भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ८२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ८२
सुकृत-द्वादशी के प्रसंग में सीरभद्र वैश्य की कथा

राजा युधिष्ठिरने पूछा — श्रीकृष्णचन्द्र ! ऐसा कौनसा कर्म है, जिसके करने से सभी कष्ट दूर हो जायें तथा कोई संताप भी न हो ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! आपने जो पूछा है, उस विषय में एक आख्यान का वर्णन करता हूँ । पूर्वकाल में विदिशा (भेलसा) नगरी में सीरभद्र नामक एक वैश्य रहता था । om, ॐवह पुत्र-पौत्र, कन्या, स्त्री आदि के भरण-पोषण में ही लगा रहता था, फलस्वरूप स्वप्न में भी उसे परलोक की चिन्ता नहीं होती थी । वह न्याय-अन्याय हर तरह से धन का ही उपार्जन करता, कभी दान, हवन, देवपूजन आदि कर्म का नाम भी नहीं लेता था । नित्य-नैमित्तिक कर्म का लोप उसने स्वयं कर लिया था । कुछ काल के अनन्तर वह वैश्य मृत्यु को प्राप्त हुआ और विन्ध्यारण्य में यातना-देह में प्रेतरूप से रहने लगा । एक दिन ग्रीष्म ऋतु में विपीत नाम के वेदवेत्ता ब्राह्मण ने उस प्रेत को देखा कि वह सूर्य-किरणों से संतप्त नदी के बालू में लोट रहा है, उसके सब अङ्गों में छाले पड़ गये हैं । प्यास से कण्ठ सूख रहा है और जिह्वा लटक गयी है । वह लम्बी-लम्बी साँस ले रहा है । उसकी यह दशा देखकर ब्राह्मण को बड़ी दया आयी और उसने उसका वृत्तान्त पूछा ।

प्रेत कहने लगा — ब्रह्मन् ! मैं पूर्व-जन्म में परलोक के लिये किसी प्रकार के कर्म न करने के कारण ही दग्ध हो रहा हूँ । मैं निरन्तर धन, घर, खेत, पुत्र, स्त्री आदि की चिन्ता में ही आसक्त रहता था और मैंने अपने वास्तविक हित का चिन्तन कभी नहीं किया । इससे यह कष्ट भोग रहा हूँ । ‘यह काम कर लिया और यह काम करना है’ — इसी उधेड़बुन में सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करने का ही यह फल है । लोभवश मैं शीत-उष्ण सभी प्रकार के कष्टों को झेल रहा हूँ । मैंने धर्म के लिये किंचित् भी कष्ट नहीं झेला, उससे अब पछताता हूँ । देवता, पितर, अतिथि आदि का मैंने कभी पूजन नहीं किया और यही कारण है कि अब मुझे अन्न-जल तक नहीं मिल रहा है । अन्याय के द्वारा एकत्र किये गये धन का उपभोग दूसरे लोग कर रहे होंगे, यह सोच-सोचकर मुझे चैन नहीं मिलता । मैंने कभी ब्राह्मणों का पूजन नहीं किया और न ही कभी देवार्चन ही किया । फलस्वरूप मेरी ऐसी दशा हुई है । चूंकि मैंने पापों का ही संचय किया, अतः मैं उसके फल को अकेले ही भोग रहा हूँ । मैं अपने किये दुष्कर्म का ही फल भोग रहा हूँ । अतः हे मुनीश्वर ! यदि ऐसा कोई उपाय हो तो आप उसे बतायें, जिससे इस दुर्गति से मेरा उद्धार हो ।

विपीत मुनि बोले — सीरभद्र ! दस जन्म पहले तुमने भगवान् अच्युत की आराधना की इच्छा से सुकृत-द्वादशी का उपवास किया था, उसके प्रभाव से इस पाप के बहुत बड़े भाग का क्षय हो गया हैं, अब तुम्हें अल्पकाल में ही उत्तम गति प्राप्त होगी । यह द्वादशी-व्रत पापों का क्षय तथा पुण्य का संचार करनेवाला है, इसी कारण इसका नाम सुकृत-द्वादशी है । इस तरह सीरभद्र को आश्वस्त कर विपीतमुनि अपने आश्रम को चले गये और सौरभद्र भी द्वादशीव्रत के फलस्वरूप थोड़े काल के अनन्तर मोक्ष को प्राप्त हो गया ।

