भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ४
संसार के दोषों का वर्णन

महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! यह जीव किस कर्म से देवता, मनुष्य और पशु आदि योनियों में उत्पन्न होता है ? बालभाव में कैसे पुष्ट होता है और किस कर्म से युवा होता है । किस कर्म के फलस्वरूप अतिशय भयंकर दारुण गर्भवास का कष्ट सहन करता है ? गर्भ में क्या खाता है ? किस कर्म से रूपवान्, धनवान्, पण्डित, पुत्रवान्, त्यागी और कुलीन होता है ? om, ॐकिस कर्म से रोगरहित जीवन व्यतीत करता है ? कैसे सुखपूर्वक मरता है ? शुभ और अशुभ फल का भोग कैसे करता है ? हे विमलमते ! ये सभी विषय मुझे बहुत ही गहन मालुम होते हैं ?

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – महाराज ! उत्तम कर्मों से देवयोनि, मिश्रकर्म से मनुष्ययोनि और पाप-कर्मों से पशु आदि योनियों में जन्म होता है । धर्म और अधर्म के निश्चय में श्रुति ही प्रमाण है । पाप से पापयोनि प्राप्त होती है ।

ऋतुकाल के समय दोषरहित शुक्र वायु से प्रेरित स्त्री के रक्त के मिलकर एक हो जाता है । शुक्र के साथ ही कर्मों के अनुसार प्रेरित जीवयोनी में प्रविष्ट होता है । एक दिन में शुक्र और शोणित मिलकर कलल बनता है । पाँच रात में वह कलल बुद्धुद हो जाता है । सात रात में बुद्बुद मांसपेशी बन जाता है । चौदह दिनों में वह मांसपेशी मांस और रुधिर से व्याप्त होकर दृढ़ हो जाता है । पचीस दिनों में उसमें अकुंर निकलते है । एक महीने में उन अकुंरों के पाँच-पाँच भाग — ग्रीवा, सिर, कंधे, पृष्ठवंश तथा उदर हो जाते हैं । चार मास के वहीँ अकुंरो का भाग अँगुली बन जाता है । पाँच महीने में मुख, नासिका और कान बनते हैं । छः महीने में दन्तपंक्तियाँ, नख और कान के छिद्र बनते हैं । सातवें महीने में गुदा, लिंग अथवा योनि और नाभि बनते हैं, संधियाँ उत्पन्न होती है और अंगों में संकोच भी होता है । आठवें महीने में अंग—प्रत्यंग सब पूर्ण हो जाते है और सिर में केश भी आ जाते हैं । माता के भोजन का रस नाभि के द्वारा बालक को शरीर में पहुँचता रहता है, उसीसे उसका पोषण होता है । तब गर्भ में स्थित जीव सब सुख-दुःख समझता है और यह विचार करता है कि ‘मैंने अनेक योनियों में जन्म लिया और बारम्बार मृत्यु के अधीन हुआ और अब जन्म होते ही फिर संसार के बन्धन को प्राप्त करूँगा ।’ इस प्रकार गर्भ में विचारता और मोक्ष का उपाय सोचता हुआ जीव अतिशय दुःखी रहता है । पर्वत के नीचे दब जाने से जितना क्लेश जीव को होता है, उतना ही जरायु से वेष्टित अर्थात् गर्भ में होता है । समुद्र में डूबने से जो दुःख होता है, वही दुःख गर्भ के जल में भी होता है, तप्त लोहे के खम्भे से बाँधने में जीव को जो क्लेश होता है वही गर्भ में जठराग्नि के ताप से होता है । तपायी हुई सुइयों से बेधने पर जो व्यथा होती है, उससे आठ गुना अधिक गर्भ में जीव को कष्ट होता है । जीवों के लिए गर्भवास से अधिक कोई दुःख नहीं है । उससे भी कोटि गुना दुःख जन्म लेते समय होता है, उस दुःख से मूर्च्छा भी आ जाती है । प्रबल प्रसव-वायु की प्रेरणा से जीव गर्भ के बाहर निकलता है । जिस प्रकार कोल्हू में पीडन करने से तिल निस्सार हो जाता है, उसी प्रकार शरीर भी योनियन्त्र के पीडन से निस्तत्त्व हो जाता हैं । मुख रूप जिसका द्वार है, दोनों ओष्ठ कपाट हैं, सभी इन्द्रियाँ गवाक्ष अर्थात् झरोखे हैं, दाँत, जिह्वा, गला, वात, पित्त, कफ, जरा, शोक, काम, क्रोध, तृष्णा, राग, द्वेष आदि जिसमें उपकरण हैं, ऐसे इस देह-रूप अनित्य गृह में नित्य आत्मा का निवास-स्थान है । शुक्र-शोणित के संयोग से शरीर उत्पन्न होता है और नित्य ही मूत्र, विष्ठा आदि से भरा रहता है । इसलिए यह अत्यन्त अपवित्र है । जिस प्रकार विष्ठा से भरा हुआ घट बाहर धोने से शुद्ध नहीं होता, इसी प्रकार यह देह भी स्नान आदि के द्वारा पवित्र नहीं सकता । पञ्चगव्य आदि पवित्र पदार्थ भी इसके संसर्ग से अपवित्र हो जाते हैं । इससे अधिक और कौन अपवित्र पदार्थ होगा । उत्तम भोजन, पान आदि देह के संसर्ग से मलरूप हो जाते हैं, फिर देह की अपवित्रता का क्या वर्णन करें । देह को बाहर से जितना भी शुद्ध करें, भीतर तो कफ, मूत्र, विष्ठा आदि भरे ही रहेंगे । सुन्गधित तेल देह में मलते रहें, परन्तु कभी देह की मलिनता कम नहीं होती । यह आश्चर्य है कि मनुष्य देह का दुर्गन्ध सूंघकर, नित्य अपना मल-मूत्र देखकर और नासिका का मल निकालकर भी इस देह से विरक्त नहीं होता और उसे देह से घृणा उत्पन्न नहीं होती । यह मोह का ही प्रभाव है कि शरीर के दोष और दुर्गन्ध देख-सूंघकर भी इससे ग्लानि नहीं होती । यह शरीर स्वभावतः अपवित्र है । यह केले के वृक्ष की भाँती केवल त्वक् आदि से आवृत्त और निस्सार है । जन्म होते ही बाहर की वायु के स्पर्श से पूर्वजन्मों का ज्ञान नष्ट हो जाता हैं और पुनः संसार के व्यवहार में आसक्त हो अनेक दुष्कर्म में रत हो जाता है और अपने को तथा परमेश्वर को भूल जाता है । आँख रहते हुए भी नहीं देख पाता, बुद्धि रहते हुए भी भले-वुरे का निर्णय नहीं कर पाता । राग तथा लोभ आदि के वशीभूत होकर वह संसार में दुःख प्राप्त करता रहता है । सूखे मार्ग में भी पैर फिसलते है, यह सब मोह की ही महिमा है । दिव्यदर्शी महर्षियों ने इस गर्भ का वृतान्त विस्तृत रूप से वर्णन किया है । इसे सुनकर भी मनुष्य को वैराग्य उत्पन्न नहीं होता और अपने कल्याण का मार्ग नहीं सोचता – यह बड़ा ही आश्चर्य है ।

