January 5, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ५२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ५२ सप्तमी-स्वपनव्रत और उसकी विधि महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — प्रभो ! मनुष्य को अपने मन में उद्भूत उद्वेग तथा खेद-खिन्नता और अपनी दरिद्रता की निवृत्ति के लिये अद्भुत-शान्ति के निमित्त कौन-सा धर्म-कृत्य करना चाहिये ? मृतवत्सा स्त्री को (जिसके बच्चे पैदा होकर मर जाते हैं) अपनी संतति की रक्षा और दुःस्वप्नादि की शान्ति के लिये क्या करना चाहिये ? भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! पूर्वजन्म के पाप इस जन्म में रोग, दुर्गति तथा इष्टजन की मृत्यु के रूप में फलित होते हैं । उनके विनाश के लिये मैं कल्याणकारी सप्तमी-स्नपन नामक व्रत का वर्णन कर रहा हूँ, यह लोगो की पीड़ा का विनाश करनेवाला है । जहाँ दुधमुंहे शिशुओं, वृद्धों, आतुरों और नवयुवकों की आकस्मिक मृत्यु होती देखी जाती है, वहाँ उसकी शान्ति के लिये इस ‘मृतवत्साभिषेक’ को बतला रहा हूँ । यह समस्त अद्भुत उत्पातों, उद्वेगों और चित्त-भ्रमो का भी विनाशक है । वराह-कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर में सत्ययुग में हैहयवंशीय क्षत्रियों के कुल की शोभा बढ़ानेवाला कृतवीर्य नामक एक राजा हुआ था । उसने सतहत्तर हजार वर्ष तक धर्म और नीतिपूर्वक समस्त प्रजाओं का पालन किया । उसके सौ पुत्र थे, जो च्यवनमुनि के शाप से दग्ध हो गये । फिर राजा ने भगवान् सूर्य की विधिपूर्वक उपासना प्रारम्भ की । कृतवीर्य के उपवास-व्रत, पूजा और स्तोत्रों से संतुष्ट होकर भगवान् सूर्य ने उसे अपना दर्शन दिया और कहा — ‘कृतवीर्य ! तुम्हें (कार्तवीर्य नामक)— एक सुन्दर एवं चिरायु पुत्र उत्पन्न होगा, किंतु तुम्हें अपने पूर्वकृत पापों को विनष्ट करने के लिये स्नपन-सप्तमी नामक व्रत करना पड़ेगा । तुम्हारी मृतवत्सा पत्नी के जब पुत्र उत्पन्न हो जाये तो सात महीने पर बालक के जन्म-नक्षत्र की तिथि को छोड़कर शुभ दिन में ग्रह एवं ताराबल को देखकर ब्राह्मणों द्वारा स्वस्ति-वाचन कराना चाहिये । इसी प्रकार वृद्ध, रोगी अथवा अन्य लोगों के लिये किये जानेवाले इस व्रत में जन्म-नक्षत्र का परित्याग कर देना चाहिये । गोदुग्ध के साथ साल अगहनी के चावलों से हव्यान्न पकाकर मातृकाओं, भगवान सूर्य एवं रुद्र की तुष्टि के लिये अर्पण करना चाहिये और फिर भगवान् सूर्य के नाम से अग्नि में घी की सात आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिये । फिर बाद में रुद्रसूक्त से भी आहुतियाँ देनी चाहिये । इस आहुति में आक एवं पलाशकी समिधाएँ प्रयुक्त करनी चाहिये तथा हवन-कार्य में काले तिल, जौ एवं घी की एक सौ आठ आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिये । हवन के बाद शीतल गङ्गाजल से स्नान करना चाहिये । तदनन्तर हाथ में कुश लिये हुए वेदज्ञ ब्राह्मण द्वारा चारों कोणों में चार सुन्दर कलश स्थापित कराये । पुनः उसके बीच मे छिद्ररहित पाँचवाँ कलश स्थापित करे । उसे दही-अक्षत से विभूषित करके सूर्य-सम्बन्धी सात ऋचाओं से अभिमन्त्रित कर दे । फिर उसे तीर्थ-जल से भरकर उसमें रत्न या सुवर्ण डाल दे । इसी प्रकार सभी कलशों में सर्वौषधि, पञ्चगव्य, पञ्चरत्न, फल और पुष्प डालकर उन्हें वस्त्रों से परिवेष्टित कर दे । फिर हाथीसार, घुड़शाल, बिमौट, नदी के संगम, तालाब, गोशाला और राजद्वार — इन सात जगहों से शुद्ध मृत्तिका लाकर उन सभी कलशों में डाल दे । तदनन्तर ब्राह्मण रत्नगर्भित चारों कलशों के मध्य में स्थित पाँचवें कलश को हाथ में लेकर सूर्य-मन्त्रों का पाठ करे तथा सात सुलक्षणा स्त्रियों द्वारा जो पुष्प माला और वस्त्राभूषणों द्वारा पूजित हों, ब्राह्मण के साथ-साथ उस घड़े के जल से मृतवत्सा स्त्री का अभिषेक कराये । (अभिषेकके समय इस प्रकार कहे-) “दीर्घायुरस्तु बालोऽयं जीवपुत्रा च भाविनी । आदित्यचन्द्रमासार्ध ग्रहनक्षत्रमण्डलम् ॥ शक्रः सलोकपालो वै ब्रह्मा विष्णुर्महेश्वरः । एते चान्ये च वै देवाः सदा पान्तु कुमारकम् ॥ मा शनिर्मा स हुतभुङ्मा च बालग्रहाः क्वचित् । पीडां कुर्वन्तु बालस्य मा मतृजनकस्य वै ॥” (उत्तरपर्व ५२ । २६-२८) ‘यह बालक दीर्घायु और यह स्त्री जीवत्पुत्रा (जीवित पुत्रवाली) हो । सूर्य, ग्रहों और नक्षत्र-समूह सहित चन्द्रमा, इन्द्र सहित लोकपालगण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर इनके अतिरिक्त अन्यान्य देव-समूह इस कुमार की सदा रक्षा करें । सूर्य, शनि, अग्नि अथवा अन्यान्य जो कोई बालग्रह हों, वे सभी इस बालक को तथा इसके माता-पिता को कहीं भी कष्ट न पहुँचायें ।’ अभिषेकके पश्चात् वह स्त्री श्वेत वस्त्र धारण करके अपने बच्चे और पति के साथ उन सातों स्त्रियों की भक्तिपूर्वक पूजा करे । पुनः गुरु की पूजा करके धर्मराज की स्वर्णमयी प्रतिमा ताम्रपत्र के ऊपर स्थापित करके गुरु को निवेदित कर दे । उसी प्रकार कृपणता छोड़कर अन्य ब्राह्मणों का भी वस्त्र, सुवर्ण, रत्नसमूह आदि से पूजन करके उन्हें घी और खीरसहित भक्ष्य पदार्थों का भोजन कराये । भोजनोपरान्त गुरूदेव को बालक की रक्षा के लिये इन मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिये — “दीर्घायुरस्तु बालोऽयं यावद्वर्षशतं सुखी । यत्किञ्चिदस्य दुरितं तत्क्षिप्तं वडवामुखे ।। ब्रह्मा रुद्रो विष्णुः स्कन्दो वायुः शक्रो हुताशनः । रक्षन्तु स दुष्टेभ्यो वरदा यान्तु सर्वदा ॥” (उत्तरपर्व ५२ । ३२-३३) ‘यह बालक दीर्घायु हो और सौ वर्षों तक सुख का उपभोग करे । इसका जो कुछ पाप था, उसे वडवानल में डाल दिया गया । ब्रह्मा, रुद्र, वसुगण, स्कन्द, विष्णु, इन्द्र और अग्नि — ये सभी दुष्ट ग्रहों से इसकी रक्षा करें और सदा इसके लिये वरदायक हों ।’ इस प्रकार के वाक्य का उच्चारण करनेवाले गुरुदेव का यजमान पूजन करें । अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें एक कपिला गौ प्रदान करे और फिर प्रणाम करके विदा करे । तत्पश्चात मृतवत्सा स्त्री पुत्र को गोद में लेकर सूर्यदेव और भगवान् शंकर को नमस्कार करे और हवन से बचे हुए हव्यान्न को ‘सूर्यदेव को नमस्कार हैं’ — यह कहकर खा जाय । यह व्रत । उद्विग्नता और दुःस्वप्नादि में भी प्रशस्त माना गया हैं । इस प्रकार कर्ता के जन्मदिन के नक्षत्र को छोड़कर शान्तिप्राप्ति के हेतु शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि में सदा (सूर्य और शंकर का) पूजन करना चाहिये, क्योंकि इस व्रत का अनुष्ठान करनेवाला कभी कष्ट में नहीं पड़ता । जो मनुष्य इस विधान के अनुसार इस व्रत का सदा अनुष्ठान करता है, वह दीर्घायु होता है । इसी व्रत के प्रभाव से कार्तवीर्य ने दस हजार वर्षां तक इस पृथ्वी पर शासन किया था । राजन् ! इस प्रकार सूर्यदेव इस पुण्यप्रद, परम पावन और आयुवर्धक सप्तमी-स्नपन-व्रत का विधान बतलाकर वहीं अन्तर्हित हो गये । मनुष्य को सूर्य से नीरोगता, अग्नि से धन, ईश्वर (शिवजी) से ज्ञान और भगवान् जनार्दन से मोक्ष की अभिलाषा करनी चाहिये । यह व्रत बड़े-बड़े पापों का विनाशक, बाल-वृद्धिकारक तथा परम हितकारी है । जो मनुष्य अनन्यचित्त होकर इस व्रत-विधान को सुनता है, उसे भी सिद्धि प्राप्त होती है। (अध्याय ५२) भविष्यपुराण का यह अध्याय मत्स्यपुराण (अ० ६८)- से प्रायः मिलता है। Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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