुए, बाहर भोजन करने वाले जो अपने बड़ों के देखते उन्हें न देकर भोजन कर लेते हैं, लोग केवल पापभोजन करते हैं अन्न नहीं । आहुतियों के क्रमानुसार वैश्वदेव करना चाहिए-प्रथम आहुति ब्रह्मा के लिए, दूसरी प्रजापति, तीसरी गुह्य, चौथी कश्यप और पाँचवीं आहुति अनुमति को देनी चाहिए । गृह बलि देने के उपरांत जिनको मैंने.नित्य कर्म विधान में संकेत किया है उन्हें मिट्टी के तीन बड़े कलश प्रदान करना चाहिए । पूर्वादि दिशाओं में क्रमानुसार इन्द्र आदि को बलि प्रदान करे । उसी भाँति ब्रह्मा, अन्तरिक्ष, सूर्य को क्रमशः बलि देकर अपसव्य (दाँये कन्धे से दाहिने कन्धे पर यज्ञोपवीत करके), विश्वेदेव और विश्वभूत को वायव्य कोण में बलिप्रदान करे । सर्वप्रथम उसका अग्रभाग सहर्ष यथाविधान यथान्याय किसी ब्राह्मण को अर्पित करे । नरेश्वर ! इस भाँति सविधान देवों, गुरुजनों और वेदपाठी ब्राह्मणों को तृप्त कर स्वयं पुष्प सुगन्धित वस्त्र और माला धारण कर एक ही वस्त्र लिए और आईपाद (तुरन्तं चरण धोकर) भोजन करे किन्तु विदिशाओं (कोने) में मुख करके नहीं, अपितु पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर । भोजन समय भोजन के अतिरिक्त और निन्दित एवं वद भोजन नष्ट हो जाता है । नृप ! अन्यमनस्क होने से वह भोजन नष्ट हो जाता है । नृप ! शिष्ट (शास्त्रानुगामी) तथा क्षुधापीडित ब्राह्मणों को प्रथम भोजन तृप्त करके किसी शुद्ध और प्रशस्त पात्र में गृहस्थ को प्रेम पूर्वक भोजन करना चाहिए । नरेश्वर! खट्वा (चारपाई) स्थित पात्र में, अदेश, अकाल और अति संकीर्ण स्थान में बलि प्रदान न कर इससे भिन्न एवं प्रशस्त स्थान में देना चाहिए । पश्चात् तन्मय होकर भोजन करते समय सर्वप्रथम मधुर रस का भोजन करे, तदनन्तर लवण रस से बनाया हुआ उग्र और उसके पीछे कटु तथा तीक्ष्ण रस का आस्वादन करे । मृदु पदार्थ भक्षण करते हुए पुरुष को मध्य में कठिन (गुरु) पदार्थ और अन्त में द्रव (रसदार) पदार्थ का भक्षण करना चाहिए, उससे वह रोग मुक्त होता है । दिन में भूने हुए जवा (बहुरी), रात्रि में दही और सत्तू तथा कचनार में अलदत्री (दुर्भाग्य) का सदैव निवास रहता है । अतः उस समय उनके सेवन न करे । नित्य पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख मौन रहकर अन्न की निन्दा न कर अनिन्दित अन्न का भक्षण करे और भोजनोपरांत आचमन (कुल्ला) से कर भली भाँति मुख शुद्ध करे । भले प्रकार से दोनों हाथ शुद्ध कर तथा आचमन (कुल्ला) करके अभीष्ट देवताओं का स्मरण करे —

