भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ५३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ५३
अचलासप्तमी-व्रत-कथा तथा व्रत-विधि
यह सप्तमी पुराणों में रथ, सूर्य, भानु, अर्क, महती, पुत्रसप्तमी आदि अनेक नामों से विख्यात है और अनेक पुराणों में उन-उन नामों से अलग-अलग विधियाँ निर्दिष्ट हैं, जिनमें सभी अभिलाषाएँ पूरी होती हैं ।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! आपने सभी उत्तम फलों को देनेवाले माघस्नान का विधान बतलाया था, परंतु जो प्रातःकाल स्नान करने में समर्थ न हो तो वह क्या करे ? स्त्रियाँ अति सुकुमारी होती हैं, वे किस प्रकार माघस्नान का कष्ट सहन कर सकती हैं ? इसलिये आप कोई ऐसा उपाय बतायें कि थोडे-से परिश्रम से भी नारियो को रूप, सौभाग्य, संतान और अनन्त पुण्य प्राप्त हो जाय ।
om, ॐ
भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! मैं अचला सप्तमी का अत्यन्त गोपनीय विधान आपको बतलाता हूँ, जिसके करने से सब उत्तम फल प्राप्त हो जाते हैं । इस सम्बन्ध में आप एक कथा सुनें —

मगध देश में अति रूपवती इन्दुमती नाम की एक वेश्या रहती थी । एक दिन वह वेश्या प्रातःकाल बैठी-बैठी संसार की अनवस्थिति (नश्वरता) को इस प्रकार चिन्तन करने लगी — देखो ! यह विषयरूपी संसार-सागर कैसा भयंकर है, जिसमें डूबते हुए जीव जन्म-मृत्यु-जरा आदिसे तथा जल-जन्तुओं से पीड़ित होते हुए भी किसी प्रकार पार उतर नहीं पाते । ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित यह प्राणि समुदाय अपने किये गये कर्मरूपी ईंधन से एवं कालरूपी अग्नि से दग्ध कर दिया जाता है । प्राणियों के जो धर्म, अर्थ, काम से रहित दिन व्यतीत होते हैं, फिर ये कहाँ वापस आते हैं ? जिस दिन स्नान, दान, तप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण आदि सत्कर्म नहीं किया जाता, वह दिन व्यर्थ है । पुत्र, स्त्री, घर, क्षेत्र तथा धन आदि की चिन्ता में सारी आयु बीत जाती है और मृत्यु आकर धर दबोचती है ।

इस प्रकार कुछ निर्विष्ण-उद्विग्न होकर सोचती-विचारती हुई वह इन्दुमती वेश्या महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में गयी और उन्हें प्रणाम कर हाथ जोड़कर कहने लगी — ‘महाराज ! मैंने न तो कभी कोई दान दिया, न जप, तप, व्रत, उपवास आदि सत्कर्मों का अनुष्ठान किया और न शिव, विष्णु आदि किन्हीं देवताओं की आराधना की, अब मैं इस भयंकर संसार से भयभीत होकर आपकी शरण आयी हूँ, आप मुझे कोई ऐसा व्रत बतलायें, जिससे मेरा उद्धार हो जाय ।’

वसिष्ठजी बोले — ‘वरानने ! तुम माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को स्नान करो, जिससे रूप, सौभाग्य और सद्गति आदि सभी फल प्राप्त होते हैं । षष्ठी के दिन एक बार भोजनकर सप्तमी को प्रातःकाल ही ऐसे नदीतट अथवा जलाशय पर आकर दीपदान और स्नान करो, जिसके जल को किसी ने स्नानकर हिलाया न हो, क्योंकि जल मल को प्रक्षालित कर देता है । बाद में यथाशक्ति दान भी करो । इससे तुम्हारा कल्याण होगा ।’ वसिष्ठजी का ऐसा वचन सुनकर इन्दुमती अपने घर वापस लौट आयी और उनके द्वारा बतायी गयी विधि के अनुसार उसने स्नान-ध्यान आदि कर्मों को सम्पन्न किया । सप्तमी के स्नान के प्रभाव से बहुत दिनों तक सांसारिक सुखों का उपभोग करती हुई वह देह-त्याग के पश्चात् देवराज इन्द्र की सभी अप्सराओं में प्रधान नायिका के पद पर अधिष्ठित हुई । यह अचलासप्तमी सम्पूर्ण पापों का प्रशमन करनेवाली तथा सुख-सौभाग्य की वृद्धि करनेवाली है ।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! अचला-सप्तमी का माहात्म्य तो आपने बतलाया, कृपाकर अब स्नान का विधान भी बतलायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! षष्ठी के दिन एकभुक्त होकर सूर्यनारायण का पूजन करे । यथासम्भव सप्तमी को प्रातःकाल ही उठकर नदी या सरोवर पर जाकर अरुणोदय आदि वेला में बहुत सबेरे ही स्नान करने की चेष्टा करे । सुवर्ण, चाँदी अथवा ताम्र के पात्र में कुसुम्भ की रॅगी हुई बत्ती और तिल का तेल डालकर दीपक प्रज्वलित करे । उस दीपक को सिर पर रखकर हृदय में भगवान् सूर्य का इस प्रकार ध्यान करे —

