January 5, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ५४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ५४ बुधाष्टमी-व्रत-कथा तथा माहात्म्य भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! अब मैं बुधाष्टमी-व्रत का विधान बतलाता हूँ, जिसे करनेवाला कभी नरक का मुख नहीं देखता । इस विषय में आप एक आख्यान सुनें । सत्ययुग के प्रारम्भ में मनु के पुत्र राजा ‘इल’ हुए । ये अनेक मित्रों तथा भृत्यों से घिरे रहते थे । एक दिन वे मृगया प्रसंग से एक हिरण का पीछा करते हुए हिमालय पर्वत के समीप एक जंगल में पहुँच गये । उस वन में प्रवेश करते ही वे सहसा स्त्री-रूप में परिणत हो गये । वह वन शिक्जी और माता पार्वतीजी का विहार-क्षेत्र था । वहाँ शिवजी की यह आज्ञा थी कि ‘जो पुरुष इस वन में प्रवेश करेगा, वह तत्क्षण ही स्त्री हो जायगा ।’ इस कारण राजा इल भी स्त्री हो गये । अब ये स्त्रीरूप से वन में विचरण करने लगे । वे यह नहीं समझ सके कि मैं कहाँ आ गया हूँ । उसी समय चन्द्रमा के पुत्र कुमार बुध की दृष्टि उन पर पड़ी । उसके उत्तम रूप पर आकृष्ट हो बुध ने उसे अपनी स्त्री बना लिया । इला से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम पुरूरवा था । पुरूरवा से ही चन्द्रवंश का प्रारम्भ हुआ । जिस दिन बुध ने इला से विवाह किया, उस दिन अष्टमी तिथि थी, इसलिये यह बुधाष्टमी जगत् में पूज्य हुई । यह बुधाष्टमी सम्पूर्ण पापों का प्रशमन तथा उपद्रवों का नाश करनेवाली हैं । राजन् ! अब मैं आपको एक दूसरी कथा सुना रहा हूँ । विदेह राजाओं की नगरी मिथिला में निमि नामक एक राजा थे । वे शत्रुओं द्वारा लड़ाई के मैदान में मार डाले गये । उनकी स्त्री का नाम था उर्मिला । उर्मिला जब राज्य-च्युत एवं निराश्रित हो इधर-उधर घूमने लगी, तब अपने बालक और कन्या को लेकर वह अवन्ति देश चली गयी और वहाँ एक ब्राह्मण के घर में कार्यकर अपना निर्वाह करने लगी । वह विपत्ति से पीड़ित थी, गेहूँ पीसते समय वह थोडे-से गेहूँ चुराकर रख लेती और उससे क्षुधा से पीड़ित अपने बच्चों का पालन करती । कुछ समय बाद उर्मिला का देहान्त हो गया । उर्मिला का पुत्र बड़ा हो गया, वह अवन्ति से मिथिला आया और पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर शासन करने लगा । उसकी बहन श्यामला विवाह योग्य हो गयी थी । वह अत्यन्त रूपवती थी । अवन्तिदेश के राजा धर्मराज ने उसके उत्तम रूप की चर्चा सुनकर उसे अपनी रानी बना लिया । एक दिन धर्मराज ने अपनी प्रिया श्यामला से कहा— ‘वैदेहि नन्दिन ! तुम और सभी कामों को तो करना, परंतु ये सात स्थान जिनमें ताले बंद हैं, इनमें तुम कभी मत जाना ।’ श्यामला ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर पति की बात मान ली, परंतु उसके मन में कुतूहल बना रहा । एक दिन जब धर्मराज अपने किसी कार्य में व्यस्त थे, तब श्यामला ने एक मकान का ताला खोलकर वहाँ देखा कि उसकी माता उर्मिला को अति भयंकर यमदूत बाँधकर तप्त तेल के कड़ाह में बार-बार डाल रहे हैं । लज्जित होकर श्यामला ने वह कमरा बंद कर दिया, फिर दूसरा ताला खोला तो देखा कि यहाँ भी उसकी माता को यमदूत शिला के ऊपर रखकर पीस रहे हैं और माता चिल्ला रही है । इसी प्रकार उसने तीसरे कमरे को खोलकर देखा कि यमदूत उसकी माता के मस्तक में लोहे की कील ठोंक रहे हैं, इसी तरह चौथे में अति भयंकर श्वान उसका भक्षण कर रहे हैं, पाँचवें में लोहे के संदंश से उसे पीड़ित कर रहे हैं । छठे में कोल्हू के बीच ईख के समान पेरी जा रही हैं और सातवें स्थान पर ताला खोलकर देखा तो वहाँ भी उसकी माता को हजारों कृमि भक्षण कर रहे हैं और यह रुधिर आदि से लथपथ हो रही हैं । यह देखकर श्यामला ने विचार किया कि मेरी माता ने ऐसा कौन-सा पाप किया, जिससे वह इस दुर्गति को प्राप्त हुई । यह सोचकर उसने सारा वृत्तान्त अपने पति धर्मराज को बतलाया । धर्मराज बोले — ‘प्रिये ! मैने इसीलिये कहा था कि ये सात ताले कभी न खोलना, नहीं तो तुम्हें वहाँ पश्चात्ताप होगा । तुम्हारी माता ने संतान के स्नेह से ब्राह्मण के गेहूँ चुराये थे, क्या तुम इस बात को नहीं आनती हो जो तुम मुझसे पूछ रही हो ? यह सब उसी कर्म का फल है । ब्राह्मण को धन स्नेह से भी भक्षण करे तो भी सात कुल अधोगति को प्राप्त होते हैं और चुराकर खाये तो जब तक चन्द्रमा और तारे हैं, तब तक नरक से उद्धार नहीं होता । जो गेहूँ इसने चुराये थे, वे ही कृमि बनकर इसका भक्षण कर रहे हैं ।’ श्यामला ने कहा — महाराज ! मेरी माता ने जो कुछ भी पहले किया, वह सब मैं जानती ही हूँ, फिर भी अब आप कोई ऐसा उपाय बतलायें, जिससे मेरी माता का नरक से उद्धार हो जाय । इसपर धर्मराज ने कुछ समय विचार किया और कहने लगे — ‘प्रिये ! आज से सात जन्म पूर्व तुम ब्राह्मणी थी । उस समय तुमने अपनी सखियों के साथ जो बुधाष्टमी का प्रत किया था, यदि उसका फल तुम संकल्पपूर्वक अपनी माता को दे दो तो इस संकट से उसकी मुक्ति हो जायगी ।’ यह सुनते ही श्यामला ने स्नान कर अपने व्रत का पुण्यफल संकल्पपूर्वक माता के लिये दान कर दिया । व्रत के फल के प्रभाव से उसकी माता भी उसी क्षण दिव्य देह धारणकर विमान में बैठकर अपने पति सहित स्वर्गलोक को चली गयी और बुध ग्रह के समीप स्थित हो गयी । राजन् ! अब इस व्रत के विधान को भी आप सावधान होकर सुनें — जब-जय शुक्ल पक्ष की अष्टमी को बुधवार पड़े तो उस दिन एकभुक्त-व्रत करना चाहिये । पूर्वाह्ण में नदी आदि में स्नान करे और वहाँ से जल से भरा नवीन कलश लाकर घर में स्थापित कर दे, उसमें सोना छोड़ दें और बाँस के पात्र में पक्वान्न भी रखे । आठ बुधाष्टमियों का व्रत करे और आठॉ में क्रम से ये आठ फ्क्वान्न–मोदक, फेनी, घी का अपूप, वटक, श्वेत कसार से बने पदार्थ, सोहालक (खड्युक्त अशोकवर्तिका) और फल, पुष्प तथा फेनी आदि अनेक पदार्थ बुध को निवेदित कर बाद में स्वयं भी अपने इष्टमित्रों के साथ भोजन करे । साथ ही बुधाष्टमी की कथा भी सुने । बिना कथा सुने भोजन न करे । बुध की एक माशे (८ रत्ती एक माशा) या आधे माशे की सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, पीत वस्त्र तथा दक्षिणा आदि से उसका पूजन करे । पूजन के मन्त्र इस प्रकार हैं — ‘ॐ बुधाय नमः, ॐ सोमात्मजाय नमः, ॐ दुर्बुद्धिनाशनाय नमः, ॐ सुबुद्धिप्रदाय नमः, ॐ ताराजाताय नमः, ॐ सौम्यग्रहाय नमः तथा ॐ सर्वसौख्यप्रदाय नमः । तदनन्तर निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर मूर्ति के साथ-साथ वह भोज्य सामग्री तथा अन्य पदार्थ ब्राह्मण को दान कर दें — “ॐ बुधोऽयं प्रतिगृह्णातु द्रव्यस्थोऽयं बुधः स्वयम् । दीयते बुधराजाय तुष्यतां च बुधो मम ॥” (उत्तरपर्व ५४ । ५१) कौंतेय ! उस समय इस द्रव्य में स्वयं बुध देव स्थित होकर इसे स्वीकार करें, मैं राजाबुध के लिए यह अर्पित कर रहा हूँ, मेरे ऊपर वे प्रसन्न हों । ब्राह्मण भी मूर्ति आदि ग्रहणकर यह मन्त्र पढ़ें — बुधः सौम्यस्तारकेयो राजपुत्र इलापतिः । कुमारो द्विजराजस्य यः पुरूरवसः पिता ॥ दुर्बुद्धिबोधदुरितं नाशयियावयोर्बुधः । सौख्यं च सौमनस्य॑ च करोतु शशिनन्दनः ॥ (उत्तरपर्व ५४ । ५२-५३) सौम्य मूर्ति बुध तारा के पुत्र, राजपुत्र इला के पति, द्विजराज (चन्द्र) के कुमार एवं पुरूरवा के पिता है । बुध देव, शशिनन्द ! आप मेरी दुर्बुद्धि के अपहरण पूर्वक समस्त सौख्य प्रदान करते हुए मेरे चित्त को सदैव प्रसन्न रखें। इस विधिसे जो बुधाष्टमीका व्रत करता है, वह सात जन्म तक जातिस्मर होता है । धन, धान्य, पुत्र, पौत्र, दीर्घ आयुष्य और ऐश्वर्य आदि संसारके सभी पदाथको प्राप्त कर अन्न समयमें नारायणका स्मरण करता हुआ तीर्थ-स्थानमें प्राण त्याग करता है और प्रलयपर्यन्त स्वर्गमें निवास करता हैं । जो इस विधानको सुनता है, वह भी ब्रह्महत्यादि पापोंसे मुक्त हो जाता है। (अध्याय ५४) मत्स्यपुराण में बुध का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है — पीतमाल्याम्बरधरः कर्णिकारसमद्युतिः । खड्गचर्मगदापाणिः सिंहस्थो वरदो बुधः॥ (९४ । ४) बुध पीले रंग की पुष्पमाला और वस्त्र धारण करते हैं । उनकी शरीरकान्ति कनेर के पुष्प-सरीखी है । वे चारों हाथों में क्रमशः तलवार, ढाल, गदा और वरदमुद्रा धारण किये रहते हैं तथा सिंह पर सवार होते हैं । हेमाद्रि, व्रतराज तथा जयसिंहकल्पद्रुम आदि निबन्धग्रन्थों में भी भविष्योत्तरपुराण के नाम से बुधाष्टमी व्रत दिया गया है, पर पाठ-भेद अधिक है । व्रतराज में बुध के पूजन की तथा व्रत के उद्यापन की विधि भी भविष्योत्तरपुराण के नाम से दी गयी है । इस कथा में बुद्धियुक्ति और विमर्श-शक्ति का भी पर्याप्त सम्मिश्रण दीखता है । Related