इतना कहकर श्रीकृष्ण भगवान् बोले — हे महाराज ! यह उपवास का प्रभाव है कि इतना पाप थोड़े ही काल में क्षय हुआ, इसलिये मनुष्य को पुण्य के लिये सदा यत्न करना चाहिये और अपने कल्याण के लिये उपवासादि करते रहना चाहिये ।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — श्रीकृष्णचन्द्र ! पापों से अति दारुण नरक की यातना भोगनी पड़ती है । ऐसा कौन-सा व्रत है, जिससे सब पाप नष्ट हो जायें और मोक्ष प्राप्त हो।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को उपवास कर काम, क्रोध, लोभ, मोह, दम्भ आदिका त्यागकर संसार की असारता की भावना करता हुआ ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर-मन्त्र का जप करना चाहिये और इसी भाँति द्वादशी को भी भगवान् मधुसूदन की पूजा आदि करनी चाहिये । प्रथम चार (फाल्गुन से ज्येष्ठ) मास के पारण में चाँदी, ताँबे अथवा मृत्तिका के पात्रो में यव भरकर ब्राह्मणों को देना चाहिये । आषाढ़ादि द्वितीय पारण में घृतपात्र देना चाहिये और कार्तिकादि चार मास में तिलपात्र ब्राह्मणों को अर्पण करना चाहिये । भगवान् की पूजा के अनन्तर उनके अनुग्रह की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करनी चाहिये —

“प्रणम्य च हृषीकेशं कृतपूजः प्रसादयेत् ॥
विष्णो नमस्ते जगती प्रसोत्रे श्रीवासुदेवाय नमो नमस्ते ।
नारायणाख्यः प्रणतैर्विचिंत्यः करोतु मां शाश्वतपुण्यराशिम् ॥
प्रसीद पुण्यं जयमेति विष्णो श्रीवासुदेवर्द्धिमुपैतु पुण्यम् ।
प्रयातु वाशेषमथोविनाशं मातेंऽघ्रिपद्मादितरत्र मे मतिः ॥
विष्णो पुण्योद्भवो मेस्तु वासुदेवास्तु मे शुभम् ।
नारायणोऽस्तु मे धर्मो जहि पापमशेषतः ॥
अनेकजन्मजनितं बाल्ययौवनवार्द्धके ।
पुण्यं विवृद्धिमायातु यातु पापं च संक्षयम् ॥
आकाशादिषु शब्दादौ श्रोत्रादौ मदादिषु ।
प्रकृतौ पुरुषे दैव ब्रह्मण्यपि च स प्रभुः ॥
यथैक एव धर्मात्मा वासुदेवो व्यवस्थितः ।
तेन सत्येन पापं मे नरकार्तिकप्रदं क्षयम् ॥
प्रयातु सुकृतस्यास्तु समानु दिवसञ्जयः ।
पापस्य हानिः पुण्यस्य वृद्धिर्मेस्तूत्तमोत्तमा ॥”
(उत्तरपर्व ८२ । ५४-६१)
‘जगत्कारण विष्णु को नमस्कार है, और श्री वासुदेव को नमस्कार है । श्री नारायणदेव का वह मुखारविन्द, जिसका ध्यान सदैव प्रणत पुरुष किया करते हैं, मुझे शाश्वत पुण्य की राशि बनाये । विष्णो! आप प्रसन्न हों, और मेरा पुण्य श्री वासुदेव जी की पुण्य-जप रूप भक्ति प्राप्त करे (अर्थात् अतुल हो जाये) अथवा विनष्ट हो जाये, किन्तु मेरी बुद्धि आप के चरण-कमल का त्याग कभी न करे । विष्णो ! मेरा पुण्योद्भव हो, अशेष पाप का विनाश हो, नारायण ! मेरी धर्म-वृद्धि हो और अशेष पापों का विनाश । उसी भाँति अनेक जन्मों में बाल्य, यौवन एवं वृद्धावस्था-जनित पुण्य की वृद्धिपूर्वक पापों का ध्वंस हो । आकाशादि पञ्च तत्त्वों शब्द आदि (रूप रस गन्धादि) विषय, श्रोत्र (कर्ण) आदि इन्द्रियाँ, महदादि (सोलह विकार), प्रकृति, पुरुष और ब्रह्मा में सदैव एक भाँति स्थित रहने वाले धर्मात्मा वासुदेव नारकीय दुःखप्रद मेरे पापों का विनाश कर सुकृत कर्मों की अनुदिन परमोत्तम वृद्धि होती रहे ।’

तदनन्तर भोजन करना चाहिये । वर्ष पूरा होने पर सुवर्ण की विष्णु-प्रतिमा बनवाकर उसे पूजित कर वस्त्र, सुवर्ण, दक्षिणा-सहित सवत्साधेनु ब्राह्मणों को देना चाहिये । इस विधि से जो पुरुष अथवा स्त्री इस सुकृतद्वादशी का व्रत करता हैं, वह कभी नरक को नहीं प्राप्त होता । नारायण के भक्त को कभी नरक बाधा नहीं होती । विष्णु का नाम उच्चारण करते ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, फिर नरक के भय का तो प्रश्न ही नहीं उठता । इसी प्रकार वासुदेव नारायण के नामों का उच्चारण करनेवाला कभी भी यम का मुख नहीं देखता । अतः भगवान् के पवित्र नामों का उच्चारण करना चाहिये ।
(अध्याय ८२)

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