भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ८९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ८९
धर्मराज का समाराधन-व्रत यह कथा स्कन्दपुराण के नाम से अनेक व्रत-निबन्धों में संग्रहीत हैं।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! ऐसा कौन-सा व्रत है जिसके करने से यमराज प्रसन्न हो जायें और नरक का दर्शन न हो ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! एक बार जब मैं द्वारका-स्थित समुद्र में स्नान करके बाहर निकला, तब देखा कि मुद्गल मुनि चले आ रहे हैं । उनका तेज सूर्य के समान था और उनके मुख के तपस्तेज से दिशाएँ उद्भासित हो रही थीं । om, ॐतब मैंने उनका अर्घ्य, पाद्य आदि से सत्कार कर आदरपूर्वक उनसे पूछा — “महाराज ! प्राणियों के लिये अत्यन्त भयदायक नरक तथा यमदूतों आदि का जिससे दर्शन न हो ऐसा कोई व्रत आप मुझसे बतलायें ।’ यह सुनकर मुद्गलमुनि भी कुछ विस्मित-से हुए । किंतु बाद में शान्त-मन होकर वे बोले — ‘प्रभो ! एक बार ऐसा हुआ कि मुझे अकस्मात् मूर्च्छा आ गयी और मैं पृथ्वी पर गिर पड़ा, उस स्थिति में मैंने देखा कि हाथ में लाठी लिये कुछ लोग आग से जलते हुए से मेरे शरीर से निकलकर बाहर खड़े हुए थे और मेरे हृदय से एक अंगूठे के बराबर व्यक्ति को बलपूर्वक खींचकर तथा रस्सियों से बाँधकर यमपुरी की ओर ले जा रहे हैं । फिर मैं तत्काल क्या देखता हूँ कि यमराज की सभा लगी है और लाल-पीले नेत्रों वाले यमराज सभा में विराजमान हैं तथा कफ, वात, पित्त, ज्वर, मांस, शोथ, फोड़े फुसी, भगंदर, अक्षिरोग, विषूचिका, गलग्रह आदि अनेकों प्रकार के रोग और मृत्यु उन्हें घेरे हुए हैं और वे सभी मूर्तिमान् होकर यमदेव की उपासना कर रहे हैं । यमदूत भयंकर शस्त्र धारण किये हैं । कुछ राक्षस, दानव आदि भी वहाँ बैठे हैं । सिंह, व्याघ्र, बिच्छू, दंश, सियार, साँप, उल्लू, कीड़े-मकोड़े आदि भयंकर जीव-जन्तु वहाँ उपस्थित हैं । यमराज ने अपने किंकरों से पूछा — ‘दूतो ! तुमलोग यहाँ इन मुद्गलमुनि को क्यों ले आये ? मैंने तो मुद्गल क्षत्रिय को लाने के लिये कहा था, वह कौंडिन्यनगर का निवासी भीष्मक का पुत्र है, उसकी आयु समाप्त हो चुकी है, इन मुनि को तत्काल छोड़ दो और उसे ही ले आओ ।’ यह सुनकर वे दूत कौंडिन्यनगर गये, किंतु वहाँ राजा मुद्गल में मृत्यु के कोई लक्षण न देखकर भ्रान्त होकर पुनः यमलोक में वापस आये और उन्होंने सारा वृत्तान्त यमराज को बता दिया । इस पर यमराज ने उनसे कहा — ‘दूतो ! जिन पुरुषों ने नरकार्ति-विनाशिनी त्रयोदशीका व्रत किया है, उन्हें यमकिंकर नहीं देख पाते, इसीलिये तुमलोगों ने राजा मुद्गल को पहचाना नहीं ।’ पुनः यमदूतों द्वारा व्रत के विधान को पूछे जाने पर यमराज ने उनसे कहा — ‘मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को जब रविवार एवं मंगलवार न हो तब उस दिन तेरह विद्वान् और पवित्र ब्राह्मणों तथा एक पुराणवाचक का वरण करके पूर्वाह्णकाल में इन ब्राह्मणों को उत्तराभिमुख पवित्र आसन पर बैठाये । तिल-तैल से उनका अभ्यंग करके गन्धकाषाय तथा हल्के गरम जल से उन्हें पृथक्-पृथक् स्नान कराये और उनकी सेवा-शुश्रूषा करे । अनन्तर पूर्वाभिमुख बैठाकर उन्हें शाल्यन्न, मुद्गान्न, गुड़ के अपूप तथा सुपक्व व्यञ्जन आदरपूर्वक खिलाये ।

पुनः व्रती पवित्र होकर आचमन करे और उन ब्राह्मणों की अर्चना करे । ताम्रपत्र में प्रस्थमात्र (एक पसर या एक सेर) तिल-तण्डुल, दक्षिणा, छत्र, जलपुर्ण कलश आदि उन्हें अलग-अलग प्रदान कर विसर्जित करे ।

इसी प्रकार वर्षभर तक व्रत करे । कोई मानव यदि आदरपूर्वक एक बार भी इस व्रत को कर ले तो वह मेरे यमलोक का दर्शन नहीं करता । वह मेरी माया से अदृष्ट रहता है, अन्त में विमान द्वारा अर्कमण्डल में प्रवेश कर वह विष्णुपुर और शिवपुर को प्राप्त करता है । यमदूतो ! उस राजा मुद्गल ने इस त्रयोदशी-व्रत को पहले किया था, इसीलिये तुम सब उस क्षत्रिय-श्रेष्ठ का दर्शन नहीं कर पाये ।”

श्रीकृष्ण ! उसी क्षण मेरी मूर्च्छा दूर हो गयी और मैं स्वस्थ हो गया । भगवन् ! मैं आपके दर्शन की इच्छा से यहाँ आया था, जैसा पहले वृत्तान्त हुआ, वह सब मैंने आपको बतलाया ।

भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोले — राजन् ! वे मुनि मुझसे इतना कहकर अपने स्थान को चले गये । कौन्तेय ! आप भी इस व्रत को करें । इससे आपको यमलोक नहीं जाना पड़ेगा । इसी प्रकार जो कोई स्त्री-पुरुष इस त्रयोदशी व्रत का श्रद्धापूर्वक आचरण करेंगे, वे सभी पापों से मुक्त होकर अपने पुण्य-कर्म के प्रभाव से स्वर्ग में पूजित होंगे और उन्हें कभी यमयातना नहीं सहनी पड़ेगी ।
(अध्याय ८९)

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