भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ६३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ६३
दशावतार-व्रत-कथा, विधान और फल

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — राजन् ! सत्ययुग के प्रारम्भ में भृगु नाम के एक ऋषि हुए थे । उनकी भार्या दिव्या हिरण्यकशिपु की पुत्री अत्यन्त पतिव्रता थीं । वे आश्रम की शोभा थी और निरन्तर गृहकार्य में संलग्न रहती थीं । वे महर्षि भृगु की आज्ञा का पालन करती थीं । भृगुजी भी उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे ।
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किसी समय देवासुर संग्राम में भगवान् विष्णु के द्वारा असुरों को महान् भय उपस्थित हुआ । तब वे सभी असुर महर्षि भृगु की शरण में आये । महर्षि भृगु अपना अग्निहोत्र आदि कार्य अपनी भार्या को सौंपकर स्वयं संजीवनी विद्या को प्राप्त करने के लिये हिमालय के उत्तर भाग में जाकर तपस्या करने लगे । वे भगवान् शंकर की आराधना कर संजीवनी-विद्या को प्राप्त कर दैत्यराज बलि को सदा विजयी करना चाहते थे । इसी समय गरुड़ पर चढ़कर भगवान् विष्णु वहाँ आये और दैत्यों का वध करने लगे । क्षणभर में ही उन्होंने दैत्यों का संहार कर दिया । भृगु की पत्नी दिव्या भगवान् को शाप देने के लिये उद्यत हो गयीं । उनके मुख से शाप निकलना ही चाहता था कि भगवान् विष्णु ने चक्र से उनका सिर काट दिया । इतने में भृगुमुनि भी संजीवनी-विद्या को प्राप्तकर वहाँ आ गये । उन्होंने देखा कि सभी दैत्य मारे गये हैं और ब्राह्मणी भी मार दी गयी है । क्रोधान्ध हो भृगु ने भगवान् विष्णु को शाप दे दिया कि ‘तुम दस बार मनुष्यलोक में जन्म लोगे ।’

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! भृगु के शाप से जगत् की रक्षा के लिये मैं बार-बार अवतार ग्रहण करता हूँ । जो लोग भक्तिपूर्वक मेरी अर्चना करते हैं, वे अवश्य स्वर्गगामी होते हैं ।

महाराज युधिष्ठिर ने कहा —
भगवन् ! आप अपने दशावतार-व्रत का विधान कहिये ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को संयतेन्द्रिय हो नदी आदि में स्नान कर तर्पण सम्पन्न करे तथा घर आकर तीन अङ्गुल धान्य का चूर्ण लेकर घृत में पकाये । इस प्रकार दस वर्षों तक प्रतिवर्ष करे । प्रतिवर्ष क्रमशः पूरी, घेवर, कसार, मोदक, सोहालक, खण्डवेष्टक, कोकरस, अपूप, कर्णवेष्ट तथा खण्डक — ये पक्वान्न उस चूर्ण से बनाये और उसे भगवान को नैवेद्य रूप में समर्पित करे । प्रत्येक दशहरा को दस गौएँ दस ब्राह्मणों को दे । नैवेद्य का आधा भाग भगवान् के सामने रख दे, चौथाई ब्राह्मण को दे और चौथाई भाग पवित्र जलाशय पर जाकर बाद में स्वयं भी ग्रहण करे । गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि उपचारों से मन्त्रपूर्वक दशावतारों का पूजन करे । भगवान् के दस अवतारोके नाम इस प्रकार हैं — (१) मत्स्य, (२) कूर्म, (३) वराह, (४) नृसिंह, (५) त्रिविक्रम (वामन), (६) परशुराम, (७) श्रीराम, (८) श्रीकृष्ण, (९) बुद्ध तथा (१०) कल्कि ।

अनन्तर प्रार्थना करे —

“गतोऽस्मि शरणं देवं हरिं नारायणं प्रभुम् ।
प्रणतोऽस्मि जगन्नाथं स मे विष्णुः प्रसीदतु

छिनत्तु वैष्णवीं मायां भक्त्या प्रीतो जनार्दनः ।
श्वेतद्वीपं नयत्वस्मान्मयात्मा विनिवेदितः
॥”

(उत्तरपर्व ६३ । २४-२५)

‘दस अवतारों को धारण करनेवाले सर्वव्यापी, सम्पूर्ण संसार के स्वामी हे नारायण हरि ! मैं आपकी शरण में आया हूँ । हे देव ! आप मुझ पर प्रसन्न हों । जनार्दन ! आप भक्ति द्वारा प्रसन्न होते हैं । आप अपनी वैष्णवी माया को निवारित करें, मुझे आप अपने धाम में ले चलें । मैंने अपने को आपके लिये सौंप दिया है ।’

इस प्रकार जो इस व्रत को करता है, वह भगवान् के अनुग्रह से जन्म-मरण से छुटकारा प्राप्त कर लेता है और सदा विष्णुलोक में निवास करता है ।
(अध्याय ६३)

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