January 7, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ८६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ८६ मदन-द्वादशी-व्रत में मरुद्गणों का आख्यान युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! दिति (दैत्योंकी जननी)— ने जिस व्रत करने से उनचास मरुद्गणओं को पुत्र रूप में प्राप्त किया था, अब मैं आपसे उस मदनद्वादशी-व्रत के विषय में सुनना चाहता हूँ । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! पूर्वकाल में वसिष्ठ आदि महर्षियों ने दिति से जिस उत्तम मदनद्वादशी-व्रत का वर्णन किया था, उसी को आप मुझसे विस्तारपूर्वक सुनिये । व्रतधारी को चाहिये कि वह चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को श्वेत चावलों से परिपूर्ण एवं छिद्ररहित एक घट स्थापित करे । उस पर श्वेत चन्दन का अनुलेप लगा हो तथा वह श्वेत वस्त्र के दो टुकड़ों से आच्छादित हो । उसके निकट विभिन्न प्रकार के ऋतुफल और गन्ने के टुकड़े रखे जायें। वह विविध प्रकार की खाद्य-सामग्री से युक्त हो तथा उसमें यथाशक्ति सुवर्ण-खण्ड भी डाला जाय । तत्पश्चात् उसके ऊपर गुड़ से भरा हुआ ताँबे का पात्र स्थापित करे । उसके ऊपर केले के पत्ते पर काम तथा उसके वाम-भाग में शक्करसमन्वित रति की स्थापना करे । फिर गन्ध, धूप आदि उपचारों से उनकी पूजा करे और गीत, वाद्य तथा भगवान् विष्णु की कथा का आयोजन करे । प्रातःकाल वह घट ब्राह्मण को दान कर दे । पुनः भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भी नमकरहित भोजन करे और ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर इस प्रकार उच्चारण करे — ‘जो सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित रहकर आनन्द नाम से कहे जाते हैं, वे कामरूपी भगवान् जनार्दन मेरे इस अनुष्ठान से प्रसन्न हों ।’ इस विधि से प्रत्येक मास में मदनद्वादशी-व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये । व्रती को चाहिये कि वह द्वादशी के दिन आमलक-फल खाकर भूतल पर शयन करे और त्रयोदशी के दिन अविनाशी भगवान् विष्णु का पूजन करे । तेरहवाँ महीना आने पर घृतधेनु-सहित एवं समस्त सामग्रियों से सम्पन्न शय्या, कामदेव की स्वर्णनिर्मित प्रतिमा और श्वेत रंग की दुधारू गौ ब्राह्मण को समर्पित करे । उस समय शक्ति के अनुसार वस्त्र एवं आभूषण आदि द्वारा सपत्नीक ब्राह्मण की पूजा करके उन्हें शय्या और सुगन्ध आदि प्रदान करते हुए ऐसा कहना चाहिये — ‘आप प्रसन्न हों ।’ तत्पश्चात् उस धर्मज्ञ व्रती को कामदेव के नामों का कीर्तन करते हुए गोदुग्ध से बनी हुई हवि और श्वेत तिलों से हवन करना चाहिये । पुनः कृपणता छोड़कर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये और उन्हें यथाशक्ति गन्ना और पुष्पमाला प्रदानकर संतुष्ट करना चाहिये । जो इस विधि के अनुसार इस मदनद्वादशी-व्रत का अनुष्ठान करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर भगवान् विष्णु की समता को प्राप्त हो जाता है तथा इस लोक में श्रेष्ठ पुत्रों को प्राप्तकर सौभाग्य-फल का उपभोग करता है। दिति के इस व्रतानुष्ठान के प्रभाव से प्रभावित होकर महर्षि कश्यप उसके निकट पधारे और परम प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने उसे पुनः रूप-यौवन से सम्पन्न तरुण बना दिया तथा वर माँगने के लिये कही। दिति ने कहा — ‘पतिदेव ! मैं आपसे एक ऐसे पुत्र का वरदान चाहती हूँ, जो इन्द्र का वध करने में समर्थ, अमित पराक्रमी और महान् आत्मबल से सम्पन्न हो ।’ यह सुनकर महर्षि कश्यप ने उससे कहा ‘ऐसा ही होगा ।’ कश्यप ने पुनः उससे कहा — ‘वरानने ! एक सौ वर्षों तक तुम्हें इसी तपोवन में रहना है और अपने गर्भ की रक्षा के लिये प्रयत्न करना है । वरवर्णिनि । गर्भिणी स्त्री को संध्या-काल में भोजन नहीं करना चाहिये । उसे न तो कभी वृक्ष के मूल पर बैठना चाहिये, न उसके निकट हीं जाना चाहिये । वह घर की सामग्री—मूसल, ओखली आदि पर न बैठे, जल में घुसकर स्नान न करे, सुनसान घर में न जाय, लोगों के साथ वाद-विवाद न करे और शरीर को तोड़-मरोड़े नहीं । वह बाल खोलकर न बैठे, कभी अपवित्र न रहे, उत्तर दिशा में सिरहाना करके एवं कहीं भी नीचे सिर करके न सोये, न नंगी होकर रहे न उद्विग्नचित्त रहे. न कभी भीगे चरणों से शयन करे, अमङ्गल-सूचक वाणी न बोले, अधिक जोर से हँसे नहीं, नित्य माङ्गलिक कार्यों में तत्पर रहकर गुरुजन की सेवा करे और (आयुर्वेद द्वारा गर्भणी के स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त बतलायी गयी) सम्पूर्ण ओषधियों से युक्त गुनगुने गरम जल से स्नान करे । बुरी स्त्रियों से बातचीत न करे, कपड़े से हवा न ले । मृतवत्सा स्त्री के साथ न बैठे, दूसरे के घर में न जाय, जल्दी-जल्दी न चले, महानदियों को पार न करे । भयंकर और वीभत्स दृश्य न देखे । अजीर्ण भोजन न करे । कठिन व्यायामादि न करे । ओषधियों द्वारा गर्भ की रक्षा करती रहे, हृदय में मात्सर्य-भाव न रखे । जो गर्भिणी स्त्री विशेषरूप से इन नियमों का पालन करती है, उसका उस गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है, यह शीलवान् एवं दीर्घायु होता है । इन नियमों का पालन न करने पर निस्संदेह गर्भपात की आशङ्का बनी रहती है । प्रिये ! इसलिये तुम इन नियमों का पालन करके अपने गर्भ की रक्षा का प्रयत्न करो । तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जा रहा हूँ । दिति के द्वारा पति की आज्ञा स्वीकार कर लेने पर महर्षि कश्यप वहीं अन्तर्धान हो गये । तब दिति नियमों का पालन करती हुई समय व्यतीत करने लगी । कालान्तर में दिति को उनचास पुत्र (मरुद्गण) प्राप्त हुए । राजन् ! इस प्रकार से जो भी नारी इस मदन द्वादशी व्रत का अनुष्ठान करेगी, वह पुत्र प्राप्त कर पति के सुख को प्राप्त करेगी । (अध्याय ८६) Related