प्राणापानसमानानामुदानव्यानयोस्तथा ।
अन्नं पुष्टिकरं चास्तु ममाद्याव्याहतं सुखम् ॥
अगस्तिरग्निर्वडवानलश्च भुक्तं प्रत्रान्नं जरयत्वशेषम् ।
सुखं च मे तत्परिणामसम्भवं गच्छत्वरोगं खलु वासुदेवः ॥
(उत्तरपर्व २०५ । ११५-११६)
प्राण अपान, समान, उदान, और व्यान, ये समस्त वायुगण मेरे उदरस्थ अन्न की पुष्टि करने की कृपा करें । जिससे मुझे निर्वाध सुख की प्राप्ति हो । अगस्त्य, अग्नि तथा वडवानल, ये तीनों मेरे उदरस्थ समस्त अन्न (जठराग्नि द्वारा) परिपक्व करें और भगवान् वासुदेव उसके परिणाम रूप सुख आरोग्य प्रदान करें। ऐसा कहते हुए अपने हाथ से समस्त उदर भाग का स्पर्श करके पुनः अल्प प्रयास वाले कर्मों को निरालस होकर करे।

भारत ! यदि संध्या समय पर किसी पथिक का आगमन हो जाये तो, ‘आइये आप का स्वागत है’ कहते हुए हाथ-पैर धोने आदि के जल और आसन, भोजन, शयन, आदि द्वारा उसे पूजित करे । पार्थिव ! दिन में अभ्यागत के विमुख होकर लौट जाने पर एक ही घातक होता है किन्तु सायंकाल के समय उसके निराश लौटने पर उसका आठगुना अधिक घातक होता है । नृप ! सुन्दर काष्ठ की शय्या पर भी शयन करे किन्तु छोटी, भग्न, असम (टेढ़ी) मलिन, और जीव वाली शय्या पर विपत्तियों के अतिरिक्त कभी न शयन करे । भूपते ! पुरुषों को शयन के समय सदैव पूर्व अथवा दक्षिण दिशा की ओर सिर रखना प्रशस्त कहा गया है तथा उससे विपरीत दिशा में रोगप्रद बताया है ।

अवनीपते ! प्रथम स्त्री के अन्त काल उपस्थित होने पर सपत्नी (दूसरी स्त्री) में सम्भोग करना प्रशस्त कहा गया है, परन्तु, पुण्यनक्षत्र, शुभकाल और युग्मरात्रि में उसका भी उपयोग करे जिससे पुत्रों की उत्पत्ति हो और बिना स्नान की हुए स्त्री, गर्भिणी, रजस्वला, अनिष्ट, क्रुद्ध, प्रशस्त, रोगी, मूर्ख अन्यमनस्कता, कामरहित, परस्त्री, क्षुधापीडित, और अति भोजन की हुई स्त्री के साथ सम्भोग न करे । पुरुष को स्वयं निम्नलिखित गुणों से युक्त होकर विहार करना चाहिए-स्नान कर सुगन्ध लगाये, धृष्ट हो, श्रान्त, क्षुधापीड़ित न रहे, और काम समेत एवं अनुराग पूर्ण पुरुष को मैथुन न करना चाहिए । चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा तथा पर्व की तिथियों में तैलाभ्यंग और स्त्री सभ्मोग न करना चाहिए । भारत ! क्षौर कर्म, सम्भोग के उपरांत और कटे-भूमि के स्पर्श होने पर सवस्त्र स्नान करे । भारत ! गुरुजन, पतिव्रता स्त्रियो, यज्ञानुष्ठान करने वाले तपस्वी का परिहास के समय भी निन्दा न करनी चाहिए । बुद्धिमान् को एक साथ जल और अग्नि न उठाना चाहिए, गुरुजन और देवों के सम्मुख पैर न फैलाये । जल पान करती हुई गौ की ओर मुख कर कुछ न कहे, अञ्जली से जलपान न करे । वायु और आतप (धूप) का सेवन न करे ! अनुताप (पश्चात्ताप) करना त्याग दे । सेवक को डाँटना फटकारना अनुचित नहीं है किन्तु क्रुद्ध होकर नहीं । समस्त बन्धुवर्गों से मत्सर न करे । भयभीत को आश्वासन देनेवाले पुरुष के लिए स्वर्ग साधु सुलभ कहा गया है, जिसका अव्यय फल प्राप्त होता है ।