बाल्यावस्था में भी केवल दुःख ही है । बालक अपना अभिप्राय भी नहीं कह सकता और जो चाहता है, वह नहीं कर पाता, वह असमर्थ रहता है । इससे नित्य व्याकुल रहता है । दाँत आने के समय बालक बहुत क्लेश भोगता है और भाँती-भाँती के रोग तथा बालग्रह उसे सताते रहते हैं । वह क्षुधा-तृष्णा से पीड़ित होता रहता है, मोह से विष्ठा आदि का भी भक्षण करने लगता है । कुमारावस्था में कर्ण-वेध के समय दुःख होता है । अक्षरारम्भ के समय गुरु से भी बड़ा ही भय होता है । माता-पिता ताडन करते हैं ।

युवावस्था में भी सुख नहीं है । अनेक प्रकार की ईर्ष्या मन में उपजती है । मनुष्य मोह में लीन हो जाता है । राग आदि में आसक्त होने के कारण दुःख होता है, रात्रि को नींद नहीं आती और धन की चिन्ता से दिन में भी चैन नहीं पड़ता । स्त्री-संसर्ग में भी कोई सुख नहीं । कुष्ठी व्यक्ति के कोढ़ में कीड़े पड जाने पर जो खुजलाहट होती है, उसे खुजलाने में जितना आनन्द होता है, उससे अधिक कामी व्यक्ति को स्त्री से सुख नहीं मिलता । इस तरह विचार करने पर मालुम होता है कि स्त्री में कोई सुख नहीं है ।

व्यक्ति मान-अपमान के द्वारा, युवावस्था-वृद्धावस्था के द्वारा और संयोग-वियोग के द्वारा ग्रस्त है, तो फिर निर्विवाद सुख कहाँ ? जो यौवन के कारण स्त्री-पुरुषों के शरीर परस्पर प्रिय लगते हैं, वही वार्धक्य के कारण घृणित प्रतीत होते हैं । वृद्ध हो जाने, शरीर के काँपने और सभी अंगों के जर्जर एवं शिथिल हो जानेपर वह सभी को अप्रिय लगता है । जो युवावस्था के बाद वार्धक्य में अपने में भारी परिवर्तन और अपनी शक्तिहीनता को देखकर विरक्त नहीं होता- धर्म और भगवान् की ओर प्रवृत्त नहीं होता, उससे बढकर मुर्ख कौन हो सकता है ?

