January 4, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ३६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ३६ नागपञ्चमी व्रत का वर्णन श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! पञ्चमी तिथि नागों के लिए अत्यन्त प्रिय है और इसी पञ्चमी तिथि में नागों का महान् उत्सव भी होता है । वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, धृतराष्ट्र, रैवत, कर्कोटक, और धनञ्जय नामक नागगण प्राणियों को अभय-प्रदान करते हैं । पञ्चमी के दिन जो मनुष्य क्षीर द्वारा नागों को स्नान कराता है, उसके कुल में वे नागगण अभय दान देते हैं । क्योंकि अपनी माता के द्वारा शाप प्राप्त कर जिस समय अत्यन्त पीडित हो रहे थे, उस समय उसी पञ्चमी के दिन गौओं के दुग्ध द्वारा स्नान कराने पर उनकी पीड़ा शान्त हो गई थी, इसीलिए वह उन्हें अत्यन्त प्रिय है । युधिष्ठिर ने कहा — जनार्दन ! माता द्वारा नागों को शाप क्यों मिला, उसका उद्देश्य एवं कारण क्या है ? और उस शाप का शमन कैसे हुआ, बताने की कृपा कीजिये । श्रीकृष्ण बोले — एक समय अश्वराज उच्चैःश्रवा को देखकर नागों की माता कद्रू ने जो अमृत के साथ उत्पन्न होने के नाते श्वेत वर्ण का था, अपनी भगिनी विनता से कहा — इस अश्व रत्न को देखो, जो अमृत से उत्पन्न बताया जाता है, उसके सूक्ष्म काले बाल तुम्हें दिखायी दे रहे हैं या समस्त अंग में श्वेत ही बाल देख रही हो । विनता ने कहा — यह सर्वश्रेष्ठ अश्व सर्वाङ्ग श्वेत है, और न कृष्ण न रक्तवर्ण और तुम उसे कृष्ण वर्ण कैसे देख रही हो । इस प्रकार विनता के कहने पर । कद्रू बोली — विनते ! मेरे एक ही नेत्र है किन्तु मैं उसके काले बाल को देख रही हूँ, और तुम्हारे दो नेत्र हैं, तू नहीं देख रही है ? अच्छा तो प्रतिज्ञा कर ! विनता ने कहा — यदि काले बाल उसमें दिखायी दें तो मैं तुम्हारी दासी होकर आजीवन सेवा करूंगी । और कद्रू ! यदि तुम वैसा न दिखा सकी तो तुम्हें मेरी दासी होना पड़ेगा । इस प्रकार वे दोनों अत्यन्त क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा करने के उपरान्त शयनागार में पहुँच कर शयन किया, किन्तु कद्रू ने कुछ कपट पूर्ण व्वहार करने का निश्चय किया । उसने अपने पुत्रों को बुलाकर कहा — ‘तुम लोग सूक्ष्म रूप से उस श्रेष्ठ अश्व के अङ्ग में प्रविष्ट हो जाओ, जिससे मैं उस जयाभिमानी विनता को इस प्रतिज्ञा में पराजित कर सकूँ ।’ नागों ने उसकी कपट बुद्धि जानकर कहा — ‘ऐसा करना महान् अधर्म है, अतः तुम्हारी इस आज्ञा को हम लोग नहीं स्वीकार करेंगे !’ इसे सुनकर कद्रू ने उन्हें शाप दिया कि पावक तुम्हें भस्मसात् पर दे । बहुत दिनों के व्यतीत होने पर पाण्डव जनमेजय सर्पसत्र नामक यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ करेंगे जो इस धरातल में अन्य लोगों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है । उसी यज्ञ में प्रचण्ड पावक तुम्हें दग्ध करेगा । इस प्रकार शाप प्रदान कर कद्रू ने पुनः कुछ नहीं कहा । माता के शाप प्रदान करने पर वासुकी नाग कर्तव्य च्युत होते हुए अत्यन्त दुःखसंतप्त होने के कारण मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । ब्रह्मा ने वासुकी को दुःखी देखकर उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा — वासुके ! इस प्रकार चिन्तित न हो, और सावधान होकर मेरी बात सुनो ! यायावर देश-देशान्तर में भ्रमण करने वाले के कुल में महातेजस्वी एवं तपोनिधि जरत्कारु नामक द्विज उत्पन्न होंगे । उस समय तुम जरत्कारु नामक अपनी भगिनी उन्हें अर्पित कर देना, जिससे