भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ८५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ८५
विभूतिद्वादशी-व्रत में राजा पुष्पवाहन की कथा

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! अब मैं भगवान् विष्णु के विभूति द्वादशी नामक सर्वोत्तम व्रत का वर्णन कर रहा हूँ, जो सम्पूर्ण देवगणों द्वारा अभिवन्दित है । बुद्धिमान् मनुष्य कार्तिक, वैशाख, मार्गशीर्ष, फाल्गुन अथवा आषाढ़ मास में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को स्वल्पाहार कर सायंकालिक संध्योपासना से निवृत्त हो इस प्रकार का नियम ग्रहण करे — ‘प्रभो ! मैं एकादशी को निराहार रहकर भगवान् जनार्दन की भली-भाँति अर्चना करूँगा और द्वादशी के दिन ब्राह्मण के साथ बैठकर भोजन करूँगा । केशव ! मेरा यह नियम निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण हो जाय और फलदायक हो ।’ om, ॐफिर रात में ‘ॐ नमो नारायणाय’ मन्त्र का जप करते हुए सो जाय । प्रातःकाल उठकर स्नान-जप आदि करके पवित्र हो श्वेत पुष्पों की माला एवं चन्दन आदि से भगवान् पुण्डरीकाक्ष का पूजन करे ।

एक वर्ष तक प्रतिमास क्रमशः भगवान् के दस अवतारों तथा दत्तात्रेय और व्यास की स्वर्णमयी प्रतिमा का स्वर्णनिर्मित कमल के साथ दान करना चाहिये । उस समय छल, कपट, पाखण्ड आदि से दूर रहना चाहिये । राजन् ! इस प्रकार यथाशक्ति बारहों द्वादशी-व्रत को समाप्त कर वर्ष के अन्त में गुरु को लवणपर्वत के साथ-साथ गौ सहित शय्या-दान करना चाहिये । व्रती यदि सम्पत्तिशाली हो तो उसे वस्त्र, शृङ्गारसामग्री और आभूषण आदि से गुरु की विधिपूर्वक पूजा कर ग्राम अथवा गृह के साथ-साथ भूमि का दान करना चाहिये । साथ ही अपनी शक्ति के अनुसार अन्यान्य ब्राह्मणों को भी भोजन कराकर उन्हें वस्त्र, गोदान, रत्नसमूह और धनराशियों द्वारा संतुष्ट करना चाहिये । स्वल्प धनवाला व्रती अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान करे तथा जो व्रती परम निर्धन हो, किंतु भगवान् माधव के प्रति उसकी प्रगाढ़ निष्ठा हो तो उसे तीन वर्ष तक पुष्पार्चन की विधि से इस व्रत का पालन करना चाहिये । जो मनुष्य उपर्युक्त विधि से विभूतिद्वादशी व्रत का अनुष्ठान करता है, वह स्वयं पाप से मुक्त होकर अपने सौ पीढ़ियों तक के पितरों को तार देता है । उसे एक लाख जन्मों तक न तो शोकरुप फल का भागी होना पड़ता है, न व्याधि और दरिद्रता ही घेरती है तथा न बन्धन में ही पड़ना पड़ता हैं । वह प्रत्येक जन्म में विष्णु अथवा शिव का भक्त होता है । राजन् ! जब तक एक सौ आठ सहस्र युग नहीं बीत जाते, तब तक वह स्वर्गलोक में निवास करता है और पुण्य-क्षीण होने पर पुनः भूतल पर राजा होता है ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने पुनः कहा —
महाराज ! बहुत पहले रथन्तरकल्प में पुष्पवाहन नाम का एक राजा हुआ था, जो सम्पूर्ण लोकों में विख्यात तथा तेज में सूर्य के समान था । उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा ने उसे एक सोने का कमल (रूप विमान) प्रदान किया था, जिससे वह इच्छानुसार जहाँ-कहीं भी आ-जा सकता था । उसे पाकर उस समय राजा पुष्पवाहन अपने नगर एवं जनपदवासियों के साथ उस पर आरूढ़ होकर स्वेच्छानुसार देवलोक में तथा सातों द्वीपों में विचरण किया करता था । कल्प के आदि में पुष्कर निवासी उस पुष्पवाहन सातवें द्वीप पर अधिकार था, इसीलिये लोक में उसकी प्रतिष्ठा थी और आगे चलकर वह द्वीप पुष्करद्वीप के नाम से कहा जाने लगा । चूंकि देवेश्वर ब्रह्मा ने इसे कमलरूप विमान प्रदान किया था, इसलिये देवता एवं दानव उसे पुष्पवाहन कहा करते थे । तपस्या के प्रभाव से ब्रह्मा द्वारा प्रदत्त कमलरूप विमान पर आरूढ़ होने पर उसके लिये त्रिलोकी में कोई भी स्थान अगम्य न था । नरेन्द्र ! उसकी पत्नी का नाम लावण्यवती था । वह अनुपम सुन्दरी थी तथा हजारों नारियों द्वारा चारों ओर से समादृत होती रहती थी । वह राजा को उसी प्रकार अत्यन्त प्यारी थी, जैसे शंकरजी को पार्वतीजी परम प्रिय हैं । उसके दस हजार पुत्र थे, जो परम धार्मिक और धनुर्धारियों में अग्रगण्य थे । अपनी इन सारी विभूतियों पर बारम्बार विचारकर राजा पुष्पवाहन विस्मयविमुग्ध हो जाता था । एक बार (प्रचेता के पुत्र) मुनिवर वाल्मीकि राजा के यहाँ पधारे । उन्हें आया देखकर राजा ने उनसे इस प्रकार प्रश्न किया —