गृह द्वार के ऊपरी भाग को देखते हुए मनुष्य को न चलना चाहिए, क्योंकि मनुष्य को चार पग भी भूमि देख कर ही चलना चाहिए । जो संयमी पुरुष शेषनाग के सम्मुख भी शरीर के शेष षडंग शत्रु (क्रोध, लोभ, मोह, द्वेष, ईष्र्या, मार्क्सय) को न अपनाकर उनका निराकरण ही करता है, उसके धर्म, अर्थ और कामनाओं की कभी अल्प भी हानि नहीं होती हैं । निन्दा, विवाद, तथा चुगुली करने से दूर रहना चाहिए । लपसी, खिचड़ी, मांस, पूरी और खीर देवता के निमित्त ही बनाना चाहिए आत्मार्थ नहीं । पण्डितों को बकरी की रस्सी और वकरी का स्पर्श तथा रक्त वर्ण की माला न धारण कर श्वेत पुष्प की माला धारण करनी चाहिए । विभो ! कमल कुवलय (कुमुद) के अतिरिक्त रक्त कमल और पानेय शिरोधार्य करना चाहिए । काञ्चनी माला कभी भी दूषित नहीं होती है । नरोत्तम ! मनुष्य को शयन के समय अन्य वस्त्र, देवों की अर्चा में अन्य और सभाओं में अन्य वस्त्र धारण करना चाहिए । संसार सुखेच्छक पुरुष को पीपल, बरगद, फटे-चिथरे लसोड़ा और गूलर के फल न खाना चाहिए । कथाओं के अन्त में भी पतितों का सम्पर्क छेदन न करे । क्योंकि राजन् ! पतितों का सहचारी भी पतित हो जाता है । गृहवृद्धि के इच्छुक को गृह में (भण्डारी के स्थान) किसी वृद्ध, जातीय, मित्र अथवा दरिद्र को नियुक्त करना चाहिए । गृह में रहने वाले कपोत, शुक और मैना धन्य कहे गये हैं । यद्यपि ये पापी और तिलभोजी भी होते हैं । गृह में आजोक्षा चन्दन, वीणा, दर्पण, मधु, घृत, जल और अग्नि नित्य रहना चाहिए । नराधिप ! धनुर्वेद के अध्ययन एवं अभ्यासार्थ निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए । राजेन्द्र! हाथी, घोड़े की पीठ पर और रथ में सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि नीतिज्ञ प्राणी ही सुखी रहता है । नृप ! प्रजापालन करने वाला राजा क्षमाशील नहीं होता है । भारत ! यज्ञशास्त्र (पूर्व मीमांसा), शब्दशास्त्र (व्याकरण) गान्धर्व शास्त्र (धनुर्विद्या), चौसठकला, पुराण, इतिहास, तथा समस्त आख्यान का मर्मवेत्ता अवश्य होना चाहिए ।

नराक्षिप! मैंने तुम्हें आचार का लक्षण और उसका उद्देश्य बता दिया शेष बाते वृद्धों से जाननी चाहिए । आचार द्वारा ऐश्वर्य की प्राप्ति और वृद्धि होती है तथा आयु वृद्धि समेत कुलक्षण (दोष) का विनाश होता है । सभी आगमों में आचार ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि आचार ही परम धर्म है और उसी से धन वृद्धि, स्वर्ग प्रद और महान् कल्याण कारी आचारोपदेश की व्याख्या तुम्हें समस्त वर्षों (के मनुष्यों) के सुखार्थ सुना दिया । नरपुङ्गव! राजन्! आचार पालन करने से मनुष्यों के धर्म, अर्थ और कामनाएँ सदैव सफल होती रहती हैं अतः शास्त्रमर्मज्ञ विद्वानों को शास्त्रीय आचारों के पालन अनुहित सम्पन्न करना चाहिए।
(अध्याय २०५)

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