January 16, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय २०७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय २०७ श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन-वर्णन श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! मैंने व्रत तथा दान द्वारा तुम्हें धर्मों का वर्णन सुनाया है, क्योंकि यही धर्म के मूल कारण हैं । अतः तुम निरन्तर अपनी धार्मिक भावना दृढ़ करो । पार्थ ! मैंने जानबूझ कर काम और अर्थ के ऊपर प्रकाश नहीं डाला है, क्योकि लोक जिस विषय में स्वयं प्रवृत्त है, उसका वर्णन करने से क्या लाभ हो सकता है । कूप में अंधे को गिराने की भाँति मनुष्य को कामी के लिए काम के वर्णन और लोभी के निर्मित अर्थलोभ के वर्णन करने से और क्या लाभ हो सकता है । पाण्डुनन्दन ! इस प्रकार भविष्य पुराण का उत्तर भाग तुम्हें मैंने सुना दिया, जिसमें सदाचारशील पुरुषों के लिए दान व्रत का समुच्चय वर्णन किया गया है । भारत ! इतिहासों और पुराणों में मैंने जो कुछ देखा है, उन वेद वेदाङ्ग सम्बन्धी सभी बातों को तुम्हारे सामने प्रकट किया । मनुजोत्तम ! इसमें जो कुछ कहीं लोक और वेद के विरुद्ध निरूपित है उसमें किसी प्रकार की आस्था न कर केवल उसे ब्राह्मणों का आलाप मात्र जानो । पार्थ ! मैंने आप के स्नेह से अत्यन्त विवश होकर इन बातों को प्रकाशित किया है अन्यथा ऋषियों के समक्ष कोई बात कहने में वाणी कुण्ठित हो जाती है । दम्भी, शठ, नास्तिक, अन्यमनस्क. कुतर्क से हतबुद्धि होने वाले मनुष्यों के समक्ष इसे अप्रकाशित रख कर सदाचारी, शुद्ध, सत्यपरायण पुरुष, को अर्पित करना चाहिए । क्योंकि यह (भविष्यपुराण का) आख्यान शुभगति प्रदान करता है । नरेन्द्र ! मैंने तुम्हारे सौहार्दवश यह भविष्योत्तर नामक पुराण, जिसमें वर्णाश्रमों और देवश्रेष्ठों के आख्यान हैं और प्रख्यात है, विवेचन पूर्ण सुना दिया । पार्थ ! धर्मार्थवेत्ता और परावर (ऊँच-नीच) के सिद्ध्यर्थ करने के नाते तुम स्वयं धर्ममूर्ति हो, किन्तु पूछने के नाते मैंने भी धर्म का वर्णन किया है, अब मैं द्वारका पुरी जाऊँगा और उस महोत्सव में यज्ञानुष्ठान के अवसर पर पुनः आने की चेष्टा करूंगा । अतः सभीकुछ काल के अधीन जानकर आप इसमें कुछ भी अनुताप न करेंगे । महात्मा कृष्ण के ऐसा कह कर गमन कामनया पाण्डुपुत्रों द्वारा पूजित एवं हर्षित होते हुए मित्रगण, और जातीय बन्धुओं आदि की सम्मति से विदा होकर ब्राह्मणों को सादर नमस्कार करके द्वारका को प्रस्थान किया । इस प्रकार याज्ञवल्क्य मुनि के सादर पूछने पर भगवान् वशिष्ठ ने अनेक भाँति जो कुछ निश्चित उत्तर दिया है, और पाण्डुपुत्र (युधिष्ठिर) के समक्ष उन्हें जो उपदेश किया है, उसी को मुनि श्रेष्ठ व्यास जी ने पुराण का रूप प्रदान किया है । पराशरपुत्र एवं संत्यवती के हृदय नन्दन भगवान् व्यास की जय हो, जिसके मुख- कमल से निकले हुए वाणीरूपपुण्यमधु (शहद) का पान सारा संसार करता है । (अध्याय २०७) Related