January 3, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय २६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय २६ अनन्त-तृतीया तथा रसकल्याणिनी तृतीया-व्रत राजा युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! अब आप सौभाग्य एवं आरोग्य-प्रदायक, शत्रुविनाशक तथा भुक्ति-मुक्ति-प्रदायक कोई व्रत बतलाइये । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! बहुत पहले की बात है, असुर-संहारक भगवान् शंकर ने अनेक कथाओं के प्रसंग में पार्वतीजी से भगवती ललिता की आराधना की जो विधि बतलायी थी, उसी व्रत का मैं वर्णन कर रहा हूँ, यह व्रत सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला तथा नारियों के लिये अत्यन्त उत्तम है, इसे आप सावधान होकर सुनें — वैशाख, भाद्रपद अथवा मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को श्वेत सरसों का उबटन लगाकर स्नान करे । गोरोचन, मोथा, गोमूत्र, दही, गोमय और चन्दन — इन सबको मिलाकर मस्तक में तिलक करे, क्योंकि यह तिलक सौभाग्य तथा आरोग्य को देनेवाला है तथा भगवती ललिता को बहुत प्रिय है । प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को सौभाग्यवती स्त्री रक्तवस्त्र, विधवा गेरु आदि से रँगा वस्त्र और कुमारी शुक्ल वस्त्र धारणकर पूजा करे । भगवती ललिता को पञ्चगव्य अथवा केवल दुग्ध से स्नान कराकर मधु और चन्दन-पुष्प-मिश्रित जल से स्नान कराना चाहिये । स्नान के अनन्तर श्वेत पुष्प, अनेक प्रकार के फल, धनिया, श्वेत जीरा, नमक, गुड़, दूध तथा घी का नैवेद्य अर्पणकर श्वेत अक्षत तथा तिल से ललितादेवी की अर्चना करे । प्रत्येक शुक्ल पक्ष में तृतीया तिथि को देवी की अर्चना करे । प्रत्येक शुक्ल पक्ष में तृतीया तिथि को देवी की मूर्ति के चरण से लेकर मस्तकपर्यन्त पूजन करने का विधान इस प्रकार है — ‘वरदायै नमः’ कहकर दोनों चरणों की, ‘श्रियै नमः’ कहकर दोनों टखनों की, ‘अशोकायै नमः’ कहकर दोनों पिण्डलियों की, ‘भवान्यै नमः’ कहकर घुटनों की, “मङ्गलकारिण्यै नमः’ कहकर ऊरुओं की, ‘कामदेव्यै नमः’ कहकर कटि की, ‘पद्मोद्भवायै नमः’ कहकर पेट की, ‘कामश्रियै नमः’ कहकर वक्षःस्थल की, ‘सौभाग्यवासिन्यै नमः’ कहकर हाथों की, ‘शशिमुखश्रियै नमः’ कहकर बाहुओं की, ‘कन्दर्पवासिन्यै नमः’ कहकर मुख की, ‘पार्वत्यै नमः’ कहकर मुसकान की, ‘गौर्यै नमः’ कहकर नासिका की, ‘सुनेत्रायै नमः’ कहकर नेत्रों की, ‘तुष्ट्यै नमः’ कहकर ललाट की, ‘कात्यायन्यै नमः’ कहकर उनके मस्तक की पूजा करे । तदनन्तर ‘गौर्यै नमः’, ‘सृष्ट्यै नमः’, ‘कान्त्यै नमः’, ‘श्रियै नमः’, ‘रम्भायै नमः’, ‘ललितायै नमः’ तथा ‘वासुदेव्यै नमः’ कहकर देवी के चरणों में बार-बार नमस्कार करे । इसी प्रकार विधिपूर्वक पूजाकर मूर्ति के आगे कुंकुम से कर्णिकासहित द्वादश-दलयुक्त कमल बनाये । उसके पूर्वभाग में गौरी, अग्निकोण में अपर्णा, दक्षिण भवानी, नैर्ऋत्य में रुद्राणी, पश्चिम में सौम्या, वायव्य में मदनवासिनी, उत्तर में पाटला तथा ईशानकोण में उमा की स्थापना करे । मध्य में लक्ष्मी, स्वाहा, स्वधा, तुष्टि, मङ्गला, कुमुदा, सती