बुढ़ापे में जब पुत्र-पौत्र, बान्धव, दुराचारी नौकर आदि अवज्ञा-उपेक्षा करते हैं, तब अत्यन्त दुःख होता है । बुढापे में वह धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-सम्बन्धी कार्यों को सम्पन्न करने में असमर्थ रहता है । इससे वात, पित्त आदि की विषमता से अर्थात् न्यूनता-अधिकता होने से अनेक प्रकार के रोग होते रहते हैं । इसलिये यह शरीर रोगों का घर है । ये दुःख प्राय: सभी को समय-समय पर अनुभूत होते ही हैं, फिर उसमें विशेष कहने की आवश्यकता ही क्या ?

वास्तव में शरीर में सैकड़ों मृत्यु के स्थान हैं, जिनमें एक तो साक्षात् मृत्यु या काल है, दुसरे अन्य आने-जाने वाली भयंकर आधि-व्याधियाँ हैं, जो आधी मृत्यु के समान है । आने-जानेवाली आधि-व्याधियाँ तो जप-तप एवं औषध आदि से टल भी जाती है, परन्तु काल-मृत्यु का कोई उपाय नहीं है । रोग, सर्प, शस्त्र, विष तथा अन्य घात करनेवाले बाघ, सिंह, दस्यु आदि प्राणिवर्ग ये सब भी मृत्यु के द्वार ही है । किन्तु जब रोग आदि के रुप मे साक्षात् मृत्यु पहुँच जाती है तो देव-वैद्य धन्वन्तरि भी कुछ नहीं कर पाते । औषध, तन्त्र, मन्त्र, तप, दान,रसायन, योग आदि भी काल से ग्रस्त व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकते । सभी प्राणियों के लिये मृत्यु के समान न कोई रोग हैं, न भय, न दुःख है और न कोई शंका का स्थान अर्थात् केवल एकमात्र मृत्यु से ही सारे भय आदि आशंकाएँ हैं । मृत्यु ,पुत्र, स्त्री, मित्र, राज्य, ऐश्वर्य, धन आदि सबसे वियुक्त करा देती है और बद्धमूल वैर भी मृत्यु से निवृत्त हो जाते हैं ।

पुरुष की आयु सौ वर्षो की कही गयी हैं, परन्तु कोई अस्सी वर्ष जीता है कोई सत्तर वर्ष । अन्य लोग अधिक-से-अधिक साठ वर्ष तक ही जीते है और बहुत-से तो इससे पहले ही मर जाते हैं । पुर्वकर्मानुसार मनुष्य की जितनी आयु निश्चित हैं, उसका आधा समय तो रात्रि ही सोने में हर लेती है । बीस वर्ष बाल्य और बुढापे में व्यर्थ चले जाते हैं । युवावस्था में अनेक प्रकार की चिन्ता और काम की व्यथा रहती है । इसलिए वह समय भी निरर्थक ही चला जाता है । इस प्रकार यह आयु समाप्त हो जाती है और मृत्यु आ पहुँचती है । मरण के समय जो दुःख होता है, उसकी कोई उपमा नहीं । हे मातः ! हे पितः ! हे कान्त ! आदि चिल्लाते व्यक्ति को भी मृत्यु वैसे ही पकड़ ले जाती है, जैसे मेढक को सर्प पकड़ लेता है । व्याधि से पीड़ित व्यक्ति खाटकर पड़ा इधर-उधर हाथ – पैर पटकता रहता है और साँस लेता रहता है । कभी खाट से भूमि पर और कभी भूमि से खाटपर जाता है, परन्तु कहीं चैन नहीं मिलता । कण्ठ में घर्र-घर्र शब्द होने लगता है । मुख सूख जाता है । शरीर मूत्र, विष्ठा आदि से लिप्त हो जाता है । प्यास लगने पर जब वह पानी माँगता हैं, तो दिया हुआ पानी भी कण्ठ तक ही रह जाता है । वाणी बन्द हो जाती है, पड़ा-पड़ा चिन्ता करता रहता है कि मेरे धन को कौन भोगेगा ? मेरे कुटुम्ब की रक्षा कौन करेगा ? इस तरह अनेक प्रकार की यातना भोगता हुआ मनुष्य मरता है और जीव इस देह से निकलते ही जोंक की तरह दूसरे शरीर में प्रविष्ट हो जाता है ।

