भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १०३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १०३
महाकार्तिकी-व्रत के प्रसंग में रानी कलिंगभद्रा का आख्यान

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — महाराज ! पूर्वकाल में मध्य देश के वृषस्थल नामक स्थान में महाराज दिलीप की कलिंगभद्रा नाम की एक सर्वगुणसम्पन्ना महारानी थी । वह सदा ब्राह्मणों को दान देती तथा देवार्चन करती रहती । एक समय उसने कार्तिक मास में छः महीने का कृतिका-व्रत का संकल्प लिया । वह प्रत्येक पारणा में नित्य पूजन, दान, ब्राह्मण-भोजन, हवन आदि में तत्पर रहती ।om, ॐ एक बार व्रत में जब किंचित् कालावशेष था, तब वह रात्रि में अपने पति के साथ विश्राम कर रही थी । उसी समय अचानक एक भयंकर सर्प ने उसे डँस लिया । फलस्वरूप उसके प्राण निकल गये और वह जन्मान्तर में बकरी बनी, परंतु व्रत के प्रभाव से उसे अपने पूर्वजन्म की स्मृति बनी हुई थी । उसने अपना कृत्तिका-व्रत फिर ग्रहण किया । वह अपने यूथ से अलग होकर उपवास करने लगी ।

एक बार कार्तिक मास में किसी दूसरे के खेत में जब वह चर रही थी, तब उस खेत का स्वामी उसे पकड़कर अपने घर ले आया । जातिस्मर अत्रि ऋषि ने उस बकरी को देखा और यह जान लिया कि यह रानी कलिंगभद्रा है । दयाकर उन्होंने उसे बन्धन से मुक्त करा दिया । वहाँ से छूटकर उसने बेर के पत्ते खाकर शीतल जल पिया और कृत्तिका-व्रत का पारण किया । ऋषि अत्रि उसे योगज्ञान का उपदेश देकर अपने आश्रम को चले गये और वह योगेश्वरी अपने व्रत में पुनः तत्पर हो गयी तथा कुछ काल के अनन्तर उसने योगबल से अपने प्राण त्याग दिये । तदनन्तर वह गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुई । उस समय उसका नाम योगलक्ष्मी हुआ । गौतम मुनि ने महर्षि शाण्डिल्य मुनि से योगलक्ष्मी का विवाह कर दिया । वह भी शाण्डिल्य के घर में सरस्वती, स्वाहा, शची, अरुन्धती, गौरी, राज्ञी, गायत्री, महालक्ष्मी तथा महासती की भाँति सुशोभित हुई । वह देवता, पितर और अतिथियों के सत्कार में नित्य लगी रहती । ब्राह्मणों को भोजन कराती ।

एक दिन महर्षि वहाँ आये और उन्होंने योगबल से सारा वृत्तान्त ज्ञान लिया और पूछा — ‘महाभागे योगलक्ष्मि ! कृत्तिकाएँ कितनी है ?’ यह सुनकर महासती योगलक्ष्मी को भी पूर्ववृत स्मरण हो आया और उसने कहा — ‘महायोगिन् ! कृत्तिकाएँ छः हैं ।’ यह सुनकर दयालु अत्रि मुनि ने पुनः उसे मन्त्र और कृत्तिका-व्रत का उपदेश दिया, जिसके करने से उसने चिरकाल तक संसार का सुख भोगकर मोक्ष प्राप्त कर लिया ।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! कृत्तिका-व्रत की क्या विधि है ? इसे आप बतायें ।

भगवान् कहने लगे — महाराज ! कार्तिक की पूर्णिमा को कृतिका नक्षत्र में बृहस्पति या सोमवार होने पर महाकार्तिकी का योग होता है । महाकार्ति की तो बहुत वर्षों
और बड़े पुण्य से प्राप्त होती है । इसलिये साधारण कार्तिकी पूर्णिमा को भी उपवास करे । कार्तिकी पूर्णिमा को प्रातः ही दन्तधावन आदि कर नक्तव्रत का अथवा उपवास का नियम ग्रहण करें । पुष्कर, प्रयाग, कुरुक्षेत्र, नैमिष, शालग्राम, कुशावर्त, मूलस्थान, शकन्तुल, गोकर्ण, अर्बुद, अमरकण्टक आदि किसी पवित्र तीर्थ में अथवा अपने घर में ही स्नान करे । फिर देवता, ऋषि, पितर और अतिथि का पूजन कर हवन करे । सायंकाल के समय घृत और दुग्ध से पूर्ण छः पात्रों में सुवर्ण, चाँदी, रत्न, नवनीत, अन्नकण तथा पिष्ट से छः कृतिकाओं की मूर्ति बनाकर स्थापित करे । फिर उन्हें रक्तसूत्र से आवेष्टित कर सिंदूर, कुंकुम, चन्दन, चमेली के पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उनका पूजन कर कृत्तिकाओं की मूर्तियों को ब्राह्मण को दान कर दे । दान करते समय यह मन्त्र पढ़ें —

“ॐ सप्तर्षिदारा ह्यनलस्य वल्लभा
या ब्रह्मणा रक्षितयेति युक्ताः ।
तुष्टाः कुमारस्य यथार्थमातरो
ममापि सुप्रीततरा भवन्तु ॥”
(उतरपर्व १०३ । ३७)
‘कुमार के ऊपर सन्तुष्ट होने वाली वे मातायें, जो सप्तर्षियों की स्त्रियाँ एवं अग्नि की वल्लभा होकर ब्रह्म द्वारा सुरक्षित हैं, मेरे ऊपर भी उसी भाँति अत्यन्त प्रसन्न हों ।’

ब्राह्मण भी मूर्ति ग्रहण करते समय इस प्रकार मन्त्रोच्चारण करे —

“धर्मदाः कामदाः सन्तु इमा नक्षत्रमातरः ।
कृत्तिका दुर्गसंसारात् तारयन्त्यावयोः कुलम् ॥”
(उत्तरपर्व १०३ । ३९)

‘धर्म और कामनाओं को सफल करने वाली कृत्तिकाँए जो नक्षत्रो की जननी रूप हैं, इस दुर्गम संसार से हम दोनों के कुल का उद्धार करें ।’

तदनन्तर ब्राह्मण सब सामग्री लेकर घर जाय और छः कदम तक यजमान उसके पीछे चले । इस प्रकार जो पुरुष कृतिका-व्रत करता है, वह सूर्य के समान प्रकाशमान विमान में बैठकर नक्षत्रलोक में जाता है । जो स्त्री इस व्रत को करती है, यह भी अपने पतिसहित नक्षत्रलोक में जाकर बहुत काल तक दिव्य भोगों का उपभोग करती है ।
(अध्याय १०३)

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