भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ६८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ६८
अवियोग-व्रत का विधान

महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! आप यह बतायें कि अवियोगव्रत किस विधि से किया जाता है ?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! अवियोगव्रत सभी व्रतों में श्रेष्ठ है, मैं उसका विधान बतलाता हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुनें ।
om, ॐ
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को प्रातः उठकर जलाशय पर आकर स्नान करे, शुद्ध शुक्ल वस्त्र धारणकर सुन्दर लिपे-पुते स्थान पर गोबर से एक मण्डल का निर्माण कर, उसमें लक्ष्मी सहित विष्णु, गौरी सहित शिव, सावित्री सहित ब्रह्मा, राज्ञी सहित सूर्यनारायण की प्रतिमा स्थापित कर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि उपचारों से इन चारों देवदम्पतियों के पृथक्-पृथक् नाम-मन्त्रों से आदि में ”ॐ कार तथा अन्त्त में ‘नमः’ पद की योजनाकर पूजा एवं प्रार्थना करे —

“सहस्रमूर्द्धा पुरुषः पद्मनाभो जनार्दनः ।
व्यासोऽपि कपिलाचार्यों भगवान्पुरुषोत्तमः ॥
नारायणो मधुलिहो विष्णुर्दामोदरो हरिः ।
महावराहो गोविन्दः केशवो गरुडध्वजः ॥
श्रीधरः पुण्डरीकाक्षो दिश्वरूपस्त्रिविक्रमः ।
उपेन्द्रो वामनो रामो वैकुण्ठो माधवो धुवः ॥
वासुदेवो हृषीकेशः कृष्णः संकर्षणोऽच्युतः ।
अनिरुद्धो महायोगी प्रद्युम्नो नन्द एव च ॥
नित्यं स में शुभः प्रीतः सश्रीकः केशशूलिनः ।
उमापतिर्नीलकण्ठः स्थाणुः शम्भुर्भगाक्षिहा ॥
ईशानो भैरवः शूली त्र्यम्बकस्त्रिपुरान्तकः ।
कपर्दीशो महालिंगी महाकालो वृषध्वजः ॥
शिवः शर्वो महादेवो रुद्रो भूतमहेश्वरः ।
ममास्तु सह पार्वत्या शङ्करः शङ्करश्चिरम् ॥
ब्रह्मा शम्भुः प्रभुः स्रष्टा पुष्करी प्रपितामहः ।
हिरण्यगर्भो वेदज्ञः परमेष्ठी प्रजापतिः ॥
चतुर्मुखः सृष्टिकर्ता स्वयंभूः कमलासनः ।
विरञ्चिः पद्मयोनिश्च ममास्तु वरदः सदा ॥
आदित्यो भास्करो भानुः सूर्योऽर्कः सविता रविः ।
मार्तण्डो मण्डलज्योतिरग्निरश्मिर्जनेश्वरः ॥
प्रभाकरः सप्तसप्तिस्तरणिः सरणिः खगः ।
दिवाकरो दिनकरः सहस्रांशुर्मरीचिमान् ॥
पद्मप्रबोधनः पूषा किरणी मेरुभूषणः ।
निकुम्भो वर्णभो देवः सुप्रीतोऽस्तु सदा मम ॥
लक्ष्मीः श्रीः सम्पदा पद्मा मा विभूतिर्हरिप्रिया ।
पार्वती ललिता गौरी उमा शङ्करवल्लभा ॥
गायत्री प्रकृतिः सृष्टिः सावित्री वेधसो मता ।
राज्ञी भानुमती संज्ञा नित्यभा भास्करप्रिया ॥”
(उत्तरपर्व ६८ । ८-२१)

‘सहस्र शीर्षा (शिर) वाले पुरुष, जिन्हें, पद्भनाभ, जनार्दन, व्यास, कपिलाचार्य, भगवान् पुरुषोत्तम, नारायण, मधुलिह, विष्णु, दामोदर, हरि, महावराह, गोविन्द केशव, गरुड़ध्वज, श्रीधर, पुण्डरीकाक्ष, विश्वरूप, त्रिविक्रम, उपेन्द्र, वामन राम, वैकुण्ठ, माधव, ध्रुव, वासुदेव, हृषीकेश, कृष्ण, संकर्षण, अच्युत, अनिरुद्ध, महायोगी प्रद्युम्न, और नंद कहा जाता है श्री समेत मेरे लिए शुभ प्रदान करते हुए परम प्रसन्न हों । जप-त्रिशूल से सुशोभित उमापति, नीलकंठ, स्थाणु, शम्भु, भगाक्षिहा, ईशान, भैरव, शूली, त्र्यम्बक, त्रिपुरान्तक, कपर्दी, ईश, महालिंगी, महाकाल, वृषध्वज शिव, शर्व, महादेव, रुद्र, भूत महेश्वर, एवं पार्वती समेत शंकर जी मेरे लिए सदैव शंकर कल्याणप्रद हों । ब्रह्मा, शंभु, प्रभु, स्रष्टा, पुष्करी, प्रपितामह, हिरण्यगर्भ, वेदज्ञ, परमेष्ठी, प्रजापति, चतुर्मुख, सृष्टिकर्ता स्वयं भू, कमलासन, विरञ्चि एवं पद्मयोनि मेरे लिए सदैव वरदायक हों । उसी भाँति आदित्य, भास्कर, भानु, सूर्य, अर्क, सविता, रवि, मार्तण्ड, मण्डल ज्योति, अग्नि रश्मि, जनेश्वर, प्रभाकर, सप्त सप्ति, तरणि, सरणि, खग, दिवाकर, दिनकर, सहस्रांशु, मरीचिमान्, पद्मप्रबोधन, पूषा, किरणी, मेरुभूषण, निकुंभ और इभ देव मुद्रा पर सदा प्रसन्न रहे । लक्ष्मी, श्री, सम्पदा, पद्मा, मा, विभूति, हरिप्रिया, पार्वती, ललिता, गौरी, उमा, शंकरवल्लभा, गायत्री, आकृति, सृष्टि, सावित्री ब्रह्मप्रिया, और राज्ञी, भानुमती, संज्ञा, नित्यभा, तथा भास्कर प्रिया आदि देवियाँ पति समेत सदैव मुझ पर प्रसन्न रहें ।’

अनन्तर ब्राह्मण-भोजन कराना चाहिये । फिर विविध दान देकर स्वयं भी भोजन करना चाहिये । इस अवियोगव्रत को जो करता है, उसका कभी भी इष्टजनों (मित्र, पुत्र, पत्नी आदि) से वियोग नहीं होता और बहुत समय तक वह सांसारिक सुखों का भोगकर क्रमशः विष्णु, शिव, ब्रह्मा और सूर्यलोक में निवास कर अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है। जो स्त्री इस व्रत को करती हैं, वह भी अपने सभी अभीष्ट फलों को प्राप्त कर विष्णुलोक को प्राप्त करती है।
(अध्याय ६८)

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