तथा रुद्राणी की स्थापना कर कर्णिका के ऊपर भगवती ललिता की स्थापना करे । तत्पश्चात् गीत और माङ्गलिक वाद्यों का आयोजन कर श्वेत पुष्प एवं अक्षत से अर्चना कर उन्हें नमस्कार करे । फिर लाल वस्त्र, रक्त पुष्पों की माला और लाल अङ्गराग से सुवासिनी स्त्रियों का पूजन करे तथा उनके सिर (माँग) —में सिंदूर और केसर लगाये, क्योंकि सिंदूर और केसर सतीदेवी को सदा अभीष्ट हैं । भाद्रपद मास में उत्पल (नीलकमल)— से, आश्विन में बन्धुजीव (गुलदुपहरिया)— से, कार्तिक में कमल से, मार्गशीर्ष में कुन्द-पुष्प से, पौष में कुंकुम से, माघ में सिंदुवार (निर्गुडी) से, फाल्गुन में मालती से, चैत्र में मल्लिका तथा अशोक से, वैशाख में गन्धपाटल (गुलाब)— से, ज्येष्ठ में कमल और मन्दार से, आषाढ़ में चम्पक और कमल से तथा श्रावण में कदम्ब और मालती के पुष्पों से उमादेवी की पूजा करनी चाहिये । भाद्रपद से लेकर श्रावण आदि बारह महीनों में क्रमशः गोमूत्र, गोमय, दूध, दही, घी, कुशोदक, बिल्वपत्र, मदार-पुष्प, गोशृङ्गोदक, पञ्चगव्य और बेल का नैवेद्य अर्पण करे । प्रत्येक पक्ष की तृतीया में ब्राह्मण-दम्पति को निमन्त्रित कर उनमें शिव-पार्वती की भावना कर भोजन कराये तथा वस्त्र, माला, चन्दन आदि से उनकी पूजा करे । पुरुष को दो पीताम्बर तथा स्त्री को पीली साड़ियाँ प्रदान करे । फिर ब्राह्मणी स्त्री को सौभाग्याष्टक-पदार्थ तथा ब्राह्मण को फल और सुवर्णनिर्मित कमल देकर इस प्रकार प्रार्थना करे — “यथा न देवि देवेशस्त्वां परित्यज्य गच्छति । तथा मां सम्परित्यज्य पतिर्नान्यत्र गच्छतु ॥ (उत्तरपर्व २६ । ३०) देवि ! जिस प्रकार देवाधिदेव भगवान् महादेव आपको छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाते, उसी प्रकार मेरे भी पतिदेव मुझे छोड़कर कहीं न जायें ।’ पुनः कुमुदा, विमला, अनन्ता, भवानी, सुधा, शिवा, ललिता, कमला, गौरी, सती, रम्भा और पार्वती — इन नामों का उच्चारण करके प्रार्थना करे कि आप क्रमशः भाद्रपद आदि मासों में प्रसन्न हों । व्रत की समाप्ति में सुवर्णनिर्मित कमलसहित शय्या-दान करे और चौबीस अथवा बारह द्विज-दम्पतियों की पूजा करे । प्रत्येक मास में ब्राह्मण-दम्पतियों की पूजा विधिपूर्वक करे । अपने पूज्य गुरुदेव की भी पूजा करे । जो इस अनन्त तृतीया-व्रत का विधिपूर्वक पालन करता हैं, वह सौ कल्पों से भी अधिक समय तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है । निर्धन पुरुष भी यदि तीन वर्षों तक उपवास कर पुष्प और मन्त्र आदि के द्वारा इस व्रत का अनुष्ठान करता हैं तो उसे भी यहीं फल प्राप्त होता है । सधवा स्त्री, विधवा अथवा कुमारी जो कोई भी इस व्रत का पालन करती है, वह भी गौरी की कृपा से उस फल को प्राप्त कर लेती है । जो इस व्रत के माहात्म्य को पढ़ता अथवा सुनता है, वह भी उत्तम लोकों को प्राप्त करता है। भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! अब एक व्रत और बता रहा हूँ, उसका नाम है — रसकल्याणिनी तृतीया । यह पापों का नाश करनेवाला है । यह व्रत माघ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है । उस दिन प्रातःकाल गोदुग्ध और तिल-मिश्रित जलसे स्नान करे । फिर देवी की मूर्ति को मधु और गन्ने के रस से स्नान कराये तथा जाती(चमेली)-पुष्पों एवं कुंकुम से अर्चना करे । अनन्तर पहले दक्षिणाङ्ग की पूजा करे तब वामाङ्ग की । अङ्ग-पूजा इस प्रकार करे — ‘ललितायै नमः’ कहकर दोनों चरणों तथा दोनों टखनोंकी, ‘सत्यै नमः’ कहकर पिण्डलियों और घुटनोंकी, ‘श्रियै नमः’ कहकर ऊरुऑकी, ‘मदालसायै नमः’ कहकर कटि-प्रदेशकी, ‘मदनायै नमः’ कहकर उदरकी, ‘मदनवासिन्यै नमः’ कहकर दोनों स्तनों की, ‘कुमुदायै नमः’ कहकर गरदनकी, ‘माधव्यै नमः’ कहकर भुजाओंकी तथा भुजाके अग्रभागकी, ‘कमलायै नमः ‘ कहकर उपस्थकी, ‘रुद्राण्यै नमः’ कहकर भ्रू और ललाटकी, ‘शंकरायै नमः’ कहकर पलकोंकी, ‘विश्ववासिन्यै नमः’ कहकर मुकुटकी, ‘कान्त्यै नमः’ कहकर केशपाश की, ‘चक्रावधारिण्यै नमः’ कहकर नेत्रोंकी, ‘पुष्ट्यै नमः’ कहकर मुखकी, ‘उत्कण्ठिन्यै नमः’ कहकर कण्ठकी ‘अनन्तायै नमः’ कहकर दोनों कन्धोंकी, ‘रम्भायै नमः’ कहकर वामबाहुकी, ‘विशोकायै नमः’ कहकर दक्षिण बाहुकी, ‘मन्मथादित्यै नमः’ कहकर हृदयकी पूजा करे, फिर ‘पाटलायै नमः’ कहकर उन्हें बार-बार नमस्कार करे। इस प्रकार प्रार्थना कर ब्राह्मण-दम्पति की गन्धमाल्यादि से पूजा कर स्वर्णकमल सहित जलपूर्ण घट प्रदान करे । इसी विधि से प्रत्येक मास में पूजन करे और माघ आदि महीनों में क्रमशः लवण, गुड़, तेल, राई, मधु, पानक (एक प्रकारका पेय पदार्थ या ताम्बूल), जीरा, दूध, दही, घी, शाक, धनिया और शर्करा का त्याग करे । पूर्वकथित पदार्थों को उन-उन मासों में नहीं खाना चाहिये । प्रत्येक मास में व्रत की समाप्ति पर करवे के ऊपर सफेद चावल, गोझिया, मधु, पूरी, घेवर (सेवई), मण्डक (पिष्टक), दूध, शाक, दही, छः प्रकार का अन्न, भिंड़ी तथा शाकवर्तिक रखकर ब्राह्मण को दान करना चाहिये । माघ मास में पूजाके अन्त्त में ‘कुमुदा प्रीयताम्’ यह कहना चाहिये। इसी प्रकार फाल्गुन आदि महीनों में ‘माधवी, गौरी, रम्भा, भद्रा, जया, शिवा, उमा, शची, सती, मङ्गला तथा रतिलालसा” का नाम लेकर ‘प्रीयताम्’ ऐसा कहे । सभी मासों के व्रत में पञ्चगव्य का प्राशन करे और उपवास करे । तदनन्तर माघ मास आने पर करक-पात्र के ऊपर पञ्चरत्न से युक्त अङ्गुष्ठ-मात्र की पार्वती की स्वर्णनिर्मित मूर्ति की स्थापना करे । वस्त्र, आभूषण और अलंकार से उसे सुशोभित कर एक बैल और एक गाय ‘भवानी प्रीयताम्’ यह कहकर ब्राह्मण को प्रदान करें । इस विधि के अनुसार व्रत करनेवाला सम्पूर्ण पाप से उसी क्षण मुक्त हो जाता हैं और हजार वर्षों तक दुःखी नहीं होता । इस व्रत के करने से हजारों अग्निष्टोम-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । कुमारी, सधवा, विधवा या दुर्भगा जो भी हो, वह इस व्रत के करने पर गौरीलोक में पूजित होती है । इस विधान को सुनने या इस व्रत को करने के लिये औरों को उपदेश देने से भी सभी पापों से छुटकारा मिलता है और वह पार्वती के लोक में निवास करता है । (अध्याय २६) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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