“नमस्ते रुद्ररूपाय रसानाम्पतये नमः ।
वरुणाय नमस्तेऽस्तु हरिवास नमोऽस्तु ते

यावज्जन्म कृतं पापं मया जन्मसु सप्तसु ।
तन्मे रोगं च शोकं च माकरी हन्तु सप्तमी

जननी सर्वभूतानां सप्तमी सप्तसप्तिके ।
सर्वव्याधिहरे देवि नमस्ते रविमण्डले
॥”
(उत्तरपर्व ५३ । ३३-३५)

‘समस्त रसों के अधीश्वर रुद्ररूप एवं वरुण देव को नमस्कार है, जिसमें स्वयं विष्णु निवास करते हैं — मेरे सात जन्मों के किये हुए समस्त पाप, रोग एवं शोक आदि दुःखों के शीघ्र अपहरण यह मकर की सप्तमी करे । उनचास रूप धारण करने वाली देवि ! तुम समस्त प्राणियों की जननी एवं रविमण्डल रूप हो, अतः मेरी समस्त व्याधि का अपहरण करो, आपको नमस्कार है ।’

तदनन्तर दीपक को जल के ऊपर तैरा दे, फिर स्नानकर देवता और पितरों का तर्पण करे और चन्दन से कर्णिकासहित अष्टदल-कमल बनाये । उस कमल के मध्य में शिव-पार्वती की स्थापना कर प्रणव-मन्त्र से पूजा करे और पूर्वादि आठ दलों में क्रम से भानु, रवि, विवस्वान्, भास्कर, सविता, अर्क, सहस्रकिरण तथा सर्वात्मा का पूजन करे । इन नामों के आदि में ‘ॐकार तथा अन्त में ‘नमः’ पद लगाये । यथा-‘ॐ भानवे नमः’, ‘ॐ रवये नमः’ इत्यादि ।

इस प्रकार पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य तथा वस्त्र आदि उपचारों से विधिपूर्वक भगवान् सूर्य की पूजाकर ‘स्वस्थानं गम्यताम्’ यह कहकर विसर्जित कर दें । बाद में ताम्र अथवा मिट्टी के पात्र में गुड़ और घृत्तसहित तिलचूर्ण तथा सुवर्ण का ताल-पत्राकार एक कान का आभूषण बनाकर पात्र में रख दें । अनन्तर रक्तवस्त्र से उसे ढँककर पुष्प-धूपादि से पूजन करे और वह पत्र दौर्भाग्य तथा दुःख के विनाश की कामना से ब्राह्मण को दे दें । अनन्तर ‘सपुत्रपशुभृत्याय मेऽर्कोऽयं प्रीयताम्’ पुत्र, पशु, भृत्य-समन्वित मेरे ऊपर भगवान् सूर्य प्रसन्न हो जायें-— ऐसी प्रार्थना करे । फिर गुरु को वस्त्र, तिल, गौ और दक्षिणा देकर तथा यथाशक्ति अन्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत समाप्त करें ।
जो पुरुष इस विधि से अचलासप्तमी को स्नान करता है, उसे सम्पूर्ण माघ-स्नान का फल प्राप्त होता है । जो इस माहात्म्य को भक्ति से कहेगा या सुनेगा तथा लोगो को इसका उपदेश करेगा, वह उत्तम लोक को अवश्य प्राप्त करेगा ।
(अध्याय ५३)

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