उनके आस्तीक नामक पुत्र उत्पन्न होगा । जिस समय नागों का भयदायक वह सर्प यज्ञ प्रारम्भ होगा, वह आस्तीक पुत्र वाणी द्वारा राजा को प्रसन्न करते हुए उस यज्ञ को स्थगित करा देगा । इसलिए जरत्कारू नामक यह तुम्हारी भगिनी के जो रूप एवं उदार गुण भूषित हैं, जरत्कारु नामक द्विज को समर्पित करने में किसी प्रकार के विचार करने की आवश्यकता न रहेगी । उस अरण्य में जरत्कारु द्विज के मिलने पर अपने आत्मकल्याणार्थ तुम्हें उसकी सभी आज्ञाओं का पालन करना होगा । पितामह की ऐसी बातें सुनकर नागवासुकी ने विनय-विनम्र होकर सहर्ष उसकी स्वीकृति प्रदान की और उसी समय से उसके लिए प्रयत्न भी करना आरम्भ किया । इसे सुनकर सभी श्रेष्ठ नागों के नेत्र अत्यन्त हर्षातिरेक द्वारा विकसित कमल की भाँति खिल उठे । उस दिन उन लोगों ने अपने को पुनः जन्म ग्रहण करने के समान समझा । सभी लोगों में यह चर्चा होने लगी कि — उस घोर एवं अगाध यज्ञ-अग्निसागर के प्रस्तुत होने पर उससे पार होने के लिए केवल आस्तीक ही, अभयप्रद नौका होंगे तथा आस्तीक भी इसे सुनकर नागों के सम्मोहनार्थ आरम्भ यज्ञ को स्थगित करने के लिए अग्नि, राजा, और ऋत्विजों को क्रमशः विनयविनम्रपूर्वक उससे निवृत्त करने की चेष्टा करेंगे । ब्रह्मा ने लेलिहों (नागों) को बताया है कि ये पञ्चमी के दिन होगा । इसीलिए महाराज ! यह पञ्चमी तिथि नागों को अत्यन्त प्रिय है जिस हर्षजननी को पहले ब्रह्मा ने नागों को प्रदान किया था। अतः उस दिन ब्राह्मणों को यथेच्छ भोजनों से संतृप्त करके ‘नागगण मुझ पर प्रसन्न रहें’ ऐसा कहकर कुछ लोग इस भूतल में उनका विसर्जन करते हैं । नराधिप ! हिमालय, अन्तरिक्ष, स्वर्ग नदी, सरोवर, बावली, एवं तडाग आदि में निवास करने वाले उन महानागों को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार नागों और ब्राह्मणों को प्रसन्नता पूर्वक विसर्जन करके पश्चात् परिजनों समेत भोजन करना चाहिए । सर्वप्रथम मधुर भोजन पश्चात् यथेच्छ भोजन करने आदि सभी नियमों के सुसम्पन्न करने वाले को जिस फल की प्राप्ति होती है, मैं बता रहा हूँ, सुनो । देहावसान होने पर यह परमोत्तम विमान पर सुखासीन एवं अप्सराओं द्वारा सुसेवित होकर नागलोक की प्राप्ति कर यथेच्छ समय तक सुखोपभोग करने के अनन्तर इस मर्त्य लोक में जन्म ग्रहण कर सर्वश्रेष्ठ राजा होता है, जो समस्त रत्नों से सुस्मृद्ध एवं अनेक प्रकार के वाहनों से सदैव सुसज्जित होता है । पाँच जन्म तक प्रत्येक द्वापर युग में सर्वमान्य राजा होता है, जो आधि व्याधि रोगों से मुक्त होकर पत्नी पुत्र समेत सदैव, आनन्दोपभोग करता है। इसलिए घी, क्षीर आदि से सदैव नागों की अर्चना करनी चाहिए । युधिष्ठिर ने कहा — कृष्ण ! क्रुद्ध होकर नाग जिसे काट लेता है, उसकी कौन गति होती है, विस्तार पूर्वक बताने की कृपा कीजिये । श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! नाग के काटने पर मृत्यु द्वारा वह प्राणी अधोगति (पाताल) पहुँच कर विषहीन सर्प होता है । युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! नाग के काट लेने पर उस प्राणी के प्रति उसके पिता, माता, मित्र, पुत्र, भगिनी, पुत्री, और स्त्री का क्या कर्तव्य होता है ? गोविन्द, यदुशार्दूर्ल ! उस प्राणी के मोक्षार्थ इस प्रकार कोई दान व्रत अथवा उपवास आदि बताने की कृपा कीजिये, जिसे सुसम्पन्न करने पर उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाये । श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! उस प्राणी के मोक्षार्थ इसी पंचमी विधि का सविधान उपावस करना चाहिए, जो नागों