January 1, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय २ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय २ भुवनकोश का संक्षिप्त वर्णन महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! यह जगत् किसमें प्रतिष्ठित है ? कहाँ से उत्पन्न होता है ? इसका किसमें लय होता है ? इस विश्व का हेतु क्या हैं ? पृथ्वीपर कितने द्वीप, समुद्र तथा कुलाचल हैं ? पृथिवी का कितना प्रमाण ? कितने भुवन हैं ? इन सबका आप वर्णन करें । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! आपने जो पूछा है, वह सब पुराण का विषय है, किंतु संसार में घूमते हुए मैंने जैसा सुना और जो अनुभव किया है, उनका संक्षेप में मैं वर्णन करता हूँ । सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित—इन पाँच लक्षणों से समन्वित पुराण कहा जाता है । अनघ ! आपका प्रश्न इन पाँच लक्षणों मे से सर्ग (सृष्टि) — के प्रति ही विशेषरूप से सम्बद्ध है, इसलिये इसका मैं संक्षेप में वर्णन करता हूँ । अव्यक्त-प्रकृति से महत्तत्त्व-बुद्धि उत्पन्न हुई । महत्त्व से त्रिगुणात्मक अहंकार उत्पन्न हुआ, अहंकार से पञ्चतन्मात्र, पञ्चतन्मात्राओं से पाँच महाभूत और इन भूतों से चराचर जगत् उत्पन्न हुआ है । स्थावर-जङ्गमात्मक अर्थात् चराचर जगत् के नष्ट होने पर जलमूर्तिमय विष्णु रह जाते हैं अर्थात् सर्वत्र जल परिव्याप्त रहता है, उससे भूतात्मक अण्ड उत्पन्न हुआ । कुछ समय के बाद उस अण्ड के दो भाग हो गये । उसमें एक खण्ड पृथिवी और दूसरा भाग आकाश हुआ । उसमें जरायु से मेरु आदि पर्वत हुए । नाडियों से नदी आदि हुई । मेरु पर्वत सोलह हजार योजन भूमि के अंदर प्रविष्ट हैं और चौरासी हजार योजन भूमि के ऊपर है, बत्तीस हजार योजन मेरु के शिखर का विस्तार है । कमल-स्वरूप भूमि की कर्णिका मेरु है । उस अण्ड से आदि-देवता आदित्य उत्पन्न हुए, जो प्रातःकाल में ब्रह्मा, मध्याह्न में विष्णु और सायंकाल में रुद्ररूप से अवस्थित रहते हैं । एक आदित्य ही तीन रूपों को धारण करते हैं । ब्रह्मा से मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, भृगु, वसिष्ठ और नारद—ये नौ मानस-पुत्र उत्पन्न हुए । पुराणों में इन्हें ब्रह्मपुत्र कहा गया है । ब्रह्मा के दक्षिण अँगूठे से दक्ष उत्पन्न हुए और बाये अँगूठे से प्रसूति उत्पन्न हुई । दोनों दम्पति अँगूठे से ही उत्पन्न हुए । उन दोनों से उत्पन्न हर्यश्व आदि पुत्रों को देवर्षि नारद ने सृष्टिके लिये उद्यत होनेपर भी सृष्टिसे विरत कर दिया । प्रजापति दक्षने अपने पुत्र हर्यश्वों को सृष्टिसे विमुख देखकर सत्या आदि नामवाली साठ कन्याओं को उत्पन्न किया और उनमें से उन्होंने दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताईस चन्द्रमा को, दो बाहुपुत्र को, दो कुशाश्व को, चार अरिष्टनेमि को, एक भृगु को और एक कन्या शंकर को प्रदान किया । फिर इनसे चराचर-जगत् उत्पन्न हुआ। मेरु पर्वतके तीन शृङ्गों पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव की क्रमशः वैराज, वैकुण्ठ तथा कैलास नामक तीन पुरियाँ हैं । पूर्व आदि दिशाओ में इन्द्र आदि दिक्पालों की नगरी है । हिमवान्, हेमकूट, निषध, मेरु, नील, श्वेत और शृङ्गवान्—ये सात जम्बूद्वीप में कुल-पर्वत हैं । जम्बूद्वीप लक्ष योजन प्रमाणवाला है । इसमें नौं वर्ष हैं। जम्बू, शाक, कुश, क्रौंच, मलि, गोमेद* तथा पुष्कर ये सात द्वीप हैं । ये सात द्वीप सात समुद्रों से परिवेष्टित है। क्षार, दुग्ध, इक्षुरस, सुरा, दधि, घृत और स्वादिष्ट जल के सात समुद्र हैं । सात समुद्र और सातों द्वीप एक की अपेक्षा एक द्विगुण हैं । भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक—ये देवताओके निवास स्थान हैं । सात पाताललोक हैं—अतल, महातल, भूमितल, सुतल, वितल, रसातल तथा तलातल । इनमें हिरण्याक्ष आदि दानव और वासुकि आदि नाग निवास करते हैं। हे युधिष्ठिर ! सिद्ध और ऋषिगण भी इनमें निवास करते हैं। स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष — ये छः मनु व्यतीत हो गये हैं, इस समय वैवस्वत मनु वर्तमान हैं । उन्हीं के पुत्र और पौत्रों से यह पृथिवी परिव्याप्त है । बारह आदित्य, आठ वसु. ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार—ये तैतीस देवता वैवस्वत मन्वन्तरमें कहे गये हैं । विप्रचित्तिसे दैत्यगण और हिरण्याक्षसे दानवगण उत्पन्न हुए हैं । द्वीप और समुद्रों से समन्वित भूमिका प्रमाण पचास कोटि योजन है । नौका की तरह यह भूमि जल पर तैर रही है । इसके चारों ओर लोकालोक-पर्वत है । नैमित्तिक, प्राकृत, आत्यन्तिक और नित्य-ये चार प्रकार के प्रलय हैं । जिससे इस संसार की उत्पत्ति होती है । प्रलय के समय उसमें इसका लय हो जाता है। जिस प्रकार ऋतुके अनुकूल वृक्षों के पुष्प, फल और फूल उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार संसार भी अपने समय से उत्पन्न होता हैं और अपने समय से लीन होता है । सम्पूर्ण विश्व लीन होने के बाद महेश्वर वेद-शब्दों के द्वारा पुनः इसका निर्माण करते हैं । हिंस्र, अहिंस, मृदु, क्रूर, धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य आदि कर्मोसे जीव अनेक योनियोंको इस संसारमें प्राप्त करते हैं। भूमि जलसे, जल तेजसे, तेज़ वायुसे, वायु आकाशसे वेष्टित है। आकाश अहंकारसे, अहंकार महत्तत्त्वसे, महत्तत्त्व प्रकृतिसे और प्रकृति उस अविनाशी पुरुषसे परिव्याप्त है। इस प्रकारके हजारों अप्ड उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। सुर, नर, किन्नर, नाग, यक्ष तथा सिद्ध आदिसे समन्वित चराचरजगत् नारायणकी कुक्षिमें अवस्थित है। निर्मल-बुद्धि तथा शुद्ध अतःकरणवाले मुनिगण इसके बाह्य और आध्यत्तरस्वरूपको देखते हैं अथवा परमात्माकी माया ही उन्हें जानती हैं। (अध्याय २) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe