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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १०२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १०२
सावित्री-व्रतकथा एवं व्रत-विधि

राजा युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! अब आप सावित्री-व्रत के विधान का वर्णन करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! सावित्री नाम की एक राजकन्या ने वन में जिस प्रकार यह व्रत किया था, स्त्रियों के कल्याणार्थ मैं उस व्रत का वर्णन कर रहा हूँ, उसे आप सुनें ।
प्राचीन काल में मद्रदेश (पंजाब)— में एक बड़ा पराक्रमी, सत्यवादी, क्षमाशील, जितेन्द्रिय और प्रजापालन में तत्पर अश्वपति नाम का राजा राज्य करता था, उसे कोई संतान न थी । om, ॐइसलिये उसने सपत्नीक व्रत द्वारा सावित्री की आराधना की । कुछ काल के अनत्तर व्रत के प्रभाव से ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री ने प्रसन्न हो राजा को वर दिया कि ‘राजन् ! तुम्हें (मेरे ही अंशसे) एक कन्या उत्पन्न होगी ।’ इतना कहकर सावित्री देवी अन्तर्धान हो गयीं और कुछ दिन बाद राजा को एक दिव्य कन्या उत्पन्न हुई । वह सावित्रीदेवी के वर से प्राप्त हुई थी, इसलिये राजा ने उसका नाम सावित्री ही रखा । धीरे-धीरे वह विवाह के योग्य हो गयी । सावित्री ने भी भृगु के उपदेश से सावित्री-व्रत किया ।

एक दिन वह व्रत के अनन्तर अपने पिता के पास गयी और प्रणाम कर वहाँ बैठ गयी । पिता ने सावित्री को विवाह योग्य जानकर अमात्यों से उसके विवाह विषय में मन्त्रणा की; पर उसके योग्य किसी श्रेष्ठ वर को न देखकर पिता अश्वपति ने सावित्री से कहा — ‘पुत्रि ! तुम वृद्धजनों तथा अमात्यों के साथ जाकर स्वयं ही अपने अनुरूप कोई वर ढूँढ़ लो ।’ सावित्री भी पिता की आज्ञा स्वीकार कर मन्त्रियों के साथ चल पड़ी । स्वल्प काल में ही राजर्षियों के आश्रमों, सभी तीर्थों और तपोवनों में घूमती हुई तथा वृद्ध ऋषियों का अभिनन्दन करती हुई वह मन्त्रियों सहित पुनः अपने पिता के पास लौट आयी । सावित्री ने देखा कि राजसभा में देवर्षि नारद बैठे हुए हैं । सावित्री ने देवर्षि नारद और पिता को प्रणामकर अपना वृत्तान्त इस प्रकार बताया — ‘महाराज ! शाल्वदेश में द्युमत्सेन नाम के एक धर्मात्मा राजा हैं । उनके सत्यवान् नामक पुत्र का मैंने वरण किया है ।’ सावित्री की बात सुनकर देवर्षि नारद कहने लगे — ‘राजन् ! इसने बाल्य-स्वभाववश उचित निर्णय नहीं लिया । यद्यपि द्युमत्सेन का पुत्र सभी गुणों से सम्पन्न है, परंतु उसमें एक बड़ा भारी दोष हैं कि आज के ही दिन ठीक एक वर्ष के बाद उसकी मृत्यु हो जायगी ।’ देवर्षि नारद की वाणी सुनकर राजा ने सावित्री से किसी अन्य वर को ढूँढ़ने के लिये कहा ।

सावित्री बोली — ‘राजाओं की आज्ञा एक ही बार होती है । पण्डितजन एक ही बार बोलते हैं और कन्या भी एक ही बार दी जाती हैं ये तीनों बातें बार-बार नहीं होतीं ।
‘सकृजल्पन्ति राजानः सकृजल्पन्ति पण्डिताः ।
सकृत् प्रदीयते कन्या त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ॥’
(उत्तरपर्व १०२ । २९)

सत्यवान् दीर्घायु हो अथवा अल्पायु, निर्गुण हो या गुणवान्, मैंने तो उसका वरण कर ही लिया; अब मैं दूसरे पति को कभी नहीं चुनँगी । जो कहा जाता है, उसका पहले विचारपूर्वक मन में निश्चय कर लिया जाता है और जो वचन कह दिया जाय, वहीं करना चाहिये । इसलिये मैंने जो मन में निश्चय कर कहा है, मैं वहीं करूंगी ।’

सावित्री का ऐसा निश्चययुक्त वचन सुनकर नारदजी ने कहा — ‘राजन् ! आपकी कन्या को यही अभीष्ट है तो इस कार्य में शीघ्रता करनी चाहिये । आपका यह दान-कर्म निर्विघ्न सम्पन्न हो ।’ इस तरह कहकर नारदमुनि स्वर्ग चले गये और राजा ने भी शुभ मुहूर्त में सावित्री का सत्यवान् से विवाह कर दिया । सावित्री भी मनोवाञ्छित पति प्राप्तकर अत्यन्त प्रसन्न हुई । दोनों अपने आश्रम में सुखपूर्वक रहने लगे । परंतु नारदमुनि की वाणी सावित्री के हृदय में खटकती रहती थी । अब वर्ष पूरा होने को आया, तब सावित्री ने विचार किया कि अब मेरे पति की मृत्यु का समय समीप आ गया है । यह सोचकर सावित्री ने भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी से तीन रात्रि का व्रत (यह व्रत अन्य वचनोंके अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण तथा शुक्ल द्वादशी से पूर्णिमा तक करने की परम्परा भी लोक में प्रसिद्ध है।) ग्रहण कर लिया और वह भगवती सावित्री का जप, ध्यान, पूजन करती रही । उसे यह निश्चय था कि आज से चौथे दिन सत्ययान् की मृत्यु होगी । सावित्री ने तीन दिन-रात नियम से व्यतीत किये । चौथे दिन देवता-पितरों को संतुष्ट कर उसने अपने ससुर और सास के चरणों में प्रणाम किया ।

सत्यवान् वन से काष्ठ लाया करता था । उस दिन भी यह काष्ठ लेने के लिये जाने लगा । सावित्री भी उसके साथ जाने को उद्यत हो गयी । इस पर सत्यवान् ने सावित्री से कहा — ‘वन में जाने के लिये अपने सास-ससुर से फूछ लो ।’ यह पूछने गयी । पहले तो सास-ससुर ने मना किया, किंतु सावित्री बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने जाने की आज्ञा दे दी । दोनों साथ-साथ वन में गये । सत्यवान् ने वहाँ काष्ठ काटकर बोझ बाँधा, परंतु उसी समय उसके मस्तक में महान् वेदना उत्पन्न हुई । उसने सावित्री से कहा — ‘प्रिये ! मेरे सिर में बहुत व्यथा है, इसलिये थोड़ी देर विश्राम करना चाहता हूँ ।’ सावित्री अपने पति के सिर को अपनी गोद में लेकर बैठ गयी । इतने में ही यमराज वहाँ आ गये । सावित्री ने उन्हें देखकर प्रणाम किया और कहा ‘प्रभो ! आप देवता, दैत्य, गन्धर्व आदि में से कौन हैं ? मेरे पास क्यों आये हैं ?’

धर्मराज ने कहा — सावित्री ! मैं सम्पूर्ण लोकों का नियमन करनेवाला हूँ । मेरा नाम यम है । तुम्हारे पति की आयु समाप्त हो गयी है, परंतु तुम पतिव्रता हो, इसलिये मेरे दूत इसको न ले जा सके । अतः मैं स्वयं ही यहाँ आया हूँ । इतना कहकर यमराज ने सत्यवान् के शरीर से अंगुष्ठमात्र के पुरुष को खींच लिया और उसे लेकर अपने लोक को चल पड़े । सावित्री भी उनके पीछे चल पड़ी । बहुत दूर जाकर यमराज ने सावित्री से कहा — ‘पतिव्रते ! अब तुम लौट जाओ। इस मार्ग में इतनी दूर कोई नहीं आ सकता ।’

सावित्री ने कहा — महाराज ! पति के साथ आते हुए मुझे न तो ग्लानि हो रही है और न कुछ श्रम ही हो रहा है । मैं सुखपूर्वक चली आ रही हूँ । जिस प्रकार सज्जनों की गति संत हैं, वर्णाश्रमों का आधार वेद है, शिष्यों का आधार गुरु और सभी प्राणियों का आश्रय-स्थान पृथ्वी है, उसी प्रकार स्त्रियों का एकमात्र आश्रय-रथान उसका पति ही है अन्य कोई नहीं ।

