January 6, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ७३ से ७४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ७३ से ७४ मल्लद्वादशी एवं भीमद्वादशी-व्रत का विधान युधिष्ठिर के द्वारा मल्लद्वादशी के विषय में पूछे जानेप र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा — महाराज ! जब मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी, उस समय यमुना-तट पर भाण्डीर-वन में वटवृक्ष के नीचे एक सिंहासन पर मुझे बैठाकर सुरभद्र, मण्डलीक, योगवर्धन तथा यक्षेन्द्रभद्र आदि बड़े-बड़े मल्लों और गोपाली, धन्या, विशाखा, ध्याननिष्ठिका, अनुगन्धा, सुभगा आदि गोपियों ने दही, दूध और फल-फूल आदि से मेरा पूजन किया । तत्पश्चात् तीन सौ साठ मल्लों ने भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करते हुए मल्लयुद्ध को सम्पन्न किया तथा हमारी प्रसन्नता के लिये बड़ा भारी उत्सव मनाया । उस महोत्सव में भाँति-भाँति के भक्ष्य-भोज्य, गोदान, गोष्ठी तथा पूजन आदि कार्य सम्पन्न किये गये थे । श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों का पूजन भी हुआ था । उसी दिन से यह मल्लद्वादशी प्रचलित हुई । इस व्रत को मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी से आरम्भ कर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तक करना चाहिये और प्रतिमास क्रम से केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृषीकेश, पद्मनाभ तथा दामोदर — इन नामों से गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, गीत-वाद्य, नृत्य-सहित पूजन करे और ‘कृष्णो में प्रीयताम्’ इस प्रकार उच्चारण करे । यह द्वादशीव्रत मुझे बहुत प्रिय है । चूँकि मल्लों ने इस व्रत को प्रारम्भ किया था, अतः इसका नाम मल्लद्वादशी है । जिन गोपॉ के द्वारा इस व्रत को सम्पन्न किया गया उन्हें गाय, महिषी, कृषि आदि प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुआ । जो कोई पुरुष इस व्रत को सम्पन्न करेगा, मेरे अनुग्रह से वह आरोग्य, बल, ऐश्वर्य और शाश्वत विष्णुलोक को प्राप्त करेगा । भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोले — महाराज ! प्राचीन काल में विदर्भ देश में भीम नामक एक प्रतापी राजा थे । वे दमयन्ती के पिता एवं राजा नल के ससुर थे । राजा भीम बड़े पराक्रमी, सत्यवक्ता और प्रजापालक थे । वे शाश्त्रोक्त-विधि से राज्य-कार्य करते थे । एक दिन तीर्थयात्रा करते हुए ब्रह्माजी के पुत्र पुलस्त्यमुनि उनके यहाँ पधारे । राजा ने अर्ध्य-पाद्यादि द्वारा उनका बड़ा आदर-सत्कार किया । पुलस्त्य मुनि ने प्रसन्न होकर राजा से कुशल-क्षेम पूछा, तब राजा ने अत्यन्त नियपूर्वक कहा —‘महाराज ! जहाँ आप जैसे महानुभाव का आगमन हो, वहाँ सब कुशल ही होता है । आपके यहाँ पधारने से मैं पवित्र हो गया । इस तरह से अनेक प्रकार की स्नेह की बातेंं राजा तथा पुलस्त्य मुनि के बीच होती रहीं । कुछ समय के पश्चात् विदर्भापति भीम ने पुलस्त्य मुनि से पूछा — प्रभो ! संसार के जीव अनेक प्रकार के दुःखों से सदा पीडित रहते है और उसमें गर्भवास सबसे बड़ा दुःख है, प्राणी अनेक प्रकार के रोग से ग्रस्त है । जीवों की ऐसी दशा को देखकर मुझे