भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ९१ से ९२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ९१ से ९२
पाली-व्रत ‘पाली’ शब्द जटिल है, यह कोशों में प्रायः नहीं मिलता । इसका अर्थ कूप, तडाग आदि जलाशयों की रक्षा के लिये बने घेरे से है । उसी पर बैठकर स्त्रियाँ इस व्रत को सम्पन्न करती हैं । वरुणदेव चूँकि सभी जलों में रहते हैं, अत इसे वहीं बैठकर करना चाहिये। एवं रम्भा-(कदली-) व्रत

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! श्रेष्ठ स्त्रियाँ जलपूर्ण तडागों और सरोवरों में किस निमित्त स्नान-दान आदि कर्म करती है ? इसे आप बतायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को बावली, कुएँ, पुष्करिणी तथा बड़े-बड़े जलाशयों आदि के पास पवित्र होकर भगवान् वरुणदेव को अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । om, ॐव्रती को चाहिये कि तडाग के तट पर जाकर फल, पुष्प, वस्त्र, दीप, चन्दन, महावर, सप्तधान्य, बिना अग्नि के स्पर्श से पका हुआ अन्न, तिल, चावल, खजूर, नारिकेल, बिजौरा नीबू, नारंगी, अंगूर, दाड़िम, सुपारी आदि उपचारों से वारुणीसहित वरुणदेव की एवं जलाशय की विधिपूर्वक पूजा करे और उन्हें अर्घ्य प्रदान कर इस प्रकार उनकी प्रार्थना करे —

“वरुणाय नमस्तुभ्यं नमस्ते यादसाम्पते ।
अपाम्पते नमस्तेऽस्तु रसानाम्पतये नमः ॥
मा क्लेदं मा च दौर्गन्ध्यं विरस्यं मा मुखेऽस्तु मे ।
वरुणो वारुणीभर्ता वरदोऽस्तु सदा मम ॥”
(उत्तर ९१ । ७-८)

‘जलचर जीवों के स्वामी वरुणदेव ! आपको नमस्कार है। सभी जल एवं जल से उत्पन्न रस-द्रव्यों के स्वामी वरुणदेव ! आपको नमस्कार है। मेरे शरीर में पसीना, दुर्गन्ध या विरसता -ज्वर आदिसे मुखका स्वाद बिगड़ जाता है, उसे विरसता कहते हैं। आदि मेरे मुख में न हों । वारुणीदेवी के स्वामी वरुणदेव ! आप मेरे लिये सदा प्रसन्न एवं वरदायक बने रहें ।’

व्रती को चाहिये कि इस दिन बिना अग्नि के पके हुए भोजन अर्थात् फल आदि का भोजन करे । इस विधि से जो पाली-व्रत को करता है, वह तत्क्षण सभी पापों से मुक्त हो जाता है । आयु, यश और सौभाग्य प्राप्त करता है तथा समुद्र के जल की भाँति उसके धन का कभी अन्त नहीं होता ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने पुनः कहा — राजन् ! अब मैं ब्रह्माजी की सभा में देवर्षियों के द्वारा पूछे जाने पर देवलमुनिप्रोक्त रम्भा-व्रत का वर्णन कर रहा हूँ । यह भी भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को ही होता है । सभी देवताओं, गन्धर्वों तथा अप्सराओं ने भी इस व्रत का अनुष्ठान कर कदली-वृक्ष को सादर अर्घ्य प्रदान किया था । व्रती को चाहिये कि इस चतुर्दशी को नाना प्रकार के फल, अंकुरित अन्न, सप्तधान्य, दीप, चन्दन, दही, दूर्वा, अक्षत, वस्त्र, पक्वान्न, जायफल, इलायची तथा लवंग आदि उपचारों से कदली-वृक्ष का पूजनकर उसे निम्नलिखित मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करे —

“चित्या त्वं कन्दलदलैः कदली कामदायिनि ।
शरीरारोग्यलावण्यं देहि देवि नमोऽस्तु ते ॥”
(उत्तरपर्व ९२ । ७)
‘कदली देवि ! आप अपने पत्तों से वायु के व्याज से ज्ञान एवं चेतना का संचार करती हुई सभी कामनाओं को देती हैं । आप मेरे शरीर में रूप, लावण्य, आरोग्य प्रदान करने की कृपा करें । आपको नमस्कार है ।’

इसके अनन्तर स्वयं पके हुए फल आदि का भोजन ग्रहण करे । जो भी पुरुष अथवा स्त्री भक्ति से इस व्रत को करती है, उसके वंश में दुर्भगा, दरिद्रा, वन्ध्या, पापिनी, व्यभिचारिणी, कुलटा, पुनर्भू, दुष्टा और पति की विरोधिनी कोई कन्या नहीं उत्पन्न होती । इस व्रत को करने पर नारी सौभाग्य, पुत्र-पौत्र, धन, आयुष्य तथा कीर्ति आदि प्राप्त कर सौ वर्षपर्यन्त अपने पति के साथ आनन्दपूर्वक रहती है । इस रम्भा-व्रत को गायत्री ने स्वर्ग में किया था । इसी प्रकार गौरी ने कैलास में, इन्द्राणी ने नन्दनवन में, लक्ष्मी ने श्वेतद्वीप में, राज्ञी ने रविमण्डल मे, अरुन्धती ने दारुवन में, स्वाहा ने मेरुपर्वत पर, सीतादेवी ने अयोध्या में, वेदवती ने हिमाचल पर और भानुमती ने नागपुर में इस व्रत को किया था ।
(अध्याय ९१-९२)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.