January 3, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय २९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय २९ आनन्तर्य (अनन्तर) – तृतीयाव्रत महाराज युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! आपने शुक्ल पक्ष के अनेक तृतीया-व्रतों को बतलाया । अब आप आनन्तर्यव्रत का स्वरूप बतलायें । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने देवताओं को बतलाया है कि यह आनन्तर्यव्रत अत्यन्त गुह्य हैं, फिर भी मैं आपसे इस व्रत का वर्णन करता हूँ । इस व्रत का आरम्भ मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया से करना चाहिये । द्वितीया के दिन रात में व्रतकर तृतीया को उपवास करे । गन्ध, पुष्प आदि से उमादेवी का पूजनकर शर्करा और पूरी का नैवेद्य समर्पित करे । स्वयं दही का प्राशन कर रात्रि में शयन करे । प्रातःकाल उठकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मण-दम्पति को भोजन कराये । इस विधि से जो स्त्री व्रत करती है, वह सम्पूर्ण अश्वमेध-यज्ञ के फलों को प्राप्त करती है ।मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया को भगवती कात्यायनी के पूजन में नारिकेल समर्पित कर दुग्ध का प्राशन करे । काम-क्रोध का त्यागकर रात्रि में शयन करे एवं प्रातः उठकर ब्राह्मण-दम्पति का पूजन करे । ऐसा करने से अनेक यज्ञों का फल प्राप्त होता है । पौष मास के शुक्ल पक्ष को तृतीया को उपवासकर गौरी का पूजन करे, लड्डु का नैवेद्य निवेदित करे और घृत का प्राशनकर शयन करे । प्रातः उठकर सपत्नीक ब्राह्मण का पूजन करे । इससे महान् यज्ञ का फल मिलता है । इसी प्रकार पौष की कृष्ण-तृतीया को भगवती पार्वती की पूजा करे और नैवेद्य अर्पण करे, रात में पूरी और गोमय का प्राशन करना चाहिये । प्रातःकाल ब्राह्मण-दम्पति का पूजन करे । इससे अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त होता है । माघ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को भगवती पार्वती का ‘सुरनायिका’ नाम से पूजन कर खाँड़ और बिल्व का नैवेद्य समर्पित करे । कुशोदक का प्राशन कर जितेन्द्रिय रहे, भूमि पर शयन करे । प्रातः ब्राह्मण-दम्पति को भोजन कराये । इससे सुवर्णदान का फल मिलता है । इसी प्रकार माघ-कृष्ण तृतीया को पवित्र होकर ‘आर्या’ नाम से पार्वती का पूजनकर भक्ष्य पदार्थों का नैवेद्य समर्पित कर मधु का प्राशन करे । देवी के आगे शयन करे, दूसरे दिन भक्तिपूर्वक ब्राह्मण-दम्पति का पूजन करे । इससे वाजपेय-यज्ञ का फल मिलता है । फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को पवित्र होकर उपवास करे और देवी पार्वती का ‘भद्रा’ नाम से पूजन कर कासार (एक प्रकार का पकवान) का नैवेद्य निवेदित करे । शर्करा का प्राशन कर रात्रि में शयन करे । प्रातःकाल सपत्नीक ब्राह्मण को भोजन कराये । इससे सौत्रामणि-याग (इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, उसे सौत्रामणि यज्ञ कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है- प्रथम स्वतन्त्र और द्वितीय अंगभूत। स्वतन्त्र भूत केवल ब्राह्मणों के लिये विधेय है और अँगभूत, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये।) का फल प्राप्त होता है। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की तृतीया में ‘विशालाक्षी’ नाम से भगवती पार्वती का पूजन कर पूरी का भोग लगाये । जल तथा चावल निवेदित कर भूमि पर शयन करे । प्रातःकाल सपत्नीक ब्राहाण को भोजन कराये । इससे अग्निष्टोम-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को जितेन्द्रिय और पवित्र होकर भगवती पार्वती का ‘श्री’ नाम से पूजन करे । वटक (दहीबड़ा)— का नैवेद्य निवेदित करे, बिल्वपत्र का प्राशन करे एवं देवी का ध्यान करता करता हुआ विश्राम करे । प्रातःकाल भक्तिपूर्वक ब्राह्मण-दम्पतिकी पूजा करे, इससे राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है । इसी प्रकार कृष्ण-तृतीया को देवीकी ‘काली’ नाम से पूजा करे । अपूप का नैवेद्य निवेदित करे, पीठी का प्राशन करे और रात्रि में विश्राम करे । प्रातःकाल सपत्नीक ब्राह्मण को भोजन कराये । इससे अतिरात्र-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को जितेन्द्रिय होकर उपवास करे । भगवती पार्वती को ‘चण्डिका’ नाम से पूजा कर मधुक निवेदित करे । श्रीखण्ड-चन्दन से लिप्त कर देवी के सम्मुख विश्राम करे । प्रातःकाल सपत्नीक ब्राह्मण की पूजा करे । इससे चान्द्रायणव्रत का फल मिलता है । ऐसे ही कृष्ण पक्ष की तृतीया को विमत्सर होकर उपवास करे । देवी की ‘कालरात्रि’ नाम से गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि से पूजा करे । घी तथा जौ के आटे से बना नैवेद्य निवेदित करे । तिल का प्राशन कर रात्रि में शयन करे । प्रातःकाल सपत्नीक ब्राह्मण को भोजन कराये । इससे अतिकृच्छ्व्रत का फल प्राप्त होता है । ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को उपवास कर पार्वती की पूजा ‘शुभा’ नाम से करे तथा आम्र-फल का नैवेद्य निवेदित करे एवं आँवले का प्राशन कर गौरी का ध्यान करते हुए सुखपूर्वक सोये । प्रातःकाल सपत्नीक ब्राह्मण को भोजन कराये । इससे तीर्थयात्रा का फल प्राप्त होता है । इसी प्रकार ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया को सुवासिनी स्त्री उपवास करे । स्कन्दमाता की पूजा कर भोग लगाये । पञ्चगव्य का प्राशन कर देवी के सामने शयन करे । प्रातःकाल ब्राह्मण-दम्पति की पूजा करे। इससे कन्यादान का फल प्राप्त होता है । आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को सती का पूजन कर दही का नैवेद्य समर्पित करे । गोशृङ्ग-जल का प्राशन कर शयन करे । प्रातः ब्राह्मण-दम्पति का पूजन करे, इससे कन्यादान का फल प्राप्त होता है । पुनः आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया में कूष्माण्डी का पूजन कर गुड़ और घृतके साथ सत्तू का नैवेद्य अर्पित करे । कुशोदक का प्राशन कर शयन करे । प्रातःकाल ब्राह्मण-दम्पति की पूजा करे । इससे गोसहस्र-दान का फल प्राप्त होता है । श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को उपवास कर चन्द्रघण्टा का पूजन करे । कुल्माष (कुलथी)- को नैवेद्य-रूप में समर्पित कर पुष्पोदक का प्राशन कर शयन करे, प्रातःकाल ब्राह्मण-दम्पति का पूजन करे । ऐसा करने से अभयदान का फल प्राप्त होता है । इसी प्रकार श्रावण की कृष्ण-तृतीया को ‘रुद्राणी’ नाम से पार्वती का पूजन कर सिद्ध पिण्ड आदि नैवेद्य के रूप में समर्पित करे । तिलकुट का प्राशन करे । प्रातः सपत्नीक ब्राह्मण का पूजन करे, इससे इष्टापूर्त-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया में ‘हिमाद्रिजा’ नाम से पार्वती का पूजन कर गोधूम का नैवेद्य समर्पित करे । श्वेत चन्दन तथा गन्धोदक का प्राशन कर शयन करे । प्रातः सपत्नीक ब्राह्मण का पूजन करे, इससे सैकड़ों उद्यान लगाने का फल प्राप्त होता है । भाद्रपद कृष्ण-तृतीया को दुर्गा की पूजा करे । गुड़युक्त पिष्ट और फल का नैवेद्य समर्पित करे, गोमूत्र का प्राशन कर शयन करे । प्रातः सपत्नीक ब्राह्मण की पूजा करे । इससे सदावर्त का फल प्राप्त होता है । आश्विन में उपवास कर ‘नारायणी’ नाम से पार्वती का पूजनकर पक्वान्न का नैवेद्य समर्पित करे । रक्त चन्दन का प्राशन कर रात्रि में शयन करे । प्रातः ब्राह्मण-दम्पति का पूजन करे । इससे