अत्यन्त कष्ट होता है । अतः ऐसा कौन-सा उपाय है, जिसके द्वारा थोड़ा परिश्रम करके ही जीव संसार के दुःखों से छुटकारा पाने में समर्थ हो जाय । यदि कोई व्रत-दानादि हो तो आप मुझे बतलायें । पुलस्त्य मुनि ने कहा — राजन् ! यदि मानव माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को उपवास करे तो उसे कोई कष्ट नहीं हो सकता । यह तिथि परम पवित्र करनेवाली है । यह व्रत अति गुप्त है, किंतु आपके स्नेह ने मुझे कहने के लिये विवश कर दिया है । अदीक्षित से इस व्रत को कभी नहीं कहना चाहिये, जितेन्द्रिय, धर्मनिष्ठ और विष्णुभक्त पुरुष ही इस व्रत के अधिकारी हैं । ब्रह्मघाती, गुरुघाती, स्त्रीघाती, कृतघ्न, मित्रद्रोही आदि बड़े-बड़े पातकी भी इस व्रत के करने से पापमुक्त हो जाते हैं । इसके लिये शुद्ध तिथि में और अच्छे मुहूर्त में दस हाथ लम्बा-चौड़ा मण्डप तैयार करना चाहिये तथा उसके मध्य में पाँच हाथ की एक वेदी बनानी चाहिये । वेदी के ऊपर एक मण्डल बनाये, जो पाँच रंगों से युक्त हो । मण्डप में आठ अथवा चार कुण्ड बनाये । कुण्डों में ब्राह्मणों को उपस्थापित करे । मण्डल के मध्य में कर्णिका के ऊपर पश्चिमाभिमुख चतुर्भुज भगवान् जनार्दन की प्रतिमा स्थापित कर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि भाँति-भाँति के उपचारों तथा नैवेद्यों से शास्त्रोक्त-विधि से ब्राह्मणों द्वारा उनकी पूजा करानी चाहिये । नारायण के सम्मुख दो स्तम्भ गाड़कर उनके ऊपर एक आड़ा काष्ठ रख उसमें एक दृढ़ छींका बाँधना चाहिये । उस पर सुवर्ग, चाँदी, ताम्र अथवा मृत्तिका सहस्र, शत अथवा एक छिद्रसमन्वित उत्तम कलश जल, दूध अथवा घी से पूर्ण कर रखना चाहिये । पलाश की समिधा, तिल, मृत, खीर और शमी-पत्रों से ग्रहों के लिये आहुति देनी चाहिये । ईशान-कोण में ग्रहों का पीठ-स्थापन कर, ग्रह-यज्ञविधान से ग्रहों की पूजा करनी चाहिये । पूर्व आदि दिशाओं में इन्द्र, यम, वरुण और कुबेर का पूजन कर शुक्ल वस्त्र तथा चन्दन से भूषित, हाथ में कुश लेकर यजमान को एक पीढे के ऊपर भगवान् के सामने बैठना चाहिये । यजमान को एकाग्रचित हो कलश से गिरती जलधारा (वसोर्धारा) को निम्न-मन्त्र का पाठ करते हुए भगवान् को प्रणामपूर्वक अपने सिर पर धारण करना चाहिये — “नमस्ते देवदेवेश नमस्ते भुवनेश्वर । व्रतेनानेन मां पाहि परमात्मन् नमोऽस्तु ते ।। (उत्तरपर्व ७४ ।४२) उस समय ब्राह्मणों को चारों दिशाओं के कुण्डों में हवन करना चाहिये । साथ ही शान्तिकाध्याय और विष्णुसूक्त का पाठ किया जाना चाहिये । शङ्खध्वनि करनी चाहिये । भाँति-भाँति के वाद्यों को बजाना चाहिये । पुण्य-जयघोष करना चाहिये । माङ्गलिक स्तुति-पाठ करना चाहिये । इस तरह के माङ्गलिक कार्य करते हुए यजमान को हरिवंश, सौपर्णक (सुपर्णसूक्त*) आख्यान और महाभारत आदि का श्रवण करते हुए जागरणपूर्वक रात्रि व्यतीत करनी चाहिये । भगवान् के ऊपर गिरती हुई वसोर्धारा समस्त सिद्धियों को प्रदान करनेवाली है । दूसरे दिन प्रातः यजमान ब्राह्मणों के साथ किसी पुण्य जलाशय अथवा नदी आदि में स्नानकर शुक्ल वस्त्र पहनकर प्रसन्नचित्त से भगवान् भास्कर को अर्घ्य दे । पुष्प, धूप, दीप आदि उपचारों से भगवान् पुरुषोत्तम की पूजा करे । हवन करके भक्तिपूर्वक