इस प्रकार सावित्री के धर्म और अर्थयुक्त वचनों को सुनकर यमराज प्रसन्न होकर कहने लगे — ‘भामिनि ! मैं तुमसे बहुत संतुष्ट हैं, तुम्हें जो वर अभीष्ट हो वह माँग लो ।’ तब सावित्री ने विनयपूर्वक पाँच वर माँगे — (१) मेरे ससुर के नेत्र अच्छे हो जायें और उन्हें राज्य मिल जाय । (२) मेरे पिता के सौ पुत्र हो जायँ । (३) मेरे भी सौ पुत्र हो । (४) मेरा पति दीर्घायु प्राप्त करे तथा (५) हमारी सदा धर्म में दृढ़ श्रद्धा बनी रहे । धर्मराज ने सावित्री को ये सारे वर दे दिये और सत्यवान् को भी दे दिया । सावित्री प्रसन्नतापूर्वक अपने पति को साथ लेकर आश्रम में आ गयी । भाद्रपद की पूर्णिमा को जो उसने सावित्री-व्रत किया था, यह सब उसी का फल है !

युधिष्ठिर ने पुनः कहा — भगवन् ! अब आप । सावित्री-व्रत की विधि विस्तारपूर्वक बतलायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! सौभाग्य की इच्छावाली स्त्री को भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को पवित्र होकर तीन दिन के लिये सावित्री-व्रत का नियम ग्रहण करना चाहिये । यदि तीन दिन उपवास रहने की शक्ति न हो तो त्रयोदशी को नक्तव्रत, चतुर्दशी को अयाचित-व्रत और पूर्णिमा को उपवास करे । सौभाग्य की कामनावाली नारी नदी, तड़ाग आदि में नित्य-स्नान करे और पूर्णिमा को सरसों का उबटन लगाकर स्नान करे ।

यथाशक्ति मिट्टी, सोने या चाँदी की ब्रह्मासहित सावित्री की प्रतिमा बनाकर बाँस के एक पात्र में स्थापित करे और दो रक्त वर्ण के वस्त्रों से उसे आच्छादित करे । फिर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करे । कूष्माण्ड, नारियल, ककड़ी, तुरई, खजूर, कैथ, अनार, जामुन, जम्बीर, नारंगी, अखरोट, कटहल, गुड़, लवण, जीरा, अंकुरित अन्न, सप्तधान्य तथा गले का डोरा (सावित्री-सूत्र) आदि सब पदार्थ बाँस के पात्र में रखकर सावित्रीदेवी को अर्पण कर दे । रात्रि के समय जागरण करे । गीत, वाद्य, नृत्य आदि का उत्सव करे । ब्राह्मण सावित्री की कथा कहे । इस प्रकार सारी रात्रि उत्सवपूर्वक व्यतीत कर प्रातः व्रती नारी सब सामग्रीसहित सावित्री की प्रतिमा श्रेष्ठ विद्वान् ब्राह्मण को दान कर दे । यथाशक्ति ब्राह्मण-भोजन कराकर स्वयं भी हविष्यान्न-भोजन करे ।

राजन् ! इसी प्रकार ज्येष्ठ मास की अमावास्या को वटवृक्ष के नीचे काष्ठ-भार सहित सत्यवान् और महासती सावित्री की प्रतिमा स्थापित कर उनका विधिवत् पूजन करना चाहिये । रात्रि को जागरण आदि कर प्रातः वह प्रतिमा ब्राह्मण को दान कर दे । इस विधान से जो स्त्रियाँ यह सावित्री-व्रत करती हैं, वे पुत्र-पौत्र-धन आदि पदार्थों को प्राप्त कर चिर-कालतक पृथ्वी पर सब सुख भोग कर पति के साथ ब्रह्मलोक को प्राप्त करती हैं । यह व्रत स्त्रियों के लिये पुण्यवर्धक, पापहारक, दुःखप्रणाशक और घन प्रदान करनेवाला है । जो नारी भक्ति से इस व्रत को करती है, यह सावित्री की भाँति दोनों कुलों का उद्धार कर पतिसहित चिरकाल तक सुख भोगती है । जो इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे भी मनोवाञ्छित फल प्राप्त करते हैं ।
(अध्याय १०२)

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