अग्निहोत्र-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । आश्विन कृष्ण-तृतीया को ‘स्वस्ति’ नाम से पार्वती की पूजा करे । गुड़ के साथ शाल्योदन (साठी चावल)समर्पित करे। कुसुम्भ के बीजों का प्राशन कर रात्रि में विश्राम करे । प्रातःकाल सपत्नीक ब्राह्मण को भोजन कराये । इससे गवाह्निक (अन्न, घास आदि से दिनभर गो-सेवा करने) का फल प्राप्त होता है । कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को ‘स्वाहा’ नाम से पार्वती का पूजनकर घृत, खाँड़ और खीर का नैवेद्य समर्पित करे । कुंकुम, केसर का प्राशन कर शयन करे और प्रातः ब्राह्मण-दम्पति की पूजा करे । इससे एकभुक्त-व्रत का फल प्राप्त होता है । कार्तिक की कृष्ण-तृतीया को ‘स्वधा’ नाम से पार्वती का पूजनकर मुंग की खिचड़ी का नैवेद्य समर्पित करे और घी का प्राशनकर रात में शयन करे । प्रातः सपत्नीक ब्राह्मण का पूजन करे । इससे नक्तव्रत का फल प्राप्त होता है । इस प्रकार वर्ष भर प्रत्येक मास एवं पक्ष की तृतीया को व्रतादि करने से व्रती सम्पूर्ण पापों से मुक्त और पवित्र हो जाता है । व्रत पूर्ण कर उद्यापन इस प्रकार करना चाहिये — मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को उपवासकर शास्त्र-रीति से एक मण्डप बनाकर सुवर्ण की शिव-पार्वती की प्रतिमा बनवाये । उन प्रतिमाओं के नेत्रों में मोती और नीलम लगाये । ओष्ठों में मूँगा और कानों में रत्नकुण्डल पहनाये । भगवान् शंकर को यज्ञोपवीत और पार्वतीजी को हार से अलंकृत कर क्रमशः श्वेत और रक्त वस्त्र पहनाये । चतुःसम (एक गन्ध-द्रव्य जो कस्तुरी, चन्दन, कुंकुम और कपूर के समान-भाग के योग से बनता है) से सुशोभित करे । तदनन्तर गन्ध, पुष्प, धूप आदि उपचारों से मण्डल में पूजन कर अगरु हवन करे । इसमें अपराजिता भगवती की अर्चना करे । मृत्तिका का प्राशन कर रात में जागरण करे । गीत, नृत्य आदि उत्सव करे । सूर्योदयपर्यन्त जप करे । प्रातः उत्तम मण्डल बनाकर मण्डल में शय्या पर शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित करे । वितान, ध्वज, माला, किंकिणी, दर्पण आदि से मण्डप को सुशोभित करे, अनन्तर शिव-पार्वती की पूजा करे । सपत्नीक ब्राह्मण को भोजनादि से संतुष्ट करे । पान निवेदित कर प्रार्थना करे कि हे भगवान् शिव-पार्वती ! आप दोनों मुझ पर प्रसन्न होवें । इसके बाद उच्छिष्ट स्थान को पवित्र कर ले। तत्पश्चात् सुवर्ण से मण्डित सींग तथा चाँदी से मण्डित खुरवाली, कांस्य-दोहन-पात्र से युक्त, लाल वस्त्र से आच्छादित, घण्टा आदि आभरणों से युक्त पयस्विनी लाल रंग की गौ की प्रदक्षिणा कर दक्षिणा के साथ जूता, खड़ाऊँ, छाता एवं अनेक प्रकार के भक्ष्य पदार्थ गुरु को समर्पित करे । पुनः शिव-पार्वती को प्रणाम कर गुरू के चरणों में भी प्रणाम कर क्षमा माँगे । इस प्रकार इस आनन्तर्य-व्रतकी समाप्ति करे । जो स्त्री या पुरुष इस व्रत करता है, वह दिव्य विमान में बैठकर गन्धर्वलोक, यक्षलोक, देवलोक तथा विष्णुलोक में जाता है । वहाँ बहुत समय तक उत्तम भोग को भोगकर शिवलोक को प्राप्त करता है और फिर भूमि पर जन्म लेकर प्रतापी चक्रवर्ती राजा होता है । व्रत करनेवाली उसकी स्त्री उसकी पटरानी होती है । जिस प्रकार शिवजी के साथ पार्वती, इन्द्र के साथ शची, वसिष्ठ के साथ अरुन्धती, विष्णु के साथ लक्ष्मी, ब्रह्मा के साथ सावित्री सदा विराजमान रहती हैं, उसी प्रकार वह नारी भी जन्म-जन्म में अपने पति के साथ सुख भोगती है । इस व्रत को करनेवाली नारी पति से वियुक्त नहीं होती तथा पुत्र, पौत्र आदि सभी वस्तुओं को प्राप्त करती है । (अध्याय २९) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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