पूर्णाहुति दे । यज्ञ में उपस्थित सभी ब्राह्मणों का शय्या, भोजन, गोदान, वस्त्र, आभूषण आदि द्वारा पूजन करे और आचार्य की विशेषरूप से पूजा करे । जैसे ब्राह्मण एवं आचार्य संतुष्ट हों वैसा यत्न करे, क्योंकि आचार्य साक्षात् देवतुल्य गुरु है । दीनों, अनाथों तथा अभ्यागतों को भी संतुष्ट करे । अनन्त्तर स्वयं भी हविष्य का भोजन करे । राजन् ! इस प्रकार मैंने इस भीम-द्वादशी-व्रत का विधान बतलाया, इससे पापिष्ठ व्यक्ति भी पापमुक्त हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं । यह विष्णुयाग सैकड़ों वाजपेय एवं अतिरात्र याग से विशेष फलदायी है । इस भीमद्वादशी को व्रत करनेवाले स्त्री-पुरुष सात जन्मों तक अखण्ड सौभाग्य, आयु, आरोग्य तथा सभी सम्पदाओं को प्राप्त करते हैं । अनन्तर मृत्यु के बाद क्रमशः विष्णुपुर, रुद्रलोक तथा ब्रहालोक को प्राप्त करते हैं । इस पृथ्वीलोक में आकर पुनः वह सम्पूर्ण पृथ्वी का अधिपति एवं चक्रवर्ती धार्मिक राजा होता हैं । इस व्रतको प्राचीन कालमें महात्मा सगर, अज, धुंधुमार, दिलीप, ययाति तथा अन्य महान् श्रेष्ठ राजाओं ने किया था और स्त्री, वैश्य एवं शूद्रों ने भी धर्म की कामना से इस व्रत को किया था । भृगु आदि मुनियों और सभी वेदज्ञ ब्राह्मणों द्वारा भी इसका अनुष्ठान हुआ था । हे राजन् ! आपके पूछने पर मैंने इसे बतलाया है, अतः आजसे यह द्वादशी आपके (भीमद्वादशी) नाम से पृथ्वी पर ख्याति प्राप्त करेगी । (अध्याय ७३-७४) * ऋग्वेदः – मण्डल १० सूक्तं १०।११४ ऋषि वैरूपः सध्रिः, देवता विश्वे देवाः। त्रिष्टुप्, ४ जगती छन्दः घर्मा समन्ता त्रिवृतं व्यापतुस्तयोर्जुष्टिं मातरिश्वा जगाम । दिवस्पयो दिधिषाणा अवेषन्विदुर्देवाः सहसामानमर्कम् ॥१॥ तिस्रो देष्ट्राय निरृतीरुपासते दीर्घश्रुतो वि हि जानन्ति वह्नयः । तासां नि चिक्युः कवयो निदानं परेषु या गुह्येषु व्रतेषु ॥२॥ चतुष्कपर्दा युवतिः सुपेशा घृतप्रतीका वयुनानि वस्ते । तस्यां सुपर्णा वृषणा नि षेदतुर्यत्र देवा दधिरे भागधेयम् ॥३॥ एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेश स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे । तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळ्हि स उ रेळ्हि मातरम् ॥४॥ सुपर्णं विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति । छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्सोमस्य मिमते द्वादश ॥५॥ षट्त्रिंशाँश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम् । यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक्सामाभ्यां प्र रथं वर्तयन्ति ॥६॥ चतुर्दशान्ये महिमानो अस्य तं धीरा वाचा प्र णयन्ति सप्त । आप्नानं तीर्थं क इह प्र वोचद्येन पथा प्रपिबन्ते सुतस्य ॥७॥ सहस्रधा पञ्चदशान्युक्था यावद्द्यावापृथिवी तावदित्तत् । सहस्रधा महिमानः सहस्रं यावद्ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक् ॥८॥ कश्छन्दसां योगमावेद धीरः को धिष्ण्यां प्रति वाचं पपाद । कमृत्विजामष्टमं शूरमाहुर्हरी इन्द्रस्य नि चिकाय कः स्वित् ॥९॥ भूम्या अन्तं पर्येके चरन्ति रथस्य धूर्षु युक्तासो अस्थुः । श्रमस्य दायं वि भजन्त्येभ्यो यदा यमो भवति हर्म्ये हितः ॥१०॥ Related