भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ४१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ४१
ललिताषष्ठी-व्रतकी विधि

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को यह व्रत होता है । उस दिन उत्तम रूप, सौभाग्य और संतान की इच्छावाली स्त्री को चाहिये कि वह नदी में स्नान करे और एक नये बाँस के पात्र में बालू लेकर घर आये । om, ॐफिर वस्त्र का मण्डप बनाकर उसमें दीप प्रज्वलित करे । मण्डप में वह बाँस का बालुकामय पात्र स्थापित कर उसमें बालुकामयी, तपोवन-निवासिनी भगवती ललितागौरी का ध्यानकर पूजन करे और उस दिन उपवास रहे, तदनन्तर चम्पक, करवीर, अशोक, मालती, नीलोत्पल, केतकी तथा तगर-पुष्प — इनमें से प्रत्येक की १०८ या २८ पुष्पाञ्जलि अक्षत के साथ निम्नलिखित मन्त्र से दे —

“ललिते ललिते देवि सौख्यसौभाग्यदायिनि ।
या सौभाग्यसमुत्पन्ना तस्यै देव्यै नमो नमः ॥”
(उतरपर्व ४१ । ८)

इस प्रकार से पूजन करने के पश्चात् तरह-तरह के सोहाल, मोदक आदि पक्वान्न, कूष्माण्ड, ककड़ी, बिल्व, करेला, बैंगन, करंज आदि फल भगवती ललिता को निवेदित करे और धूप, दीप, वस्त्राभूषण आदि भी समर्पित करे । इस विधि से पूजन कर रात्रि को जागरण करे तथा गीत-नृत्यादि उत्सव करे । दूसरे दिन प्रातः गीत-वाद्य-सहित मूर्ति को नदी के समीप ले जाय । वहाँ पूजनकर पूजन-सामग्री ब्राह्मण को निवेदित कर दे और भगवती ललिता की बालुकामयी मूर्ति को नदी में विसर्जित कर दे । घर आकर हवन करे और देवता, पितर, मनुष्य तथा सुवासिनी स्त्रियों का पूजन करे । पंद्रह कुमारी कन्याओं को और उतने ही ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजनों से संतुष्ट कर दक्षिणा प्रदान करे और ‘ललिता प्रतियुक्ता अस्तु’ यह कहकर उन्हें विदा करे । जो पुरुष अथवा स्त्री इस ललिता-षष्ठी-व्रत को करते हैं, उन्हें संसार में कोई पदार्थ दुर्लभ नहीं रहता । व्रत करनेवाली स्त्री बहुत कालपर्यन्त सुख-सौभाग्य से सम्पन्न रहकर अन्त में गौरीलोक में निवास करती है ।
(अध्याय ४१)

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