January 4, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ३७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ३७ श्रीपंचमीव्रत कथा राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन ! तीनों लोकों में लक्ष्मी दुर्लभ हैं; पर व्रत, होम, तप, जप, नमस्कार आदि किस कर्म के करने से स्थिर लक्ष्मी प्राप्त होती है ? आप सब कुछ जाननेवाले हैं, कृपाकर उसका वर्णन करे । भगवान श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! सुना जाता हैं कि प्राचीन काल में भृगुमुनि की ‘ख्याति’ नाम की स्त्री से लक्ष्मी का आविर्भाव हुआ । भृगु ने विष्णुभगवान् के साथ लक्ष्मी का विवाह कर दिया । लक्ष्मी भी संसार के पति भगवान् विष्णु को वर के रूप में प्राप्तकर अपने को कृतार्थ मानकर अपने कृपाकटाक्ष से सम्पूर्ण जगत् को आनन्दित करने लगी । उन्हीं से प्रजाओं में क्षेम और सुभिक्ष होने लगा । सभी उपद्रव शान्त हो गये । ब्राह्मण हवन करने लगे, देवगण हविष्य-भोजन प्राप्त करने लगे और राजा प्रसन्नतापूर्वक चारों वर्णों की रक्षा करने लगे । इस प्रकार देवगणों को अतीव आनन्द में निमग्न देखकर विरोचन आदि दैत्यगण लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये तपस्या एवं यज्ञ-यागादि करने लगे । वे सब भी सदाचारी और धार्मिक हो गये । फिर दैत्यों के पराक्रम से सारा संसार आक्रान्त हो गया । कुछ समय बाद देवताओं को लक्ष्मी का मद हो गया, उन लोगों के शौच, पवित्रता, सत्यता और सभी उत्तम आचार नष्ट होने लगे । देवताओं को सत्य आदि शील तथा पवित्रता से रहित देखकर लक्ष्मी दैत्यों के पास चली गयी और देवगण श्रीविहीन हो गये । दैत्यों को भी लक्ष्मी की प्राप्ति होते ही बहुत गर्व हो गया और दैत्यगण परस्पर कहने लगे कि ‘मैं ही देवता हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही ब्राह्मण हूँ, सम्पूर्ण जगत् मेरा ही स्वरूप हैं, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, चन्द्र, आदि सब मैं ही हूँ ।’ इसप्रकार अतिशय अहंकारमति दैत्यों की भी यह दशा देखकर व्याकुल हो वह भृगुकन्या भगवती लक्ष्मी क्षीरसागर में प्रविष्ट हो गयी । क्षीरसागर में लक्ष्मी के प्रवेश करने से तीनों लोक श्रीविहीन होकर अत्यन्त निस्तेज-से हो गये । देवराज इन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पति से पूछा — महाराज ! कोई ऐसा व्रत बताये, जिसका अनुष्ठान करने से पुनः स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति हो जाय । देवगुरु बृहस्पति बोले — देवेन्द्र ! मैं इस सम्बन्ध में आपको अत्यन्त गोपनीय श्रीपञ्चमी-व्रत का विधान बतलाता हूँ । इसके करने से आपका अभीष्ट सिद्ध होगा । ऐसा कहकर देवगुरु बृहस्पति ने देवराज इन्द्र को श्रीपञ्चमी-व्रत की सांगोपांग विधि बतलायी । तदनुसार इन्द्र ने उसका विधिवत् आचरण किया । इन्द्र को व्रत करते देखकर विष्णु आदि सभी देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सिद्ध, विद्याधर, नाग, ब्राह्मण, ऋषिगण तथा राजागण भी यह व्रत करने लगे । कुछ काल के अनन्तर व्रत समाप्तकर उत्तम बल और तेज पाकर सबने विचार किया कि समुद्र को मथकर लक्ष्मी और अमृत को ग्रहण करना चाहिये । यह विचारकर देवता और असुर मन्दर पर्वत को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर समुद्र-मंथन करने लगे । फलस्वरूप सर्वप्रथम शीतल किरणों वाले अति उज्ज्वल चन्द्रमा प्रकट हुए, फिर देवी लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ । लक्ष्मी के कृपाकटाक्ष को पाकर सभी देवता और दैत्य परम आनन्दित हो गये । भगवती लक्ष्मी ने इनका वरण किया । इन्द्र ने राजस-भाव से व्रत किया था, इसलिये उन्होंने त्रिभुवन का राज्य प्राप्त किया । दैत्यों ने तामस-भाव से व्रत किया था, इसलिये ऐश्वर्य पाकर भी वे ऐश्वर्यहीन हो गये । महाराज ! इस प्रकार इस व्रत के प्रभाव से श्रीविहीन सम्पूर्ण जगत् फिर से श्रीयुक्त हो गया । महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — यदुत्तम ! यह श्रीपंचमी-व्रत किस विधि से किया जाता हैं, कब से यह प्रारम्भ होता है और इसकी पारणा कब होती हैं ? आप इसे बताने की कृपा करें । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! यह व्रत मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को करना चाहिये । प्रातः उठकर शौच, दन्तधावन आदि से निवृत्त हो व्रत के नियम को धारण करे । फिर नदी में अथवा घरपर ही स्नान करे । दो वस्त्र धारण कर देवता और पितरों का पूजन-तर्पण कर घर आकर लक्ष्मी का पूजन करे । सुवर्ण, चाँदी, ताम्र, आरकुट, काष्ठ की अथवा चित्रपट में भगवती लक्ष्मी की ऐसी प्रतिमा बनाये जो कमल पर विराजमान हो, हाथ में कमल-पुष्प धारण किये हो, सभी आभूषणों से अलंकृत हो, उनके लोचन कमल के समान हो और जिन्हें चार श्वेत हाथी सुवर्ण के कलशों के जल से स्नान करा रहे हो । इस प्रकार की भगवती लक्ष्मी की प्रतिमा की निम्नलिखित नाम-मन्त्रों से ऋतुकालोद्भूत पुष्पों द्वारा अंगपूजा करे — ‘ॐ चपलायै नमः, पादौ पुजयामि’, ‘ॐ चञ्चलायै नमः, जानुनी पूजयामि’, ‘ॐ कमलवासिन्यै नमः, कटिं पूजयामि’, ‘ ॐ ख्यात्यै नमः नाभिं पूजयामि’ , ‘ॐ मन्मथवासिन्यै नमः, स्तनौ पूजयामि’, ॐ ललितायै नमः, भुजद्वयं पूजयामि’, ‘ॐ उत्कण्ठीतायै नमः, कण्ठ पूजयामि’, ‘ॐ माधव्यै नम:, मुखमण्डलं पूजयामि’ तथा ‘ॐ श्रियै नमः, शिरः पूजयामि’ आदि नाममन्त्रों से पैर से लेकर सिरतक पूजा करे । इस प्रकार प्रत्येक अंगों की भक्तिपूर्वक पूजाकर अंकुरित विविध धान्य और अनेक प्रकार के फल नैवेद्य में देवी को निवेदित करे । तदनन्तर पुष्प और कुंकुम आदि से सुवासिनी स्त्रियों का पूजन कर उन्हें मधुर भोजन कराये और प्रणाम कर बिदा करे । एक प्रस्थ (सेरभर) चावल और घृत से भरा पात्र ब्राह्मण को देकर ‘श्रीशः सम्प्रीयताम्’ इसप्रकार कहकर प्रार्थना करे । इसतरह पूजन कर मौन हो भोजन करे और श्री, लक्ष्मी, कमला, सम्पत्, रमा, नारायणी, पद्मा, धृति, स्थिति, पुष्टि, ऋद्धि तथा सिद्धि — इन बारह नामों से क्रमशः बारह महीनों में भगवती लक्ष्मी की पूजा करे और पूजन के अन्त में ‘प्रीयताम’ ऐसा उच्चारण करे । बारहवें महीने की पञ्चमी को वस्त्र से उतम मण्डप बनाकर गन्ध-पुष्पादि से उसे अलंकृतकर उसके मध्य शय्या पर उपकरणों सहित भगवती लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित करे । आठ मोती, नेत्रपट्ट, सप्त-धान्य, खड़ाऊँ, जूता, छाता, अनेक प्रकार के पात्र और आसन वहाँ उपस्थापित करे । तदनन्तर लक्ष्मी का पूजन कर वेदवेत्ता और सदाचार सम्पन्न ब्राह्मण को सवत्सा गौसहित यह सब सामग्री प्रदान करे । यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे । अन्त में भगवती लक्ष्मी से ऋद्धि की कामना से इसप्रकार प्रार्थना करे – “क्षीराब्धिमथनोद्भूते विष्णोर्वक्षःस्थलालये । सर्वकामप्रदे देवि ऋद्धिं यच्छ नमोऽस्तु ते ॥ (उत्तरपर्व ३७ । ५४) ‘हे देवि ! आप क्षीरसागर के मंथन से उद्भूत हैं, भगवान् विष्णु का वक्षःस्थल आपका अधिष्ठान हैं, आप सभी कामनाओं को प्रदान करनेवाली हैं, अतः मुझे भी आप ऋद्धि प्रदान करे, आपको नमस्कार हैं ।’ जो इस विधि से श्रीपञ्चमी का व्रत करता हैं, वह अपने इक्कीस कुलों के साथ लक्ष्मीलोक में निवास करता हैं । जो सौभाग्यवती स्त्री इस व्रत को करती है, वह सौभाग्य, रूप, सन्तान और धन से सम्पन्न हो जाती हैं तथा पति को अत्यन्त प्रिय होती है । (अध्याय ३७) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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