मृत्यु से भी अधिक दुःख विवेकी पुरुषों को याचना अर्थात् माँगने में होता है । मृत्यु में तो क्षणिक दुःख होता है, किन्तु याचना से तो निरन्तर ही दुःख होता है । देखिये, भगवान् विष्णु भी बलि से माँगते ही वामन (अत्यन्त छोटे) हो गये । फिर और दूसरा है की कौन जिसकी प्रतिष्ठा याचना से न घटे । आदि, मध्य और अन्त में दुःख की ही परम्परा है । अज्ञानवश मनुष्य दुःखों को झेलता हुआ कभी आनन्द नहीं प्राप्त करता । बहुत खाये तो दुःख, थोडा खाये तो दुःख, किसी समय भी सुख नहीं है । क्षुधा सब रोगों में प्रबल है और वह अन्नरुपी ओषधि के सेवन से थोड़ी देर के लिये शान्त हो जाती है, परन्तु अन्न भी परम सुख का साधन नहीं है । प्रातः उठते ही मूत्र, विष्ठा आदि की बाधा, मध्याह्न में क्षुधा-तृषा की पीड़ा और पेट भरने पर काम की व्यथा होती है । रात्रि को निद्रा दुःख देती है । धन के सम्पादन में दुःख, सम्पादित धन की रक्षा करने में दुःख, फिर उसके व्यय करने में अतिशय दुःख होता है । इससे धन भी सुखदायक नहीं है । चोर, जल, अग्नि, राजा और स्वजनों से भी धनवालों को अधिक भय रहता है । मांस को आकाश में फेंकने पर पक्षी, भूमिपर कुत्ते आदि जीव और जल में मछली आदि खा जाते है, इसी प्रकार धनवान की भी सर्वत्र यही स्थिति होती है । सम्पत्ति के अर्जन करने में दुःख, सम्पति की प्राप्ति के बाद मोहरूपी दुःख और नाश हो जानेपर तो अत्यन्त दुःख होता ही है, इसलिये किसी भी काल में धन सुख का साधन नहीं है । धन आदि की कामनाएँ ही दुःख का परम कारण हैं, इसके विपरीत कामनाओं से निःस्पृह रहना परम सुख का मूल है ।

हेमन्त ऋतु में शीत का दुःख, ग्रीष्म में दारुण ताप का दुःख और वर्षा ऋतु में झंझावात तथा वर्षा का दुःख होता है । इसलिए काल भी सुखदायक नहीं है । विवाह में दुःख और पति के विदेश-गमन में दुःख, स्त्री गर्भवती हो तब दुःख, प्रसव के समय दुःख, सन्तान के दन्त, नेत्र आदि की पीडा से दुःख । इस प्रकार स्त्री भी सदा व्याकुल रहती है । कुटुम्बियों को यह चिन्ता रहती है कि गौ नष्ट हो गयी, खेती सूख गयी, नौकर चला गया, घर में मेहमान आया है, स्त्री के अभी सन्तान हुई है, इसके लिये रसोई कौन बनायेगा, कन्या के विवाह आदि की चिन्ता – इस प्रकार हजारों चिंताएँ कुटुम्बियों के कारण लगी रहती है, जिनसे उनके शील, शुद्ध बुद्धि और सम्पूर्ण गुण नष्ट हो जाते हैं, जिस तरह कच्चे घड़े में जल डालते ही घट के साथ जल नष्ट हो जाता है, उसी तरह गुणों सहित कुटुम्बी मनुष्य का देह नष्ट हो जाता है ।

राज्य भी सुख का साधन नहीं है । जहाँ नित्य सन्धि-विग्रह की चिन्ता लगी रहती है और पुत्र से भी राज्य के ग्रहण का भय बना रहता है, वहाँ सुख का लेश भी नहीं हैं । अपनी जाति से भी सबको भय होता है । जिस प्रकार एक मांसखण्ड के अभिलाषी कुत्तों को परस्पर भय रहता है, वैसे ही संसार में कोई सुखी नहीं है । ऐसा कोई राजा नहीं जो सबको जीतकर सुखपूर्वक राज्य करे, प्रत्येक को दूसरे से भय रहता है । इतना कहकर श्रीकृष्ण भगवान् ने पुनः कहा कि ‘महाराज ! यह कर्ममय शरीर जन्म से लेकर अंत तक दुःखी ही है । जो पुरुष जितेन्द्रिय है और व्रत, दान तथा उपवास आदि में तत्पर रहते है, वे सदा सुखी रहते है ।’
(अध्याय ४)

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