राजा पुष्पवाहन ने पूछा — मुनीन्द्र ! किस कारण से मुझे यह देवों तथा मानव द्वारा पूजनीय निर्मल विभूति तथा अपने सौन्दर्य से समस्त देवाङ्गनाओं को पराजित कर देनेवाली सुन्दरी भार्या प्राप्त हुई है ? मेरे थोड़े-से तप से संतुष्ट होकर ब्रह्मा ने मुझे ऐसा कमल-गृह क्यों प्रदान किया, जिसमें अमात्य, हाथी, रथसमूह और जनपदवासियों सहित यदि सौ करोड़ राजा बैठ जायें तो भी वे जान नहीं पड़ते कि कहाँ चले गये । वह विमान तारागणों, लोकपालों तथा देवताओं के लिये भी अलक्षित-सा रहता है । प्रचेतः ! मैंने, मेरी पुत्री ने अथवा मेरी भार्या ने पूजन्मों में कौन-सा ऐसा कर्म किया है, जिसका प्रभाव आज दिखलायी पड़ रहा है, इसे आप बतलायें ।

तदनन्तर महर्षि वाल्मीकि राजा के इस आकस्मिक एवं अद्भुत प्रभावपूर्ण वृत्तान्त को जन्मान्तर से सम्बन्धित जानकर इस प्रकार कहने लगे — ‘राजन् ! तुम्हारा पूर्वजन्म अत्यन्त भीषण व्याध के कुल में हुआ था । एक तो तुम उस कुल में पैदा हुए, फिर दिन-रात पापकर्म में भी निरत रहते थे । तुम्हारा शरीर भी कठोर अङ्ग संधियुक्त तथा बेडौल था । तुम्हारी त्वचा दुर्गन्धयुक्त थी और नख बहुत बढ़े हुए थे । उससे दुर्गन्ध निकलती थी और तुम बड़े कुरूप थे । उस जन्म में न तो तुम्हारा कोई हितैषी मित्र था, न पुत्र और न भाई-बन्धु ही थे, न पिता-माता और बहिन ही थी । भूपाल ! केवल तुम्हारी यह परम प्रियतमा पत्नी ही तुम्हारी अभीष्ट परमानुकूल संगिनी थी । एक बार कभी भयंकर अनावृष्टि हुई, जिसके कारण अकाल पड़ गया । उस समय भूख से पीड़ित होकर तुम आहार की खोज में निकले, परंतु तुम्हें कुछ भी जंगली (कन्द-मूल) फल आदि कोई खाद्य वस्तु प्राप्त न हुई । इतने में ही तुम्हारी दृष्टि एक सरोवर पर पड़ी, जो कमलसमूह से मण्डित था । उसमें बड़े-बड़े कमल खिले हुए थे । तब तुम उसमें प्रविष्ट होकर बहुसंख्यक कमल-पुष्पों को लेकर ‘वैदिश’ नामक नगर-(विदिशा नगरी-) में चले गये । वहाँ तुमने उन कमल-पुष्पों को बेचकर मूल्यप्राप्ति के हेतु पूरे नगरमें चक्कर लगाया । सारा दिन बीत गया, पर उन कमल-पुष्पों का कोई खरीददार न मिला । उस समय तुम भूख से अत्यन्त व्याकुल और थकावट से अतिशय क्लान्त होकर पत्नीसहित एक महल के प्राङ्गण में बैठ गये । वहाँ रात्रि में तुम्हें महान् मङ्गल शब्द सुनायी पड़ा । उसे सुनकर तुम पत्नीसहित उस स्थान पर गये, जहाँ वह मङ्गलशब्द हो रहा था । वहाँ मण्डप के मध्यभाग में भगवान् विष्णु की पूजा हो रही थी । तुमने उसका अवलोकन किया । वहाँ अनङ्गवती नाम की वेश्या माघ मास की विभूतिद्वादशी व्रत की समाप्ति कर अपने गुरु को भगवान् हृषीकेश का विधिवत् शृङ्गार कर स्वर्णमय कल्पवृक्ष, श्रेष्ठ लवणाचल और समस्त उपकरणसहित शय्या का दान कर रही थी । इस प्रकार पूजा करती हुई अङ्गवती को देखकर तुम दोनों के मन में यह विचार जाग्रत् हुआ कि इन कमलपुष्पों से क्या लेना है । अच्छा तो यह होता कि इनसे भगवान् विष्णु का शृङ्गार किया जाता । नरेश्वर ! उस समय तुम दोनों पति-पत्नी मन में ऐसी भक्ति उत्पन्न हुई और इसी अर्चा के प्रसङ्ग में तुम्हारे उन पुष्पों से भगवान् केशव और लवणाचल की अर्चना सम्पन्न हुई तथा शेष पुष्प-समूहों से तुम दोनों ने शय्या को भी सब ओर से सुसज्जित किया ।

