January 1, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ७ व्रतोपवास की महिमा में शकटव्रत की कथा भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! मैंने जो भीषण नरकों का विस्तार से वर्णन किया है, उन्हें व्रत-उपवासरूपी नौका से मनुष्य पार कर सकता है । प्राणी को अति दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे पश्चाताप न करना पड़े और यह जन्म भी व्यर्थ न जाय और फिर जन्म भी न लेना पड़े । जिस मनुष्य की कीर्ति, दान, व्रत, उपवास आदि की परम्परा बनी है, वह परलोक में उन्हीं कर्मों के द्वारा सुख भोगता है । व्रत तथा स्वाध्याय न करनेवाले की कहीं भी गति नहीं है । इसके विपरीत व्रत, स्वाध्याय करनेवाले पुरुष सदा सुखी होते हैं । इसलिए व्रत-स्वाध्याय अवश्य करने चाहिये । राजन ! यहाँ एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ — योग को सिद्ध किया हुआ एक सिद्ध अति भयंकर विकृत रूप धारण कर पृथ्वी पर विचरण करता था । उसके लम्बे ओंठ, टूटे दाँत, पिङ्गल नेत्र, चपटे कान, फटा मुख, लम्बा पेट, टेढ़े पैर और सम्पूर्ण अंग कुरूप थे । उसे मुलजालिक नाम के एक ब्राह्मण ने देखा और उससे पूछा कि आप स्वर्ग से कब आये और किस प्रयोजन से यहाँ आपका आगमन हुआ ? क्या अपने देवताओं के चित्त को मोहित करनेवाली और स्वर्ग की अलंकार-स्वरूपिणी रम्भा को देखा है ? अब आप स्वर्ग में जायँ तो रम्भा से कहें कि अवन्तिपुरी का निवासी ब्राह्मण तुम्हारा कुशल पूछता था । ब्राह्मण का वचन सुनकर सिद्ध ने चकित हो पूछा कि ‘ब्राह्मण ! तुमने मुझे कैसे पहचाना ?’ तब ब्राह्मण ने कहा कि ‘महाराज ! कुरूप पुरुषों के एक-दो अंग विकृत होते हैं, पर आपके सभी अंग टेढ़े और विकृत हैं ।’ इसीसे मैंने अनुमान किया की इतना रूप गुप्त किये कोई स्वर्ग के निवासी सिद्ध ही हैं । ब्राह्मण का वचन सुनते ही वह सिद्ध वहाँ से अन्तर्धान हो गया और कई दिनों के बाद पुनः ब्राह्मण के समीप आया और कहने लगा – ‘ब्राह्मण ! हम स्वर्ग में गये और इन्द्र की सभा में जब नृत्य हो चूका, उसके बाद मैंने एकान्त में रम्भा से तुम्हारा संदेश कहा, परन्तु रम्भा ने यह कहा कि मैं उस ब्राह्मण को नहीं जानती । यहाँ तो उसीका नाम जानते हैं जो निर्मल विद्या, पौरुष, दान, तप, यज्ञ अथवा व्रत आदिसे युक्त होता है । उसका नाम स्वर्गभर में चिरकालतक स्थिर रहता है ।’ रम्भा का सिद्ध के मुख से यह वचन सुनकर ब्राह्मण ने कहा कि हम शकटव्रत को नियम से करते हैं, आप रम्भा से कह दीजिये । यह सुनते ही सिद्ध फिर अन्तर्धान हो गया और स्वर्ग में जाकर उसने रम्भा से ब्राह्मण का संदेश कहा और जब उसने उसके गुण वर्णन किये तब रम्भा प्रसन्न होकर कहने लगी – ‘सिद्ध महाकाल ! मैं वन के निवासी उस शकट ब्रह्मचारी को जानती हूँ । दर्शन से, सम्भाषणसे , एकत्र निवास से और उपकार करने से मनुष्यों का परस्पर स्नेह होता है , परन्तु मुझे उस ब्राह्मण का दर्शन-सम्भाषण आदि कुछ भी नहीं हुआ । केवल नाम-श्रवण से इतना स्नेह हो गया है ।’ सिद्ध से इतना कहकर रम्भा इन्द्र के समीप गयी और ब्राह्मण के व्रत आदि करने तथा अपने ऊपर अनुरक्त होने का वर्णन किया । इन्द्र ने भी प्रसन्न हो रम्भा से पूछकर उस उत्तम ब्राह्मण को वस्त्राभूषण आदि से अलंकृत कर दिव्य विमान में बैठाकर स्वर्ग में बुलाया और वहाँ सत्कारपूर्वक स्वर्ग के दिव्य भोगों को उसे प्रदान किया । ब्राह्मण चिरकालतक वहाँ दिव्य भोग भोगता रहा । यह शकट-व्रत का माहात्म्य हमने संक्षेप में वर्णन किया है । दृढ़व्रती पुरुष के लिये राजलक्ष्मी, वैकुण्ठलोक, मनोवाञ्छित फल आदि दुर्लभ पदार्थ भी जगत् में सुलभ है । इसलिए सदा सत्परायण पुरुष को व्रत में संलग्न रहना चाहिये । (अध्याय ७) Related