के लिए अत्यन्त पुष्ट वर्द्धनी है । राजेन्द्र मैं उसके विधान को बता रहा हूँ, जो एक वर्ष तक निरन्तर सुसम्पन्न किया जाता है, सावधान होकर सुनो ! महीपते ! भाद्रपद की शुक्ल पञ्चमी अत्यन्त पुण्यतमा होने के नाते प्राणियों की सद्गति कामना के लिए अत्यन्त प्रशस्त बतायी गयी है । भरतर्षभ ! बारह वर्ष तक निरन्तर उसके सुसम्पन्न करने के उपरांत उसके व्रतोद्यापन के निमित्त चतुर्थी में एक भक्त नक्त भोजन करके पञ्चमी के दिन नाग की उस सौन्दर्य पूर्ण प्रतिमा की, जो सुवर्ण, रजत (चाँदी) काष्ठ अथवा मृत्तिका द्वारा प्रयत्न पूर्वक निर्मित रहती है, और पाँच फलों से सुसज्जित भी कनेर, कमल, चमेली एवं अन्य सुगन्धित पुष्प, और नैवेद्य द्वारा अर्चना करके घृत समेत पायस एवं मोदक के भोजन से ब्राह्मण को अत्यन्त संतृप्त करें । पश्चात् उस सर्पदष्ट प्राणी के मोक्षार्थ नारायण बलि भी करनी चाहिए । नृप ! दान और पिण्ड दान के समय ब्राह्मणों को भली भाँति संतप्त कर वर्ष के अन्त में उसके लिए वृषोत्सर्ग नामक यज्ञ भी करना चाहिए । स्नान करके उदक दान करते समय ‘कृष्ण प्रसन्न हों कहकर पुन: प्रत्येक मास में अत्यन्त अनन्त वासुकी, शेष, पद्म, कम्बल, तक्षक, अवश्वतर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिय, तक्षक, पिंगल आदि महानागों के नामोच्चारण पूर्वक पूजनोपरांत वर्ष के अन्त में महाब्राह्मण को भोजनादि से तृप्त कर पारण करना चाहिए । इतिहास वेत्ता ब्राह्मण को बुलाकर नाग की सुवर्ण प्रतिमा, जो सवत्सा गौ, और काँसे की दोहनी दान से सुसज्जित रहती है, सप्रेम अर्पित करनी चाहिए। पार्थ ! उसके पारण के निमित्त विद्वानों ने यही विधान बताया है । बन्धुओं द्वारा इस प्रकार इसे सुसम्पन्न करने पर उस प्राणी की अवश्य सकृति होती है । सर्पों के काट लेने पर अधोगति प्राप्त उस प्राणी के निमित्त जो एक वर्ष तक इस उत्तम व्रत को सुसम्पन्न करेंगे, उससे उस प्राणी की शुभस्थान की प्राप्ति पूर्वक अवश्य मुक्ति होगी। इस प्रकार भक्ति श्रद्धा पूर्वक जो ईसे श्रवण अथवा अध्ययन करेंगे, उनके परिवार में नागों का भय कभी नहीं होगा । श्रीकृष्ण बोले — भाद्रपद मास की पञ्चमी के दिन श्रद्धा भक्ति पूर्वक जो कृष्णादि वर्ण (रंग) द्वारा नागों की प्रतिमा सुनिमित कर गन्ध, पुष्प, घृत, गुग्गुल, और खीर द्वारा उसकी अर्चना करता है, उस पर तक्षक आदि नाग गण अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं और उसके सात पीढ़ी तक के वंशजों को नाग भय नहीं होता है । कुरुनन्दन ! अतः नागों की पूजा के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए । उसी प्रकार आश्विन मास की पञ्चमी के दिन नागों की कुश की प्रतिमा बना कर इन्द्राणी के साथ उन्हें स्थापित कर घृत, उदक और क्षीर के क्रमशः स्नान पूर्वक गेहूँ के चूर्ण (आंटा) और घृत के अनेक भाँति के व्यजनों के समर्पण करते हुए उन्हें श्रद्धा भक्ति समेत अत्यन्त प्रसन्न करता है, उससे कुल में शेष आदि नागगण अत्यन्त प्रसन्न होकर सदैव शांति प्रदान करते है तथा देहावसान के समय शांति लोक प्राप्त कर अनेक वर्षों तक सुखोपभोग करता है । वीर! इस प्रकार मैंने इस परमोत्तम पञ्चमी व्रत की व्याख्या सुना दी जिसमें समस्त दोष के निवृत्यर्थ यह “ॐ कुरुकुल्ले हुं फट् स्वाहा” (पाठ भेद – “ॐ वाच कुल्ले हुं फट् स्वाहा”) मंत्र बताया गया है । भक्ति भावना समेत जो लोग लगभग एक सौ पञ्चमी व्रत एवं उस हिम पुष्प आदि उपहारों द्वारा नागों की अर्चना करते हैं उनके गृह में सदैव अभय और निरन्तर सौख्य प्रदान नागगण किया करते हैं । (अध्याय ३६) Related