तुम्हारी इस क्रिया से अनङ्गवती बहुत प्रसन्न हुई । उस समय उसने तुम दोनों को इसके बदले तीन सौ अशर्फियाँ देने का आदेश दिया, पर तुम दोनों ने बड़ी दृढ़ता से उस धन-राशि को अस्वीकार कर दिया । भूपते ! तब अनङ्गवती ने तुम्हें (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) चार प्रकार का अन्न लाकर दिया और कहा — ‘भोजन कीजिये’, किंतु तुम दोनों ने उसका भी परित्याग कर दिया और कहा — ‘वरानने ! हमलोग कल भोजन कर लेंगे । दृढ़व्रते ! हम दोनों जन्म से ही पापपरायण और कुकर्म करनेवाले हैं, पर इस समय तुम्हारे उपवास के प्रसङ्ग से हमें विशेष आनन्द प्राप्त हो रहा है । उसी प्रसङ्ग में तुम दोनों को धर्म का लेशांश प्राप्त हुआ और तुम दोनों ने रातभर जागरण भी किया था । (दूसरे दिन) प्रात:काल अनङ्गवती ने भक्तिपूर्वक अपने गुरु को लवणाचलसहित शय्या और अनेकों गाँव प्रदान किये । उसी प्रकार उसने अन्य बारह ब्राह्मणों को भी सुवर्ण, वस्त्र, अलंकारादि सहित बारह गौएँ प्रदान की । तदनन्तर सुहृद, मित्र, दीन, अंधे और दरिद्रों के साथ तुम लुब्धक-दम्पति को भोजन कराया और विशेष आदर-सत्कार के साथ तुम्हें विदा किया ।

राजेन्द्र ! वह सपत्नीक लुब्धक तुम्हीं थे, जो इस समय राजराजेश्वर के रूप में उत्पन्न हुए हो । उस कमल-समूह से भगवान् केशव का पूजन होने के कारण तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो गये तथा दृढ त्याग, तप एवं निर्लोभिता के कारण तुम्हें इस कमलमन्दिर की भी प्राप्ति हुई है । राजन् ! तुम्हारी उसी सात्विक भावना के माहात्म्य से, तुम्हारे थोड़े-से ही तप से ब्रह्मरूपी भगवान् जनार्दन तथा लोकेश्वर ब्रह्मा भी संतुष्ट हुए हैं । इससे तुम्हारा पुष्कर-मन्दिर स्वेच्छानुसार जहाँ-कहीं भी जाने की शक्ति से युक्त है । वह अनङ्गवती वेश्या भी इस समय कामदेव की पत्नी रति के सौतरूप हरिवंश एवं अन्य पुराणों तथा कथासरित्सागरादि में भी रति और प्रीति-ये दो कामदेव की पत्नियाँ कही गयी हैं। किंतु उसकी दूसरी पत्नी प्रीति की उत्पत्ति की पूरी कथा यही है।में उत्पन्न हुई है । यह इस समय प्रीति नाम से विख्यात है और समस्त लोकों में सबको आनन्द प्रदान करती तथा सम्पूर्ण देवताओं द्वारा सत्कृत है । इसलिये राजराजेश्वर ! तुम उस पुष्कर-गृह को भूतल पर छोड़ दो और गङ्गातट का आश्रय लेकर विभूतिद्वादशी व्रत का अनुष्ठान करो । उससे तुम्हें निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति हो जायगी ।

श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! ऐसा कहकर प्रचेतामुनि वहीं अन्तर्हित हो गये । तब राजा पुष्पवाहन ने मुनि के कथनानुसार सारा कार्य सम्पन्न किया । राजन् ! इस विभूतिद्वादशी-व्रत का अनुष्ठान करते समय अखण्ड-व्रत का पालन करना आवश्यक है । जिस किसी भी प्रकार से हो सके, बारहों द्वादशियों का व्रत कमल-पुष्पों द्वारा सम्पन्न करना चाहिये । अनघ ! अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को दक्षिणा भी देने का विधान है । इसमें कृपणता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि भक्ति से ही भगवान् केशव प्रसन्न होते हैं । जो मनुष्य पापों को विदीर्ण करनेवाले इस व्रत को पढ़ता या श्रवण करता है अथवा इसे करने के लिये सम्मत प्रदान करता है, वह भी सौ करोड़ वर्षों तक देवलोक में निवास करता है ।
(अध्याय ८५)

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